Saturday - 27 January 2024 - 7:01 AM

पोस्ट पुलवामा : परसेप्शन प्रोपेगैंडा-2

डॉ. श्रीश पाठक 

पुलवामा के ठीक बारहवें दिन मोदी सरकार ने जो करारा जवाब दिया वह बेहद माकूल था। जबकि सभी लोग कयास लगा रहे थे कि मोदी सरकार एलओसी के पार के आतंकी अड्डों को सर्जिकल स्ट्राइक वर्जन टू करके जवाब देगी या जैश के मुख्य कार्यालय पर हवाई हमला करेगी; हमले का स्थान बालाकोट को चुना गया जो जैश का ट्रेनिंग सेंटर है। यकीनन वहाँ भारी संख्या में आतंकी रहे होंगे। नॉन-मिलिटरी व प्रीएम्प्टीव शब्दों के साथ पुरी एहतियात बरती गयी कि इस कदम को युद्ध भड़काऊ न समझा जाय। भारत ने केवल आतंकी ठिकाने पर हमला किया था न कि किसी पाकिस्तानी सरकारी प्रतिष्ठान पर। इसी हमले के साथ ही मोदी सरकार ने वह सामरिक हिचक भी तोड़ दी थी जिसमें भारत एलओसी के आसपास ही कार्यवाही करता रहा था, कभी भी पाकिस्तानी संप्रभुता को उसने चुनौती नहीं दी थी। यह एक दोहरा प्रहार था। यकीनन संप्रभुता पर मार, सैन्य मार से भी अधिक घातक मार है।

पाकिस्तानी विदेश मंत्री का तिलमिलाता बयान आया। देश में एक उल्लास सा माहौल हुआ। परसेप्शन की लड़ाई कुछ यों थी इस वक्त कि मोदी विरोधी इस अवसर पर भी मोदी सरकार की तारीफ खुलकर नहीं कर सकते थे। इसे केवल सेना का शौर्य कहने की कोशिश हुई, जबकि यह असंभव है कि सरकार व कूटनीतिक हलकों के साथ के बिना सेना स्वयं ही निर्णय ले और कार्यवाही करे। भारत के इस सटीक अविश्वसनीय कदम से सहसा इमरान खान सरकार पर बेशुमार घरेलू दबाव पड़ा। इस मामले में पाकिस्तानी न्यूज चैनेल भी, भारतीय न्यूज चैनेल से कहीं भी पीछे नहीं होते। अपने-अपने स्टूडियो में वे कई बार दुश्मन देश को नेस्तनाबूद कर देते हैं।

बालाकोट की घटना के कुछ घन्टे के अन्दर ही हवाई झड़प हुई

बालाकोट की घटना के कुछ घन्टे के अन्दर ही पाकिस्तानी सेना के लड़ाकू विमानों ने भारतीय सैन्य ठिकानों के चक्कर लगाये। हवाई झड़प हुई। अभिनन्दन वर्थमान पाकिस्तानी सेना के कब्जे में आ चुके थे। इस एक दर्दनाक खबर ने बालाकोट से उभरे सकारात्मक परसेप्शन को एक दुसरे निराशाजनक परसेप्शन से ढँक दिया था। पूरा देश प्रार्थना कर रहा था। जेनेवा कन्वेंशन, 1949 के मुताबिक युद्धबंदी के साथ मर्यादायुक्त आचरण व सम्मानपूर्वक वापसी की उम्मीदें उसी पाकिस्तान से की जाने लगीं जिसे मिटाने का शोर हाल तक हावी था। बैकडोर कूटनीति की अग्निपरीक्षा का समय था। जहाँ भारतीय टीवी न्यूज चैनलों ने बालाकोट बम्बार्डमेंट में 250 से 300 आतंकी के मारे जाने का आंकड़ा दे दिया था वहीं कुछ अन्तरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसियों ने मौके का मुआयना कर यह सन्देश देने की कोशिश की, कि बालाकोट में कोई मृत्यु नहीं हुई है। यह नहीं बताया गया कि पाकिस्तानी सेना न्यूज़ एजेंसियों को बालाकोट के सभी स्थलों पर नहीं जाने दे रही है। बताया गया कि कुछ गड्ढे हुए हैं, एक पेड़ टूटा और एक मदरसे की छत में छेंद हुआ बस।

संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ पर्यावरण आतंकवाद की शिकायत भी की

पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ पर्यावरण आतंकवाद की शिकायत भी की। परसेप्शन फिर से सर उठाने लगे कि हमारे चालीस जवानों को मार दिया गया और बालाकोट में हमने बदला लेने की कोशिश की भी तो कोई फुटेज नहीं है जो बताती हो कि आतंकी मारे गए। सुबूत मांगे जाने लगे कि कितने मारे गए आतंकी ? सवाल पर सवाल हुए कि मारे गए, क्या फर्क पड़ता है कि कितने मारे गए ? क्या संख्या पूछना भारतीय सेना का अपमान नहीं है? संख्या पूछना अप्रासंगिक यकीनन है क्योंकि यदि एक भी आतंकी मृत न हुआ हो फिर भी पाकिस्तान के संप्रभुता को जो चोट लगी वह कहीं अधिक करारी है। पर संज्ञान में यह भी लिया जाय कि आखिर वे कौन लोग हैं, जिन्होंने संख्या बतानी शुरू की थी ?

