Monday - 8 January 2024 - 5:33 PM

आदिवासी महिलाओं का करामाती परमार्थ

रूबी सरकार

ललितपुर जिले का तालबेहट विकास खण्ड के अंतर्गत आने वाला लगभग 27 गांव कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन इसलिए झेल पा रहा है, क्योंकि इन गांवों को स्वयंसेवी संस्था परमार्थ समाज सेवी संस्थान ने पिछले एक दशक से ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में काम कर रहा था। निर्धन, स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित व अतिसंवेदनशील वर्गों को पानी, पोषणयुक्त भोजन के साथ-साथ गुणवत्ता परक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से संस्थान के स्वयंसेवकों द्वारा काम किया जा रहा था।

संस्थान का ध्यान मुख्य रूप से आदिवासी जनजाति, अनूसूचित जाति पर केंद्रित था। कार्ययोजना के तहत कार्यकर्ताओं ने आदिवासियों के मूलभूत जरूरतों का सर्वे किया, फिर सरकार की योजनाओं से उन्हें परिचित कराया, जिससे इनलोगों का गांव से पलायन न हो और वे आत्मनिर्भर बनें।

 

गांव वालों की जागरूकता से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के अंतर्गत दी जाने वाली स्वास्थ्य सेवाओं का दायरा बढ़ा। मातृ शिशु मृत्यदर में कमी आई, कुपोषित बच्चों की संख्या घटी और रक्त की कमी से जूझ रही महिलाओं का स्वास्थ्य सुधरा।

पहले यहां के आदिवासी दिहाड़ी व पत्थर की खदानों पर काम करते थे, जिससे महिलाएं एवं पुरुष सिलिकोसिस सरीखी बीमारियों से ग्रसित हो रहे थे, इ ससे उनकी आयु तो घटती ही थी, साथ ही समुचित पोषक आहार न मिलने से बस्तियों में कुपोषित बच्चों की भरमार थी। संस्थान की पहल पर यहां की जल सहेलियों ने पानी के प्रबंध के साथ-साथ समेकित आदिवासी विकास कार्यक्रम के अंतर्गत गुजरात की मॉडल पर बाड़ी परियोजना शुरू की।

इस परियोजना में जिन आदिवासी महिलाओं के पास जमीन थी ऐसे लगभग एक हजार महिलाओं को परमार्थ ने नींबू, अमरूद, बेर , बबूल, मटर, साग-सब्जियों के बीज और पौधे निःशुल्क उपलब्ध कराये। इनके खेत और बागीचों की फेसिंग करवाई, जिससे इनके उत्पादन कोई जानवर नष्ट न कर पायें। इस तरह लगभग तीन साल बाद इन आदिवासियों को सब्जी और फलों से इतनी कमाई होने लगी और वे खेत छोड़कर कहीं जाने को तैयार नहीं हुए।

इसके अलावा भूमिहीन महिलाओं केा आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए तीन-तीन बकरियां दी गई । आगे चलकर इन महिलाओं ने मिलकर 10-10 की संख्या में अपनी-अपनी समूह बना ली। ये समूह सिर्फ खेत में काम नहीं करतीं, बल्कि सामाजिक मुद्दों पर आपस में चर्चा करती हैं। स्वास्थ्य के प्रति एक-दूसरे को जागरूक करती हैं।

मौसमी प्रकोप से अपने उत्पादन को बचाती है, बाल-विवाह , कुपोषण, किशोरियों की पढ़ाई जारी रखने जैसे मुद्दों पर इनकी समझ विकसित हुई है। आज आत्मनिर्भर के साथ-साथ इनका आत्मविश्वास भी बढ़ा है। चंद्रापुर गांव की जल सहेली पुष्पा अपने खेत में देवरानी के साथ भरी दोपहरी मंे भी काम करती है, उसने बताया, अभी जो बंदी चल रही है, उसमें पानी और खाना हमें मिल रहा है। पहले हैण्डपम्प सूख जाते थे। अगर देशबंदी के समय ऐसा होता, तो गांव वाले संक्रमण से ज्यादा प्यासे मर जाते।

