Sunday - 7 January 2024 - 6:33 AM

सबसे बड़ी पंचायत में आधी आबादी की छोटी भागीदारी

प्रीति सिंह

तमिलनाडु में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक कार्यक्रम के दौरान लोगों से वायदा किया कि कांग्रेस की सरकार आने पर लोकसभा की 33 फीसदी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करने के साथ ही सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में भी महिलाओं को आरक्षण दिया जाएगा। राहुल के इस बयान के बाद एक बार फिर आम चुनाव से पहले महिलाओं की भागीदारी को लेकर बहस छिड़ गई है। फिलहाल यह बहस लोकतंत्र के लिए सुखद संकेत है।
1996 से संसद के निचले सदन में 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने वाला बिल अटका हुआ है, लेकिन जब चुनाव आता है तो इस पर बहस छिड़ जाती है और चुनाव खत्म होते ही यह ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है। चुनावों में महिलाओं की भागादारी बढ़ाने को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है लेकिन अब तक कोई खास उपलब्धि नहीं दिख रही।

सोलहवी लोकसभा में 61 महिलाएं पहुंची थी सदन में

दरअसल भारत की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने के पीछे अब तक समाज में पितृसत्तात्मक ढांचे का मौजूद होना है। यह न सिर्फ महिलाओं को राजनीति में आने से हतोत्साहित करता है बल्कि राजनीति के प्रवेश में बांधा भी बनता है। 2014 लोकसभा चुनाव में कुल मतदाताओं की संख्या 834,082,814 थी, जिसमें महिला मतदाताओं की संख्या 397,018,915 थी।  2014 लोकसभा चुनाव में 668 महिला उम्मीदावार मैदान में थी जिसमें मात्र 61 महिलाएं ही सदन तक पहुंची थी। देश में लोकसभा चुनाव लड़ने की उम्र न्यूनतम 25 साल है। आंकड़ों के हिसाब से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनीति में आधी आबादी की भागीदारी कितनी निराशाजनक है।

लैंगिक भेदभाव है मौजूद

राजनीतिक दलों के भेदभाव पूर्ण रवैये के बावजूद मतदाता के रूप में जहां आधी आबादी की भागीदारी बढ़ी है वहीं सदन में लैंगिक भेदभाव भारी संख्या में है। लोकसभा में 10 में नौ सांसद पुरुष है तो एक महिला। 1952 में लोकसभा में महिलाओं की संख्या 4.4 प्रतिशत थी तो 2014 में करीब 11 प्रतिशत।

1951 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल साक्षरता दर 18.33 प्रतिशत थी जिसमें महिला साक्षरता दर 8.8 प्रतिशत थी। वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार कुल साक्षरता दर 74.04 है जिसमें महिला साक्षरता दर 65.46 प्रतिशत है। तब से लेकर अब तक में महिला साक्षरता दर में 56.66 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन सदन में मात्र 6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसमें सबसे ऊपर लोकसभा में उनकी 1952 में मौजूदगी, 22 सीट, को रखा जा सकता है जो 2014 में 61 तक आ गई है। यह वृद्धि 36 प्रतिशत है।

लोकसभा इतिहास में महिलाओं की मौजूदगी

लोकसभा में महिला सांसदों का कुल आंकड़ा अब भी दो अंकों वाला ही बना हुआ है, जबकि पुरुष सांसदों की संख्या 90 फीसदी से थोड़ी ही कम है। आम चुनाव 2014 में महिलाओं की सबसे बड़ी संख्या 61 लोकसभा में आई थीं, जबकि उससे पहले के लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या 59 थी।

15वीं लोकसभा में महिलाओं की सदस्यता 10.86 प्रतिशत थी और 13वीं लोकसभा भी 9.02 प्रतिशत सदस्यता के साथ इसके काफी करीब थी। 1996 से निचले सदन में सदैव कम से कम 40 महिलाएं चुनी जाती रही हैं। लोकसभा में महिलाओं की सबसे कम संख्या 1977 में थी, जब मात्र 19 महिला सदस्य निचले सदन में पहुंच सकीं, जो लोकसभा की कुल सीटों का महज 3.50 प्रतिशत ही था। इसके अतिरिक्त इतिहास में और कोई दूसरा अवसर नहीं है, जिसमें महिलाएं 20 की संख्या तक भी नहीं पहुंच पाईं।

चुनाव लडऩे के संबंध में महिला प्रतिभागियों की सबसे अधिक संख्या 2014 के चुनाव में 668 थी। वहीं 1996 के चुनाव में यह संख्या 599 थी। उसके बाद यह संख्या 2009 में 556 और 2004 में 355 थी। यह 1980 की सातवीं लोकसभा थी, जब महिला उम्मीदवारों ने 100 का आंकड़ा पार किया। उससे पहले महिला उम्मीदवारों की संख्या हमेशा 100 के नीचे ही रही। चुनाव लडऩे में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की तुलना में काफी कम है।

