उत्कर्ष सिन्हा
और दिनों की तरह वो एक दिन भी सामान्य सा हो जाता अगर उस शाम प्रो रमेश दीक्षित के घर की छत पर वो अद्भुत वक्त न गुजरता।
रमेश दादा और वंदना जी ने दोपहर में कैफी आजमी सभागार में एक कार्यक्रम रखा था जिसमें प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के व्याख्यान थे, हाल से निकलते हुए रमेश जी ने कहा शाम को घर आ जाना खाना साथ खायेंगे ।
यहां तक तो सब सामान्य ही था , मगर…..
शाम ढलते ढलते उस छत पर लखनऊ के कुछ चुनिंदा चेहरे जम चुके थे, दिल्ली से हमारे उस्ताद अनिल चौधरी, अभिनेता अतुल तिवारी, अग्रज प्रदीप कपूर सहित तमाम लोग। प्रकाश और सीताराम तो खैर मेहमान ही थे।
रमेश दीक्षित जेएनयू के छात्र संघ के फाउंडर प्रेसिडेंट थे और उसके बाद उन्होंने अनिल चौधरी और सीताराम को अपनी विरासत सौंपी थी, तो उस शाम ये सब 65 पार वाले 25 की उम्र जीने में मशगूल थे।
मैने सीताराम येचुरी से मजाकिया लहजे में पूछा … सर ये भारत की कम्यूनिस्ट पार्टियां हमेशा ऐतिहासिक भूल क्यों करती हैं ? (ऐतिहासिक भूल शब्द अक्सर वाम पार्टियों के उन दस्तावेजों में पढ़ने को मिलेगा जो पार्टी अधिवेशन में बीते सालों का आत्मविश्लेषण करने के बाद तैयार होते है)। बहरहाल….
सवाल के जवाब में सीता मुस्कुराए… छोड़ो यार ये शाम इन बातो की नही।
ठहाको के दौर में अचानक एक कोने से फैज की एक नज्म ने माहौल में दाखिला लिया और पूरी छत पर फैल गई । ये समन हबीब थी जिन्होंने महफिल का माहौल बदल दिया।
अनिल गुरु ने सीताराम को छेड़ा, अबे सीता, तुम तो बढ़िया गाते थे , अब भी जारी है या भूल गए । हंसते हुए सीताराम येचुरी ने पहले तो बात टालने की कोशिश की मगर फिर उनका भी मन मचल ही गया, और फिर एक सधी हुई भारी आवाज में .. विस्तार है अपर, करे हुंकार, ओ गंगा बहती है क्यूं……
मुझे झटका सा लगा, ये छवि टूटने का झटका था, जिसे एक गंभीर राजनेता की तरह आप पहचाने के आदि हो चुके हों वो एक सधे हुए गायक की शक्ल में बदल जाए तो ये स्वाभाविक है। खैर, फिर तो एक के बाद एक भूपेन हजारिका, साहिर, फैज़ सब सीताराम के जरिए उस छोटी सी छत पर सजी हमारी महफिल में शामिल हो गए…. रात दो बजे तक।
सीताराम येचुरी को CPM के नेता के तौर पर पहचाना गया मगर असल में सीता उससे बहुत ज्यादा थे, अर्थशास्त्र के सिद्धानो को सामाजिक हकीकत के हिसाब से विश्लेषित करने वाले । संपादकीय पन्ने पर छपे उनके लेख गंभीर विश्लेषण करते थे, उनकी लिखी किताबें ‘लेफ्ट हैंड ड्राइव’, ‘यह हिन्दू राष्ट्र क्या है’, ‘घृणा की राजनीति’ (हिन्दी में), ’21वीं सदी का समाजवाद’ में आप जमीनी हकीकत को पाएंगे। ‘डायरी ऑफ फ्रीडम मूवमेंट’, और ‘ग्लोबल इकोनॉमिक क्राइसिस -अ मार्कसिस्ट पर्सपेक्टिव’ का संपादन भी किया था.
सीताराम को एक मौका मिला जब 2004 में मनमोहन सिंह की साझा सरकार बनी । सीताराम ने उसका कामन मिनिमम एजेंडा लिखा था । राइट टू वर्क ( जो मनरेगा बना) राइट टू फूड जैसे तमाम कार्यक्रम वही से निकले जिसने भारत के वंचित वर्ग पर बड़ा असर डाला।
हम हर किसी को एक खांचे में देखना चाहते हैं, जबकि वो इंसान उससे अलग भी आयाम रखता है । शायर ने खूब कहा है ,
जिसको भी देखना हो कई बार देखिए
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी ।
अलविदा लेखक, गायक, और फिर राजनेता सीताराम येचुरी…