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कथाकार नरेन: साहित्य के साथ सिनेमा और विज्ञान में भी दखल

जयनारायण प्रसाद

पिछले साल दुर्गापूजा उत्सव के बीच पटना जाना हुआ था। साथ में मित्र धर्मेंद्र कुमार माहुरी भी थे। नरेन को फोन किया, तो कहने लगा- मेरे यहां ही ठहरना होगा। उसकी जिद् के आगे नतमस्तक था। पूरे एक दिन और एक रात उसके घर ही था। खूब बातचीत हुई। पुराने दिनों में लौट गया था।

स्कूल की याद आ रही थी। कलकत्ता में एक साथ ही हम‌ पढ़े थे। स्कूल का नाम था श्री ज्ञान भास्कर विद्यालय। दक्षिण कलकत्ता के खिदिरपुर डॉक अंचल में अब भी यह स्कूल उसी तरह है। नरेन पढ़ने में शुरू से ही मेधावी था।

हम उसे नरेंद्र कुमार प्रसाद के नाम से जानते थे। साइंस में वह अव्वल था। लेकिन, जब भी देखता उसके हाथ में हिंदी या अंग्रेजी साहित्य की किताबें होतीं। अचरज में पड़ जाता ! इसके पास तो विज्ञान की किताबें होनी चाहिए ? एक दिन पूछ बैठा- तुम साहित्य भी पढ़ते हो ? उसने आश्चर्य से कहा- क्यों साहित्य की किताबें नहीं पढ़नी चाहिए !

इस तरह हम करीब होते गए। वह कलकत्ता में अमेरिकन लाइब्रेरी अक्सर जाता था। फिर, नेशनल लाइब्रेरी। तब अमेरिकन लाइब्रेरी कलकत्ता के धर्मतल्ला इलाके में रीगल सिनेमा के विपरित छोर पर था।‌ धर्मतल्ला के उस इलाके को एसएन बनर्जी रोड कहते हैं। अब वहां बिग बाजार है।

अमेरिकन लाइब्रेरी अब कलकत्ता में ही दूसरी जगह पर है। कहते हैं कि किताबों की लत जिसे लग जाती है, वह उसका ही होकर‌ रह जाता है। कुछ-कुछ मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। युवा नरेन की देखा-देखी हफ्ते दो हफ्ते के भीतर मैं भी दोनों पुस्तकालयों का सदस्य बन गया।

मेरी अंग्रेजी सामान्य थी, नरेन मुझसे बेहतर था। युवा होने के साथ-साथ नरेन के पास ज्ञान का अकूत भंडार था। कलकत्ता के ही न्यू अलीपुर कालेज से नरेन ने साइंस से स्नातक की डिग्री हासिल की थी। फिर, बीच के वर्षों में वह क्या करता रहा, पता‌ नहीं चला। एकदफा नरेन के एक बांग्लाभाषी मित्र ने हल्के में बताया था कि नरेन रूपनारायणपुर इलाके में कहीं कीटनाशक दवा के छिड़काव का व्यवसाय करता है।

कथाकार नरेन के साथ पटना स्थित उनके आवास पर संस्मरण के लेखक वरिष्ठ पत्रकार जयनारायण प्रसाद

मेरा अनुमान है कि कथाकार संजीव से‌ नरेन का परिचय तभी हुआ होगा, क्योंकि संजीव तब कुल्टी इलाके में ही रहते थे। रूपनारायणपुर वहां से ज्यादा दूर नहीं है। उन्हीं दिनों संजीव की एक कहानी ‘सारिका’ में छपी थी। नाम था ‘अपराध’। इस कहानी ने संजीव को लगभग स्टार बना दिया था।

संजीव से मेरा बावस्ता भी उसी दौर में हुआ। तब मैं ‌धनबाद में था और ‘आवाज’ अखबार में पत्रकारिता करता था। अरविंद चतुर्वेदी मुझे ‘आवाज’ में ले गए थे। फिर, हम ‘परिवर्तन’ में भी साथ रहे‌ और ‘जनसत्ता’ कोलकाता में भी। बेहद चैन के दिन थे हमारे ! गम भी था तो लगता था बस खुशी आने ही वाली है।

