Monday - 8 January 2024 - 3:49 PM

गठबंधन के साथ निजी रिश्ते को प्रगाढ़ करने पर नजर

 

के. पी. सिंह

बसपा के साथ चुनावी गठबंधन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव मायावती के साथ निजी रिश्ते को भी परवान चढ़ाने में कोई कसर नही छोड़ रहे। विरोधी बार-बार प्रचार कर रहे हैं कि गठबंधन वक्ती है जिसकी काट के लिए अखिलेश द्वारा ऐसा करना जरूरी है। उन्होंने गठबंधन की भूमिका बनाते समय ही मायावती को बुआ कहना शुरू कर दिया था। जबकि मायावती उन्हें मान न मान मैं तेरा मेहमान जताते हुए झिड़कने में लगीं थीं। कई बार उनके द्वारा तिरस्कृत होने पर भी अखिलेश मायूस नही हुए और जब लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा में भी दोनों पार्टिया पूरी तरह धरातल पर पहुंच गईं तो मायावती को भी नरम होना पड़ा।

अखिलेश गठबंधन के साथ मायावती से अपने रिश्ते को दूर तक ले जाने के लिए कटिबद्ध रहे। जिसके चलते उनके पिता मुलायम सिंह यादव जो कि शुरू में मायावती से गठबंधन के खिलाफ थे, को भी अपना नजरिया बदलना पड़ा। उन्होंने मैनपुरी की संयुक्त सभा में अखिलेश की कोशिशों पर मुहर लगाते हुए वसीयत करने के अंदाज में मंच से सपाइयों के लिए कहा कि मायावती का हमेशा सम्मान करना तो यह दोनों पार्टियों के नेताओं के निजी रिश्ते के विस्तार का चरम था।

सुशील बहू ने मंच पर छुए बुआ सास के पांव

इसी कड़ी में एक बड़ा अध्याय और जुड़ गया जब मायावती कन्नौज में डिम्पल के लिए सभा को संबोधित करने पहुंचीं जिसमें डिम्पल ने मंच पर ही सुशील बहू की तरह चरण स्पर्श करके बुआ सास मायावती से आशीर्वाद लिया। अखिलेश के कटी पतंग बन चुके चाचा शिवपाल सिंह यादव ने इसकी कड़ी भत्र्सना की है। उन्होनें कहा कि डिम्पल से मायावती के चरण स्पर्श करवा कर भतीजे ने समाजवाद को उनके चरणों में डाल दिया है।

सहन नही कर पाये शिवपाल

दरअसल अपने परिवार की कुलवधू से मायावती के पैर छुलवाने को शिवपाल सिंह यादव का जातिगत अहं सहन नही कर पा रहा है। 1995 में जब पहली बार मायावती उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बनी थीं, इन पंक्तियों का लेखक मुलायम सिंह द्वारा स्वर्ग से न्यारा बनाये गये उनके पैतृक गांव सैफई का जायजा लेने वहां गया था।

इस दौरान लेखक नेताजी के घर पहुंचा जहां किसानी करने वाले मुलायम सिंह के भोले-भाले भाई मिले। जो खुद अपने हाथ से चाय लेकर उसके लिए आये। बातचीत में नेताजी के भाई ने गांव की आबादी गिनाते हुए बताया कि इतनी बखरी उनकी हैं जिनको कोई कारज होने पर न्यौता भेजा जाता है।

दूसरी बखरी उन लोगों की हैं जहां उनके घर से विधिवत न्यौता नही जाता। कहने की जरूरत नही है कि पंगत में छोड़ी गई बस्ती अनुसूचित जाति के लोगों की थीं। समाजवादी पुरोधा के गांव में समता का यह नजारा देखकर लेखक हतप्रभ रह गया था।

निजी रिश्ते के लिए जरूरी था यह दस्तूर

जाति व्यवस्था के सोपान क्रम की विशेषता यही है कि यहां हर जाति किसी न किसी जाति से ऊपर है और इस मुगालते में हर जाति खोखले दंभ का शिकार है। जब तक जाति व्यवस्था रहेगी इसी के चलते समाज में भाईचारा पनपने की गुंजाइश पैदा नही हो पायेगी। बहरहाल अखिलेश ने इस दंभ को तोड़कर एक अच्छी पहल की है।

मायावती उनके लिए बुजुर्ग हैं और इसके अनुरूप दस्तूर निभाकर उन्होनें कोई अनुचित काम नही किया है। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि राजनीति अपनी जगह है लेकिन स्वस्थ्य लोकतंत्र में नेताओं को अपने बीच भावपूर्ण संबंध रखना चाहिए। अटल जी इस नीति के बहुत कायल थे जिसकी वजह से उनके निधन पर पूरी राजनीतिक बिरादरी में वास्तविक शोक छा गया था।

शिवपाल का गुंडी कहना बहन जी को है आज तक याद

शिवपाल को समाजवाद की चिंता हास्यास्पद लगती है क्योंकि उनका किसी राजनैतिक वाद से कोई लेना-देना नही है। मुलायम सिंह ने लोकतंत्र को पारिवारिक सल्तनत का बंधक बनाने के लिए शिवपाल को पार्टी और विचारधारा पर थोप दिया था। दूसरी ओर मूल रूप से गैर राजनीतिज्ञ शिवपाल यादव लठैत संस्कारों के पोषक थे और मुलायम सिंह व मायावती के संबंध कटु होते चले जाने के पीछे बड़ी भूमिका शिवपाल की ही थी। लोगों को याद करना होगा कि एक बहस में टीवी चैनलों पर शिवपाल यादव ने किस तरह मायावती को गुंडी कहकर पुकार दिया था।

