Sunday - 7 January 2024 - 2:22 PM

हिन्दी दिवस पर विशेष : नेपाल में हिन्दी को लेकर चिंतित होना वक्त की मांग

यशोदा श्रीवास्तव

आज हिन्दी दिवस है. इस खास दिन पर अपने देश में शुभकामनाओं की भरमार है वहीं अपने पड़ोसी देश नेपाल में हिन्दी की आत्मा भटक रही है.

अचरज हो रहा होगा कि आखिर हम हिन्दी को लेकर पड़ोसी देश की चिंता क्यों कर रहे? नेपाल की राजनीतिक, सामाजिक घटनाओं पर हम नजर रखते हैं तो हम अपने निकटतम नन्हें मित्र राष्ट्र में हिन्दी को लेकर चिंतित क्यों न हों?

वह भी तब जब हमारा सतत प्रयास है कि हिन्दी विश्वव्यापी भाषा हो.  नेपाल की 90 प्रतिशत आवादी न केवल हिन्दी प्रेमी है, वहां भारत में बनी हिन्दी फिल्मों को देखने नेपाली लोग टूट पड़ते हैं, हिन्दी फिल्मी गानें उनकी खास पसंद होते हैं और नेपाल में एक से एक हिन्दी के रचनाकार पैदा हुए जिन्होंने हिन्दी को नेपाल में एक मुकाम देने को अथक प्रयास किए.

नेपाल से हमारा रोटी बेटी का रिश्ता है, हमारे रीति रिवाज, व्रत त्योहार और ढेर सारी परंपराएं काफी हद तक एक दूसरे से मिलते जुलते हैं,ऐसे में हिन्दी एक दूसरे से दूर क्यों?

हालात ऐसे हैं कि हिन्दी को अपना मुकाम हासिल करने को समय समय पर नेपाल के हुक्मरानों से जूझना पड़ रहा है.यह तब है जब भारत के मात्र दो प्रदेश सिक्किम और दार्जिलिंग में नेपाली भाषा का प्रयोग होने से इसे भारत के संविधान में आठवीं अनुसूची में स्थान प्राप्त है.

इसके इतर नेपाल की 90 प्रतिशत लोगों में पढ़ी, लिखी और बोली जाने वाली हिन्दी भाषा की पढ़ाई वहां नहीं होती और न ही इसे वहां सरकारी मान्यता है.

कुछ साल पहले नेपाल में हिन्दी की उपेक्षा का एक उदाहरण तब सामने आया था जब वहां के तत्कालीन उपराष्ट्रपति परमानंद झा के ओहदे पर ग्रहण लग गया था क्योंकि उन्होंने हिन्दी में शपथ लेने की गुस्ताखी की थी.

नेपाल में चीनी भाषा को लेकर संकट नहीं है. जबकि इसे बोलने और समझने वालों की संख्या शायद अंगुलियों पर गिनने भर से भी कम है लेकिन इसे पढ़ाया जा रहा है.

जगह जगह इसके कोचिंग चल रहे हैं लेकिन हां,इसे पढ़ाने के लिए चीन अपने तरफ से चीनी अध्यापक उपलब्ध करा रहा है. भारत नेपाल में हिन्दी को लेकर क्यों उदासीन है, कह नहीं सकता.नेपाल के हिन्दी साहित्यकार नेपाल में हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए भारत की ओर ताक रहे हैं. नेपाल में चार बार प्रधानमंत्री रहे लोकेंद्र बहादुर चंद जो हिंदी के प्रेमी हैं ही,वे हिन्दी के रचनाकार भी हैं, का साफ कहना है कि बिना हिन्दी के नेपाल अधूरा है. लोकेंद्र बहादुर चंद की हिन्दी में कई पुस्तकें छप चुकी हैं.उनकी पढ़ाई लिखाई भी भारत में ही हुई.

भारत में शिक्षा ग्रहण के दौरान उन्होंने हिन्दी सीखी और इसे आत्मसात किया. नेपाल में सत्ता और विपक्ष के नेताओं द्वारा हिन्दी की तारीफ में कशीदे तो खूब पढ़े जाते लेकिन सरकारी तौर पर इस भाषा के विकास के लिए कुछ नहीं किया और न कर रहे हैं.

नेपाल में हिन्दी के अतीत और वर्तमान पर गौर करें तो यह सच सामने आता है कि हिन्दी का नेपाल में कभी गौरवशाली अतीत रहा है. नेपाल का जनक माने जाने वाले पृथ्वी नारायण शाह नाथ संप्रदाय के उन्नायक हिन्दी के विख्यात कवि उत्तर भारत में हिंदू धर्म और संस्कृति के रक्षक योगी गोरखनाथ के बड़े भक्त थे.

पृथ्वी शाह स्वयं भी हिन्दी के कवि थे. इनकी स्वयं की ढेर सारी रचनाएं हिन्दी में होने का प्रमाण मिलता है. योगी गोरखनाथ पर लिखी इनकी कविता आज भी नेपाल में पढ़ी जाती हैै.

इसी समय उत्तर मध्य नेपाल के पहाड़ी इलाकों में जोसमनी निगुर्ण साम्प्रदाय तथा कृष्ण प्रणामी समुदाय का हिन्दी साहित्य रचा गया जो खूब प्रचारित हआ.जोसमनी समुदाय के अभयानंद की रचनाओं में हिन्दी का बहुत सुंदर प्रयोग हुआ. इसी तरह जनकपुर में भी हिन्दी भाषा की प्रचूरता पाई जाती है.