9वें आम चुनाव तक महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से 30 गुना कम थी। 10वें आम चुनाव से इस भागीदारी में सुधार हुआ, परंतु पहले चुनाव से लेकर 16वीं लोकसभा के गठन तक महिला उम्मीदवारों की जीत का प्रतिशत हमेशा पुरुषों की तुलना में अधिक रहा है। भारतीय राजनीति में महिलाओं की सफलता दर खेदजनक है और यह लगातार खराब होती जा रही है।

महिलाओं को टिकट देने में सबसे पीछे रही है बसपा

एक रिपोर्ट के मुताबिक 1996 से 2014 तक हुए लोकसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल ने महिलाओं को कुल मिलाकर 10 फीसदी से ज्यादा टिकट नहीं दिया है, जबकि कुछ दलों ने किसी एक चुनाव में 10 फीसदी का आंकड़ा पार किया है जो लंबे समय से लोकसभा में 33 फीसदी आरक्षण की मांग से काफी कम है।

रिपोर्ट के मुताबिक कांग्रेस ने 1996 से 2014 तक सबसे ज्यादा महिलाओं को टिकट दिया है लेकिन यह आंकड़ा भी 9.3 फीसदी से लेकर 12.9 फीसदी ही है, जबकि महिला अध्यक्ष रहने के बावजूद बहुजन समाज पार्टी इस मामले में सबसे पीछे रही। बीएसपी का आंकड़ा 1996-2014 के बीच 3.9 फीसदी से लेकर 5.4 फीसदी रहा, तो वहीं भारतीय जनता पार्टी का आंकड़ा 5.7 फीसदी से 8.9 फीसदी रहा है।

ममता ने शुरु की है नई परंपरा

लोकसभा 2019 चुनाव के लिए अभी कुछ पार्टियों ने कुछ सीटों के लिए प्रत्याशियों का ऐलान किया है। अभी प्रत्याशियों की सूची आनी है लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आम चुनावों में 41 फीसदी महिलाओं को टिकट देकर एक नई परंपरा की शुरुआत की है। इसके अलावा बीजेडी प्रमुख नवीन पटनायक ने भी 33 फीसदी लोकसभा टिकट महिलाओं के लिए आरक्षित रखने का वायदा किया है। बाकी पार्टियों ने महिलाओं को टिकट देने के मामले पर अपना रूख साफ नहीं किया है।

आखिर क्यों है महिलाएं पीछे

चुनावों में महिलाओं को टिकट न देने की नीति न सिर्फ राष्ट्रीय पार्टियों की है बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां भी इसी राह पर चल रही हैं। इसकी वजह बताई जाती है कि महिलाओं में जीतने की क्षमता कम होती है, जो कि चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण होती है। राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार सुशील वर्मा के अनुसार पार्टियां उन्हीं महिलाओं को टिकट देती है जिनकी जीतने की पूरी उम्मीद होती है। या उन सीटों पर महिलाओं को टिकट दे देते हैं जहां पार्टी को सिंबोलिक कंडीडेट उतारनी होती है। दरअसल महिलाओं को मैदान में उतारने को लेकर राजनीतिक पार्टियां संजीदा नहीं है। जो महिलाएं पार्टी के अंदरूनी ढांचे में उपस्थित दर्ज करवाने में कामयाब रही हैं उन्हें भी नेतृत्व के दूसरे दर्जे पर धकेल दिया गया है। वह राजनीतिक दलों में नीति और रणनीति के स्तर पर बमुश्किल ही कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और अक्सर उन्हें ‘महिला मुद्दों’ पर निगाह रखने का काम दे दिया जाता है, जिससे कि चुनावों में पार्टी को फायदा मिल सके। एक बड़ी वजह गिनाते हुए सुशील वर्मा कहते हैं कि अधिकांश पार्टियों पर परिवार का कब्जा है। वंशवाद की राजनीति में  आम लोगों के लिए जगह नहीं बची है।

राजनीतिक पार्टियों को सिर्फ चुनाव के दौरान ही महिला मतदाताओं की याद आती है। पार्टियों के घोषणा पत्रों में किए गए वादे शायद ही कभी पूरे होते हैं। महिलाओं के मुद्दों के प्रति राजनीतिक दलों की गंभीरता महिला आरक्षण बिल को पास करने में असफलता से ही साफ हो जाती है। पिछले कुछ चुनावों के प्रमुख राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर नजर डालने से साफ हो जाता है कि उनमें लैंगिक मुद्दे प्रमुखता रखते हैं, लेकिन घोषणापत्रों में जो वादे किए जाते हैं वह घिटे-पिटे होते हैं और चुनावी गहमा-गहमी के बाद आसानी से भुला दिए जाते हैं।

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