सपा समर्थकों तक को यह शोभनीय नही लगा था। मायावती शिवपाल के द्वारा की गई इस बेइज्जती को आज तक नही भुला पाईं हैं और समाजवादी पार्टी में शिवपाल की वापसी का दरवाजा बंद करवाने में उन्होंने भी बड़ा रोल अदा किया है।

कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे

अखिलेश के दृश्य में आने के बाद सैफई राजवंश के पारिवारिक षणयंत्र के मास्टर माइंड कहे जाने लगे शिवपाल यादव को कुछ समय पहले तक उम्मीद थी कि उन्हीं की तरह उनके बड़े भाई मुलायम सिंह यादव मायावती के प्रति अपनी घृणा को दिल से बाहर नहीं निकाल पायेगें लेकिन यह सिर्फ उनका मुगालता था।

मुलायम सिंह और मायावती के बीच अखिलेश की कोशिशों से आत्मीय रिश्तों की कोपलें फिर फूट पड़ीं। अब शिवपाल के लिए कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे का मंजर है।

तब भी समाजवाद कौन सिर पर चढ़ता था ?

वैसे शिवपाल को जरा सपा-बसपा गठबंधन के पहले दौर का भी मुलाहिजा फरमाना चाहिए। 1993 में इस गठबंधन की बदौलत मुलायम सिंह की समय की कब्र में दफन राजनीति फिर बाहर निकल आई थी और उत्तर प्रदेश में उनकी सत्ता में अप्रत्याशित वापसी संभव हो गई थी। तब नेताजी के छोटे भाई होने के कारण शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी के बहुत बड़े पुरोधा थे। क्या वे भूल गये कि उस समय भी समाजवाद कांशीराम के चरणों में बैठा रहता था।

बात-बात में कांशीराम लखनऊ आकर मुलायम सिंह को मीराबाई गेस्ट हाउस में तलब करते थे। इस दौरान वे बनियान और तहमद पहने बेड पर लेटे-लेटे मुलायम सिंह से जबाव तलब करते थे जबकि मुलायम सिंह को उनके पैरताने के पास रखे स्टूल पर बैठकर उन्हें जबाव देना पड़ता था। इतना ही नही कांशीराम अखबार वालों को इस दृश्य की तस्वीर उतारने का मौका देते थे तांकि शेरे-ए-मुलायम सिंह की दयनीय हालत का चित्र अगले दिन के अखबार में सामने आ सके।

बहुत खुश हैं बसपा के नेता

वैसे सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले नेताओं को उतनी शुष्कता से बचना चाहिए जितनी बसपा नेताओं में रही है। सोनिया गांधी ने भी जन्म दिन की बधाई के लिए मायावती के आवास पर पहुंचकर उनके साथ निजी संबंध बनाने की पहल की थी। उन्हें उम्मीद थी कि इसके बाद मायावती कांग्रेस को लेकर कैसी भी हालत में कुछ ने कुछ कोमल रहेंगीं। पर जब मौका आया तो मायावती ने निष्ठुर होने में कोई कसर नही छोड़ी।

अखिलेश के मामले में भी अभी तक की स्थिति इकतरफा है। अखिलेश अपने पूरे परिवार को पैर छूकर मायावती से आशीर्वाद लेना सिखा रहे हैं। लेकिन मायावती को यह गंवारा नही है कि अपने भतीजे आकाश आनंद को मुलायम सिंह के पैर छूने की नसीहत दें। जबकि इससे समर्थकों में नाराजगी पनप रही है जो गठबंधन में दरकन साबित हो सकती है।

स्वप्नदर्शी धारणाओं पर भारी साबित हुआ वीपी का नजरिया

इसके बावजूद गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की चूले हिला रखी हैं। मंडल मसीहा वीपी सिंह का कहना था कि भारतीय समाज जातियों का परिसंघ है। लोहिया और बाबा साहब अंबेडकर जातियां खत्म करके नये भारत के निर्माण का सपना देखते थे। लेकिन व्यवहारिक राजनीति में वीपी सिंह की अवधारणा अधिक सटीक साबित हुई। जातियां मिटाने की बजाय हर पार्टी में उनके समीकरण से चुनावी युद्ध की गोटियां लाल करने की रणनीति बुनी जा रही है।

हिंदूवादी पार्टी होकर भी भाजपा को यही लाइन अख्तियार करनी पड़ी। जिसकी वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए जरूरी समझा कि वे अपनी पिछड़ी पहचान का बिगुल देश के कोने-कोने में फूंके। जबाव में उत्तर प्रदेश का सपा-बसपा गठबंधन उनके इस अमृतकुंड को भेदने के लिए उन्हें नकली पिछड़ा साबित करने में जुट पड़ा है। गठबंधन में मायावती बहुत ही पुरजोर तरीके से इस बात की तस्दीक कर रहीं है कि पिछड़ों के असली मसीहा मुलायम सिंह और अखिलेश यादव हैं। इस चोट से मोदी के प्रति पिछड़ों के मोह के टूटने की नौबत सचमुच बन आई है।

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन पिछड़ों, दलित और मुसलमानों की गोलबंदी से चुनावी मैदान फतेह करने में लगा है। जिसमें जातियों के परिसंघ की धारणा के अनुरूप सवर्णों के लिए भी स्पेस सुरक्षित रखने का ख्याल किया जा रहा है।

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com