Sunday - 7 January 2024 - 12:45 AM

ओहदेदारों के रुतवे तले पिस रही है आम आवाम

भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

स्वाधीनता के बाद भी देश में दोहरे मापदण्डों का पटाक्षेप नहीं हो रहा है। राजनेताओं, अधिकारियों तथा चर्चित चेहरों के लिए विशेष व्यवस्थायें व्यवहार में आती हैं जबकि आम नागरिक को अपने अधिकारों की सुरक्षित हेतु लम्बी जद्दोजेहद करना पडती है।

अंग्रेजों के जमाने की व्यवस्था आजादी के बाद भी जस की तस चली आ रही हैं। शासन-प्रशासन में शामिल ओहदेदारों के रुतवे तले आम आवाम पिस रही है।

दलगत राजनीति के दिग्गजों से लेकर छोटे-बडे अधिकारियों तक के लिए कानून के साथ खिलवाड करने हेतु बेतहाशा मौके मौजूद हैं।

लचीला प्रक्रिया से लेकर अपील तक की पेचैंदगी में एक संविधान का सम्मान करने वाला पिसकर रह गया है। गोरों की तरह थोपने वाली नीतियां आज भी निरंतर चल रहीं हैं।

आपातकाल में दूरगामी नीतियों के तहत एक सम्प्रदाय विशेष के विरुध्द नसबंदी अभियान, कानून के उलंघन का आरोप लगाकर जेलबंदी, संचार माध्यमों पर अंकुश जैसी अनगिनत स्थितियों को नागरिकों पर थोपा गया।

सकारात्मकता के विरोध में भी विपक्ष की चिल्लाचोट करने की आदत, दलगत राजनीति के लिए कानून का दुरुपयोग और व्यक्तिगत हितों के लिए चोर दरवाजों के उपयोग ने आम नागरिकों में असंतोष की भावना को गहराई तक पोषित कर दिया है।

सोशल डिस्टैंसिंग अर्थात सामाजिक दूरी, दो गज की दूरी जैसे सिलोगन ने नौकरशाही के मानसिक दिवालियापन को चीख-चीखकर उजागर किया था।

फिजिकल डिस्टैंसिंग यानी शारीरिक दूरी और दो मीटर की दूरी जैसे शब्दों का चयन भी किया जा सकता था, जो निश्चित ही हिन्दी भाषा की संपन्नता को प्रदर्शित करता।

सामाजिक दूरी बनाने और दूरी को गज में नापने की कल्पना भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के अलावा कोई और कर ही कैसे सकता है।

गुलामों पर जो चाहो थोप दो। गवर्मेन्ट सर्वेन्ट यानी लोक सेवक जब नौकरशाह बन जाते हैं तब ऐसी स्थितियां झेलने के लिए लोगों को बाध्य होना ही पडता है।

गलतियों पर उठने वाली आवाजों को दबाने के अनेक हथकण्डे अपनाने वाले प्रशासन के सामने तो अनेक बार शासन तक नतमस्तक हो चुका है।

यह सब अंग्रेजी और अंग्रेजियत की गुलामी का असर है जो तंत्र में स्पष्ट दिख रहा है। वेतन के नाम पर भारी भरकम धनराशि पाने वाले अधिकारियों की सोची समझी योजना तथा संविधान निर्माण के दौरान की व्यवस्था ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा होने के बाद भी अपनी ही धरती पर बेगाना बना दिया है।

उच्च तथा उच्चतम न्यायालयों में न्याय की उम्मीद से जाने वालों को अंग्रेजियत के सामने आज भी माथा टेकना पडता है। एक ही अपराध के लिए पुलिस स्टेशन में अलग-अलग दृष्टिकोण से प्राथमिकी दर्ज करने का प्रचलन भी निरंतरता बनाये हुए है।

पीडित से आरोपी की तरह व्यवहार करने में खाकी का कोई सानी नहीं है। कंझावला केस में पीडिता की मां की गुहार को निरंतर अनदेखा किया जा रहा है।

उस बेबस मां के पुत्र को पूछतांछ के नाम पर पुलिस कभी भी उठा ले जाती है। इस मामले में खूब चीख चिल्लाहट हो रही है परन्तु खाकी का रवैया जस का तस बना हुआ है।