तब के नेपाल में पहाड़ से लेकर मैदान तक हिन्दी के बहुत सारे साहित्यकार हुए जिन्होंने हिन्दी मेें एक से एक लोकप्रिय रचनाएं की. इस तरह नेपाल में हिन्दी साहित्य में संत महात्माओं का योगदान अविसमरणीय है.

हिन्दी के उत्थान में राजा महाराजाओं में पृथ्वी नारयण शाह के बाद श्री 5 राजेंद्र के सुपुत्र श्री 5 उपेंद्र वीर विक्रम का नाम भी प्रमुख है. मल्ल काल में हिन्दी साहित्य लेखन का विकास तेज गति से हुआ.मल्ल राजा स्वयं भी हिन्दी में रचना करते थे और रचनाकारों को हिन्दी तथा मैथिली में रचना के लिए प्रेरित भी करते थे.

इस तरह देखें तो नेपाल में प्राचानी काल से लेकर मध्यकाल तक राजा महाराजाओं से लेकर संत महात्माओं तक ने हिन्दी को रचनाओं के माध्यम से काफी आगे बढ़ाया.

नेपाली साहित्य के शंभु प्रसाद ढु्रग्याल ने हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार देवकी नंदन खत्री से प्रभावित होकर चंद्रकांता की तरह प्रेम कांता और प्रेमकांता संतति उपन्यास लिखा.

कह सकते हैं कि नेपाल के लक्ष्मी प्रसाद देवकोटा,सिद्धीचरण श्रेष्ठ भद्रकुमारी घले,गोपाल सिह नेपाली, केदार मान व्यथित, विशेश्वर प्रसाद कोइराला जैसे नामचीन कवि व लेखकों ने हिन्दी के लिए अपनी कलम चलाई.

नेपाल में 1951 ईस्वी तक हिन्दी नेपाली शिक्षा का माध्यम रही और नेपाली प्रशासन की भाषा. पृथ्वी नारायण शाह के शासन काल में प्रशासनिक कार्य हिन्दी के साथ स्थानीय भाषा में होता रहा.

शाह वंश के प्रारंभिक शासकों ने राजभाषा के रूप में हिन्दी तथा नेपाली दोनों को अपनाया.राणाओं के 104 वर्ष के शासन में भाषा को लेकर कोई समस्या नहीं थी. हिन्दी और नेपाल दोनों का समान महत्व था.

1951 के राजनीतिक परिवर्तन के बाद 1954 में राष्ट्रीय शिक्षा योजना आयोग की स्थापना हुई. इस आयोग के 1956 की संस्तुति के आधार पर नेपाल में हिन्दी शिक्षा की पढ़ाई बंद कर नेपाली शिक्षा की अनिवार्यता कर दी गई.

राष्टीय शिक्षा आयोग की इस रिपोर्ट का भारी विरोध हुआ. लोगों का कहना था कि स्कूली शिक्षा में नेपाली थोपने से समस्या कम होने की अपेक्षा और बढ़ेगी.

बहरहाल हिन्दी के बाबत चले विरोध और आंदोलन के बीच हुए 1959 के चुनाव में नेपाली कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार आ गई.प्रधानमंत्री वीपी कोइराला ने तत्कालीन शिक्षा आयोग की संस्तुति को निरस्त कर प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय तक में हिन्दी को शिक्षा का माध्यम बनाए रखने की अनुमति दे दी.

स्कूलों में मैथिली और नेवारी जैसी स्थानीय भाषाओं के भी पढ़ने की अनुमति दी गई.उस समय संसद में भी हिंदी भाषा मान्य थी.लेकिन बहुत ही कम समय के अंतराल 1960 में वीपी कोइराला की चुनी हुई सरकार को भंग कर दिया गया.

इसके बाद की पंचायती राज व्यवस्था ने स्कूलों से लगातय विश्वविद्यालयों तक से हिन्दी हटा दिया और इसे विदेशी भाषा तक घोषित कर दी गई.इतना ही नहीं 1950 में नेपाल में भारत द्वारा स्थापित नेपाल भारत संस्कृतिक केंद्र की सभी शाखाएं भी बंद कर दी गई.

स्कूली पाठ्यक्रम में कक्षा 9 और 10 में विकल्प के रूप में हिन्दी पढ़ाने का प्रावधान तो था लेकिन इसके शिक्षक ही नहीं उपलब्ध कराए गए परिणामतः हिन्दी शिक्षा हासिए पर जाता चला गया.

पंचायत प्रणाली के तहत हिन्दी को बुरी तरह हतोत्साहित किया गया.इस दौरान नेपाल रेडियो द्वारा प्रसारित होने वाला हिन्दी भाषा के समाचार को भी बंद कर दिया गया. नेपाल में हिन्दी की दुर्दशा पर त्रिभुवन विश्वविद्यालय की हिंदी विभाग की सह विभागाध्यक्ष संजीता वर्मा का कटाक्ष काबिले तारीफ है कि , नेपाल रेडियो का बहुत बड़ा एहसान है जो फिलहाल इस वक्त कुछ मिनट के लिए ही हिन्दी में समाचार सुना देता है.

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