मैं तब कुमार भारत के उपनाम से कविताई भी किया करता था। गज़लें भी लिखता था। कुछ पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं छपती भी थीं। दरअसल, उस दौर में हम-सब अपनी-अपनी मंजिल तलाश रहे थे। पगडंडियां लगभग मिल चुकी थीं। हाल यह था कि साल-छह महीने के भीतर नरेन से मुलाकात हो ही जाती। लेकिन, मेरी दिलचस्पी धीरे-धीरे पत्रकारिता की ओर होने लगी थी।

उन दिनों दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, रविवार, अवकाश, सारिका, बोरीबंदर, हिंदी एक्सप्रेस, पराग, इतवारी और न जाने कितनी पत्रिकाएं कलकत्ता आती थीं। बांग्ला भाषा मुझे और नरेन दोनों को आती थी। एक और मित्र भी थे अच्छेलाल प्रजापति। तीनों की तिकड़ी ऐसी बनी कि चुन-चुन कर हिंदी साहित्य में सबको पढ़ने लगा। तुलनात्मक रूप से नरेन की अंग्रेजी बेहतर थी। मोंपासा, काफ्का, लु‌ शून, चेखव इन सबके साहित्य से नरेन ने ही वाकिफ कराया था।‌ ‘क्लासिक लिटरेचर’ का नरेन जैसे मास्टर था !

जिस उम्र में हम कायदे से राजकपूर और राजेश खन्ना तक के बारे में ठीक से नहीं जानते थे, उस उम्र में नरेन गोदार, त्रूफो, विटोरियो डी सीका, आकिरा कुरोसोवा और सत्यजित राय तक की फिल्मों से वाकिफ था। ऋत्विक घटक की‌ फिल्मों का भी वह अच्छा जानकार था। पता नहीं, कहां से और किसके जरिए उसमें यह ज्ञान आया था। आज भी सोचता हूं, तो कोई ठोस जवाब नहीं‌ सूझता ! तब तो मोबाइल भी नहीं था। गूगल और विकीपीडिया ढूंढ़ने का तो सवाल ही नहीं !

फिर, जनसत्ता कोलकाता में मेरी चाकरी हो गई। नरेन के बारे में पता किया, तो किसी ने बताया वह पटना में यूनिसेफ में है पब्लिसिटी वगैरह का काम देखता है। बीच के दिनों में मैं साप्ताहिक हिंदी परिवर्तन में भी था। कलकत्ता से यह पत्रिका निकलती थी।

दिवंगत राजकिशोर जी इसके संपादक थे। वे रविवार पत्रिका छोड़कर आए थे। हिंदी परिवर्तन में भी नरेन लिखता था नरेंद्र कुमार प्रसाद के ‌नाम से। उस दौर के जाने-माने फिल्मकार उत्पलेंदु चक्रवर्ती से उसके करीबी रिश्ते बन गए थे।

बांग्ला फिल्म ‘चोख’ (द आइज, The Eyes) की सफलता से उत्पलेंदु का कद पूरी दुनिया में बढ़ गया था। उन दिनों उत्पलेंदु की ‘चोख’ जर्मनी के बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई गई थी। यह वर्ष 1982 के आसपास की बात है। तभी यह फिल्म बंगाल में रिलीज भी हुई थी। ‘चोख’ में ओमपुरी, अनिल चटर्जी,‌ श्यामानंद जालान और श्रीला मजुमदार मुख्य भूमिका में थे। गज़ब की फिल्म थीं ‘चोख’ !