केस में शुरूआत से ही की गई अनियमितताओं पर विभाग खामोश है। चश्मदीदों को भगा देने से लेकर पोस्टमार्टम में देरी जैसे विभिन्न महात्वपूर्ण बिन्दुओं को नजरंदाज करने के पीछे पीडिता का गरीब घर में जन्म लेना ही उत्तरदायी बना हुआ है।

वहीं ऋषभ पंत की दुर्घटना से केवल क्रिकेट जगत में ही कोहराम नहीं मचा बल्कि देश के पूरे तंत्र में प्रतिक्रिया हुई। उत्तराखण्ड के डीजीपी अशोक कुमार जब पंत के हेल्थ के अपडेट दे रहे थे तब ओवर स्पीडिंग पर पूछे गये प्रश्न का जबाब देते हुए उन्होंने इसे नकारते हुए कहा कि यह सिंपल स्लीपिंग का केस है।

जबकि गाडी की स्थिति चीख-चीखकर अपनी ओवर स्पीडिंग की कहानी सुना रही है। मगर मामला क्रिकेट स्टार का है, सो सरकार से लेकर अधिकारियों तक ने संदेहास्पद स्थितियों पर किनारा कर लिया। इतना ही नहीं बल्कि पंत को बचाने वाले चालक-परिचालक को सम्मानित तक करने की घोषणा कर दी।

काश, ऐसी सुविधा देश के प्रत्येक नागरिक को मुहैया होती। आम गण के लिए अलग तंत्र तथा विशेष गण के लिए अलग तंत्र की गोरी नीतियां आज आजादी के बाद भी जस की तस लागू हैं। वाहन से कुचलकर मार डालने पर अलग सजा है जबकि झगडे में जान लेने पर अलग सजा है। सम्प्रदाय विशेष पर लगने वाले आरोपों को खारिज करने के लिए कानून के जानकारों की फौज का खडा होना भी इसी श्रंखला की एक महात्वपूर्ण कडी है।

अभिव्यक्ति की आजादी के कानून कुछ खास लोगों के लिए ही कवच बनता है जबकि अन्य के लिए उसे विभिन्न आपराधिक धाराओं के तहत अपराध माना जाता है।

दूसरी ओर आज देश की एक बडी धनराशि क्रिकेट तथा फिल्मों में लगी हुई है। इन दौनों क्षेत्रों से आम नागरिक के सुविधा सम्पन्न होने के विकास पथ को आंकने वाले जहां पूरे दिन के क्रिकेट से उत्पादन में ठहराव लाते हैं वहीं फिल्मों का मायाजाल युवाओं को अपने चंगुल में सीधा फंसाते है। इन दौनों धरातलों पर पैसों की बरसात हो रही है जबकि अनेक विकसित देशों में इन दौनों ही क्षेत्रों को हाशिये पर पहुंचाया दिया गया है। आम आवाम को इन दौनों ही कारकों से केवल हानि ही रही है।

वहीं एक ही स्थान पर विकास के नाम पर बार-बार निर्माण कराने को विकास मानने वाले हर बार गुणवत्ता से समझौता करके व्यक्तिगत लाभ के अवसर ही पैदा करते हैं।

स्वार्थ पूर्ति के मंच पर चल रही शासन-प्रशासन की जुगलबंदी यदि समय रहते बंद नहीं हुई तो आम आवाम को फूट डालो, राज करो, की नीतियों की व्याख्यायें समझाने के लिए कोई अराजनैतिक तंत्र उठ खडा होने के लिए बाध्य हो जायेगा।

आज की नई पीढी अब पुरानी थोपी गई परम्पराओं के आमूलचूल परिवर्तन की मांग करने लगी है। शांति, सौहार्द और सम्पन्नता के राजपथ को विश्व सम्मान के साथ सजाने की कबायत शुरू करना ही होगी। तुष्टीकरण की राजनीति और अधिकारियों के सुल्तान वाली भूमिका के दिन लादे बिना देश का कल्याण होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। फिलहाल इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

(लेखक पत्रकार हैं) इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि  JubileePost या Jubilee मीडिया ग्रुप उनसे सहमत हो…इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है…

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