परमार्थ ने हमें पानी की बचत, हैण्डपम्प मरम्मत और तालाब का गहरीकरण सिखाया। हमलोग कई चेकडेम भी बनवाये। साथ ही पोषणवाटिका की सीख हमें मिली। कभी किसी ने नहीं सोचा होगा, कि ऐसा दिन भी आयेगा, जब सब घरों में कैद हो जायेंगे। अब बाहर के लोग चंद्रापुर में पानी और साग-सब्जी लेने आ रहे हैं। उदगुवां गांव की सिरकुंवर के क्या कहने, उसने तो समाजसेवा में कई मेडल भी प्राप्त कर चुकी हैं । फूर्ति से कहती है, पहले 20 हाथ नीचे से पानी खींचती थी। अब जरूरत के वक्त दूसरों को पानी पहुंचाती हूं।

परमार्थ के सहयोग से श्रमदान कर तालाब खुदवाया, जिसमें मछली पालन के साथ-साथ 200 एकड़ जमीन की सिंचाई भी हो रही है। हमारे पास खाने को है, पीने को पानी है, हमें कोई तकलीफ नहीं है। संकट में तो हम दूसरों की मदद कर रहे हैं।रजावन गांव की लक्ष्मी भी कुछ इसी तरह की बात करती है, कि पहले कमाने के लिए हम शहर जाते थे, अब शहर हमसे मांग रहा है।हमारी परमार्थ ने मदद की है, अब हमें मौका मिला है, दूसरों की मदद करने का। अब ये महिलाएं पितृसत्तात्म सत्ता को चुनौती दे रही है और घूंघट से बाहर निकलकर मुसीबत में दूसरों के काम आ रही हैं।

किसने सोचा था, लगभग 60 दिनों के लिए एक संक्रमण के चलते देशबंदी हो जायेगी और गरीब और मजदूरों के सामने भूखों मरने की नौबत आ जायेगी। लेकिन परमार्थ ने इन आदिवासियों को समय रहते सहारा दिया, इन्हें आत्मनिर्भर बनाया। संस्था ही सीख ही है, कि ऐसे आपातकाल में जल सहेलियां सिर्फ अपने परिवार का भरण-पोषण ही नहीं कर रहीं, वे अन्य जरूरतमंदों तक भी पहुंच रही हैं।

कभी यह इलाका अपनी सांस्कृतिक विरासतें और ऐतिहासिक धरोहरों, प्राकृतिक एवं लाल्तिय उमंगो के लिए जानी जाती थी, आज यह क्षे़त्र जल सहेलियों की सूझ-बूझ और उनके श्रम के लिए जानी जाती है।यहां की मेहनतकश जल सहेलियों ने परमार्थ के सहयोग से ऐतिहासिकता बावडि़या एवं कुंए, जो अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे थे, ऐसे कई बड़े जल स्रोतों को पुनर्जीचित किया है। समय-समय पर इन महिलाओं के चर्चे विदेशी मीडिया में भी होती रहती है।

बहरहाल, परमार्थ आज भी हिन्दुस्तान यूनिलीवर के साथ मिलकर कोविड वॉयरस की वजह से परेशान तथा आर्थिक रूप से विपन्न परिवारों की मदद में लगा है। चाहे वह भूखे-प्यासे राह चलते मजदूर हों या घर वापसी कर चुके मजदूर , दोनों के लिए वह पका हुआ भोजन का पैकेट और घर-घर जाकर कच्चा रसद उपलब्ध करा रहा है।

बताते चले, कि ललितपुर जिला वर्ष 1974 में बना। इसके पूर्व वर्ष 1861 से 1891 तक ललितपुर ब्रिटिश शासन काल में जनपद मुख्यालय रहा एवं 1892 से फरवरी 1974 तक यह जनपद झांसी जनपद का अंग रहा। भौगोलिक दृष्टिकोण के अनुसार तीनांे ओर से मध्य प्रदेश से घिरा हुआ विध्यांचल का पठारी क्षेत्र है। तभी इस जिले के मुख्य विकास अधिकारी निखिल टीकाराम फंुडे बताते हैं, कि इस जिले में जितने भी आदिवासी परिवार हैं, वे मध्यप्रदे श से जंगल-जंगल चलकर यहां आकर बस गये हैं। इसलिए मध्यप्रदेश में तो इन्हें सहरिया जनजाति का दर्जा प्राप्त है, परंतु उत्तर-प्रदे श में इन्हें अनुसूचित जाति माना गया है। सिर्फ राज्य बदलने से जाति बदल जाये, ऐसा उदाहरण दे श के किसी हिस्से में शायद ही मिले।

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