लोकसभा चुनावों के चार चरणों में वोटिंग का औसत 68.2% है। 2014 में ये 66.4% था। यानी पहले के मुकाबले 1.8% अधिक। अब 2009 से 2014 को भी देखिये जब वोटिंग में 8 प्रतिशत का सीधा उछाल देखा गया था। तब मोदी लहर सतह पर थी और विपक्ष के पास न तो हौसला था और न ही कोई ठोस रणनीति। इस बार विपक्ष की धार तेज है और जातीय वोट बैंक के हिसाब से गठबंधन भी मजबूत दिखाई दे रहा है। समस्या सिर्फ एक है , वोटर की खामोशी।
वोट प्रतिशत के इस ट्रेंड को समझाते हुए पेशे से चिकित्सक डा. सत्य प्रकाश धर द्विवेदी कहते हैं – ये वोट प्रतिशत बता रहा है कि जनता की सोच वही है जो 2014 में थी। इसलिए नतीजे भी वही होंगे जो तब थे , यानी मोदी की वापसी। वोटिंग प्रतिशत में गिरावट नहीं होना, इसका संकेत है कि ना तो मोदी लहर है और ना ही सत्ताविरोधी लहर। लेकिन सामाजिक विश्लेषक प्रो. मनीष हिन्दीवी की राय इससे उलट है।
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प्रो. मनीष का कहना है कि बीते 5 सालों में एक निराशा का वातावरण बना है , जिसकी वजह ख़त्म हुयी नौकरियां और कमजोर पड़ता बिजनेस है , ये ही तबका पहले मोदी समर्थक था , इस निराशा की वजह से वह इस बार या तो मोदी के खिलाफ वोट कर रहा है या फिर वोट देने ही नहीं जा रहा। अपने तर्क को पुख्ता करते हुए मनीष बताते हैं की शहरी इलाकों में वोट प्रतिशत गिरा है। जबकि गठबंधन के वोटर इसे एक मौक़ा मान रहे हैं और वे अपना वोट देने ज्यादा निकल रहे हैं। इसलिए मतदान प्रतिशत कमोबेश वैसा ही है। मनीष ये बताना भी नहीं भूलते कि जब बड़ी संख्या में युवा पहली बार वोटर बना है और अगर वो उत्साहित है तो आखिर वोट प्रतिशत बढ़ा क्यों नहीं ?
भाजपा समर्थक ओमदत्त का मानना है कि जीतना मोदी को ही चाहिए लेकिन प्रत्याशियों के चयन से वे थोड़े न खुश जरूर हैं। गोरखपुर से फिल्म अभिनेता रवि किशन के भाजपा प्रत्याशी बनाए जाने से वे निराश भी है। उनका कहना है कि गोरखपुर शहर में रवि किशन को वोट देने का उत्साह नहीं बन पा रहा। जो भी वोट मिलेगा मोदी के नाम पर ही मिलेगा। यही राय कई अन्य मोदी समर्थको की भी है। वे अपने प्रत्याशी से निराश है मगर यदि वोट देंगे तो मोदी को ही। और यही “यदि” एक सवाल बन गया है।
मोदी समर्थको का मानना मोदी का प्रभाव इतना है कि जातीय गोलबंदी टूट चुकी है ,मगर विपक्षियों के पास उन वोटो का जोड़ है जो मोदी लहर में भी मोदी के खिलाफ पड़े थे। मोदी समर्थक जब राष्ट्रवाद की हवा की बात करते हैं तो मोदी विरोधी सरकारी कर्मचारियों की बदहाली, बढ़ती बेरोजगारी और छोटे व्यवसाइयों की टूटी कमर का तर्क देते हैं। मोदी समर्थक जब किसी मजबूत नेता का विकल्प पूछते हैं तो विरोधी उन्हें देश में कई काबिल नेताओं के होने का हवाला देते हैं। तो सबके तर्क उनके हिसाब से ठोस है।
सार्वजनिक बहसों के दूसरी तरफ जमीनी जंग है। यूपी में सपा बसपा गठबंधन की मजबूती तो है मगर प्रियंका के नए उभरे शोर ने कांग्रेस के पक्ष में भी कुछ इजाफा किया है और कुछ सीटों पर मामला तिकोनी लड़ाई में बदल गया है। मोदी समर्थक इस उम्मीद में हैं कि विरोधी वोट बाँट जाएगा जिसका फायदा अंततः भाजपा उठाएगी। लेकिन चुनावी मिजाज भांपने के लिए कई संसदीय सीटों का लंबा दौरा कर रहे वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह का कहना है कि ” अब तक के संकेत बता रहे हैं , नरेंद्र मोदी की वापसी मुश्किल है। ”
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उधर नरेंद्र मोदी के ताबड़तोड़ दौरे जारी हैं। अपनी रैलियों में वे खुद की ब्रांडिंग कर रहे हैं। आतंकवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और मोदी की ताकत का जिक्र वे खूब करते हैं , साथ ही सपा बसपा गठबंधन और राहुल गांधी पर प्रहार के साथ उनका भाषण ख़त्म होता है। अखिलेश और मायावती की साझा रैलियां भी जारी है जहाँ मोदी के अधूरे वादों को याद दिलाते हुए गाँव की बड़ी मुश्किलों पर फोकस है। साथ ही वे पिछड़े और दलितों की एकता की बात भी करते हैं।
समाजवादी पार्टी के युवा नेता योगेश यादव का मानना है कि हमारे वोट बैंक में कोई सेंध नहीं लग रही। भाजपा सरकार के वक्त में दलितों और पिछडो का बहुत उत्पीड़न हुआ है जिसे ये समाज भूल नहीं पा रहा , इसलिए निश्चित तौर पर ये वर्ग एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ वोट करेगा।
चार चरणों के बीत जाने के बाद भी चुनाव अभी तक खुला है , अमित शाह के नेतृत्व वाले बीजेपी का संगठन एक चुनावी मशीन में तब्दील हो चूका है , सो हर बूथ के लिए एक रणनीति है , सपा-बसपा का गठबंधन भी बूथ लेवल तक सक्रिय है। मोदी ने इन चुनावो को व्यक्ति केंद्रित कर रखा है , लेकिन ख़ास बात ये है की हर दल ने खुद को अपने एजेंडे तक ही सीमित कर दिया है , इसलिए न तो किसी प्रतिक्रया की जगह बन रही है और न ही ध्रुवीकरण की। राष्ट्रवाद के नारे के बावजूद भाजपा की नजर अति पिछड़ी जातियों पर टिकी हुयी है इसलिए जमीनी स्तर पर अलग अलग जातियों को साथ लाने की कोशिश जारी है।
अंडर करंट, जातीय गोलबंदी, इनकम्बेंसी एंटी या प्रो ? क्या है इस बार का मिजाज ? इस सवाल का जवाब सुदूर गावों में बैठे आम वोटर की ख़ामोशी भरी मुस्कराहट में ही छुपा हुआ है। इसलिए सतह पर अब तक कोई साफ़ तस्वीर नहीं उभर पाई है।