इस बांग्ला फिल्म की वजह से उत्पलेंदु का नाम अचानक बंगाल से होते हुए अंतरराष्ट्रीय हो गया था। अब उत्पलेंदु ने हिंदी फिल्म बनाने की सोची। उस हिंदी फिल्म का नाम था ‘देवशिशु’। स्मिता पाटिल, ओमपुरी, श्यामानंद जालान ‘देवशिशु’ के मुख्य किरदार थे।

फिल्म बनी भी और कामयाबी की राह देख ही रही थी कि स्वदेश दीपक ने उत्पलेंदु चक्रवर्ती पर मामला कर दिया। स्वदेश दीपक ने आरोप लगाया कि निर्देशक ने उसकी कहानी ‘बाल भगवान’ चुराकर यह फिल्म बनाई है।

इस मामले को नरेन ने सुलझाया था। उत्पलेंदु चक्रवर्ती और स्वदेश दीपक दिल्ली में मिले। वहां नरेन भी थे। फिर, मामला रफा-दफा हुआ। अब स्वदेश दीपक और उत्पलेंदु चक्रवर्ती दोनों परिदृश्य से गायब हैं। स्वदेश दीपक को गुमनाम हुए अनेक साल हो गए और उत्पलेंदु चक्रवर्ती ने सिनेमा से तौबा कर लिया है। दोनों के बीच की कड़ी नरेन भी अब चल बसे।

कथाकार नरेन के कथा संग्रह चांदनी रात का जहर…प्रकाशन के साथ ही यह काफी चर्चित हो गया था

याद आता है, पटना जब गया था तो नरेन के लिए ढ़ेर सारी बांग्ला की ‘पूजोर संख्या’ पत्रिकाएं भी लेता गया था। ‘पूजोर संख्या’ कलकत्ता में उसे कहते हैं, जिसमें दुर्गापूजा के मौके पर हर बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं में उपन्यास, कहानियां, निबंध और सिनेमा पर विशेष सामग्री होती है। एक मोटी किताब की‌ शक्ल में ये पत्रिकाएं निकलती हैं। वैसे ही ‌जैसे हिंदी में भी कुछ अखबार वाले ‘दीपावली विशेषांक’ निकालते हैं।

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बांग्ला अखबार वालों की ‘पूजोर संख्या’ अमूमन दुर्गापूजा के पंद्रह दिन पहले ही कलकत्ता और पश्चिम बंगाल के बाजारों में आ जाती हैं। देश के दूसरों हिस्सों में रह रहे बांग्लाभाषी पाठकों के लिए भी जाती है। तो नरेन के लिए आनंद बाजार पत्रिका, वर्तमान, आजकाल, प्रतिदिन आदि अखबारों की ‘पूजोर संख्या’ कलकत्ता से लेता गया था। जाने के दो-एक दिन पहले ही ढूंढ-ढूंढ कर इन्हें खरीद लिया था।

नरेन खुश हो गया था। पहुंचते ही पूछा- ‘पूजोर संख्या’ लाए हो। मैंने हामी भरी, तो धन्यवाद की मुद्रा में आ गया। बोला- पैसा जरूर ले लेना ! तो ऐसा था हमारा नरेंद्र !

सादगी ही नरेन की पहचान थी..

पटना में नरेन अच्छी स्थिति में था। बीच में तबीयत जरूर खराब हो गई थी। उसे पिछले साल stroke हुआ था। उसके तीनों बेटे अच्छी नौकरी में हैं। नरेन का अचानक जाना ठीक नहीं लग रहा है। इधर, मैंने करीब तीन महीने से उसे फोन भी नहीं किया था। आगे खूब बातचीत होती थी।

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साहित्य, सिनेमा और नई किताबों को लेकर घंटों उससे गुफ्तगू होती। जनसत्ता, कोलकाता से रिटायर होने के बाद की मेरी गतिविधियों की जानकारी वह बाकायदा रखता था। इतने सजग और संवेदना से ‌लबरेज दोस्त का जाना किसी को भी खल सकता है। पता नहीं नरेन से अब फिर कब गुफ्तगू होगी ! नरेन मेरा दोस्त भी था, हमदर्द भी और हमदम भी !!!

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