PAK ने अभिनन्दन को रिहा करने की घोषणा की और इसे  ‘शांतिपूर्ण रवैया’ करार दिया 

आख़िरकार बैकडोर कूटनीति ने अपना रंग दिखाया। जब यह स्पष्ट हो गया कि युद्ध के पक्ष में कोई विश्वशक्ति नहीं है तो अभिनन्दन वर्थमान को बंदी बनाकर रखने का अर्थ आर्थिक रूप से जर्जर पाकिस्तान को युद्ध की तरफ ले जाना। इमरान खान ने मौके को भुनाने के लिए पाकिस्तानी संसद में अभिनन्दन को रिहा करने की घोषणा की और इसे पाकिस्तान का ‘शांतिपूर्ण रवैया’ करार दिया। परसेप्शन की दुनिया में एक नया हिलोर मचा। एक धड़ा पाकिस्तान को शुक्रिया कह रहा था इसे युद्ध के टल जाने का संकेत मान रहा था तो वहीं दूसरा धड़ा इसे मोदी सरकार की कूटनीतिक विजय करार दे रहा था। टीवी न्यूज चैनलों पर इमरान के डरने और झुकने की ख़बरें थीं तो कुछ विश्लेषक दो दिन के अन्दर ही अभिनंदन के वापस किये जाने पर इमरान सरकार की तारीफ करने की हिम्मत भी जुटा पा रहे थे।

अख़बारों में इमरान के इस शांतिपूर्ण रवैये की प्रशंसा की

दुनिया के अख़बारों में इमरान के इस शांतिपूर्ण रवैये की प्रशंसा हुई क्योंकि पाकिस्तान चाहता तो अभिनन्दन को भारत-पाकिस्तान के मध्य स्थितिओं के सामान्य होने तक अपने पास एक दबाव नीति के तहत रख सकता था। रही बात जिनेवा कन्वेंशन की तो वह 2018 नहीं, 1949 से ही है और पीछे पायलट नचिकेता को जहाँ बेहद मारापीटा गया था वहीं उन्हें खोजते पाकिस्तानी सीमा में जा पहुंचे पायलट अजय आहूजा को बेहद करीब से गोली मार दी गयी थी। परसेप्शन के पागलपन का आलम यह था कि टीवी न्यूज चैनलों पर लगातार वीररस बरस रहा था। इसका एक गहरा नुकसान यह भी हुआ था कि अभिनन्दन को गहरे मानसिक स्थितियों से गुजरना पड़ा। दोपहर तक लौटने वाले अभिनन्दन आख़िरकार रात नौ बजे वाघा सीमा पर पहुँच सके ।

पाकिस्तानी सेना ने अभिनन्दन का जबरन वीडियो रिकॉर्ड करवाए

पाकिस्तानी सेना ने उनसे जबरन वीडियो रिकॉर्ड करवाए जिसमें आसानी से 16-17 एडिटिंग कट्स देखे जा सकते हैं। अभिनन्दन से उस एडिटेड वीडियो में भारतीय मीडिया के अतिरेक की आलोचना करवायी गयी, इससे पता चलता है कि इस इन्टरनेट के युग में परसेप्शन बिल्डिंग में लिप्त मीडिया के अतिरेकों की कीमत कहीं तो चुकानी पड़ती है। अभिनन्दन के इस वीडियो ने आख़िरकार पाकिस्तान के ‘शांतिपूर्ण रवैये’ की हवा निकाल दी।

कूटनीतिक दृष्टि से देखें तो यहाँ दो परसेप्शन्स और निर्मित हुए। कूटनीति में हमेशा सही दिखना होता है। पाकिस्तान की असल मंशा को लेकर गफलत में कोई नहीं है पर फिर भी वैश्विक स्तर पर पाकिस्तान के पीसफुल जेस्चर के परसेप्शन को चर्चा मिली। वहीं, जबकि भारत को अभिनन्दन का इंतजार था, भारत के तीनों सेनाओं के प्रतिनिधि संयुक्त प्रेसवार्ता कर पाकिस्तानी हवाई विमानों के भारतीय सैन्य ठिकानों के चक्कर लगाने के सुबूत पेश कर रहे थे। अभिनन्दन के लौटने को महज जिनेवा कन्वेंशन का करिश्मा बता रहे थे और पाकिस्तान को किसी भी स्तर पर जाकर जवाब देने की बात कह रहे थे। कूटनीति में प्रतीकों का बेहद महत्त्व होता है।

एक लोकतांत्रिक सरकार में सेना के प्रतिनिधि प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे और एक सेनाप्रभुत्व वाले देश की संसद ‘शांतिपूर्ण रवैये’ का ज़िक्र कर रही थी। उस नाजुक समय में यदि पाकिस्तान की ओर से अभिनन्दन को लौटाने में आनाकानी की जाती तो यह उनके लिए बेहद असुरक्षित हो सकता था और युद्ध का खतरा भी बढ़ता। यही प्रेस कांफ्रेंस अभिनन्दन के आने के बाद और मजबूती से तथा पाकिस्तान के असल इरादों को बेनकाब करते हुए की जा सकती थी, हम कूटनीतिक रूप से अपर हैण्ड पर होते। बहरहाल, अभिनन्दन का भारत ने बाहें फैलाकर स्वागत किया।

चुनाव के लिए युद्ध बनाम युद्ध के लिए चुनाव

अब जबकि पाकिस्तान बार-बार भारतीय नौसेना के पाकिस्तानी जलसीमा में प्रवेश करने की शिकायत कर रहा है और पुलवामा के बाद अलग-अलग घटनाओं में लगभग पचास से अधिक जवानों की मृत्यु हुई है, परसेप्शन का युद्ध अभी भी लड़ा ही जा रहा है। बालाकोट के सुबूत मांगे जा रहे हैं तो इस बीच भारतीय वायुसेनाध्यक्ष बी. एस. धनोवा ने बयान दिया कि-‘हम लक्ष्य बेधते हैं, लाशें नहीं गिनते’। एक बार फिर राजनीति गरमा गयी है। एक तरह के परसेप्शन पायलट जहाँ 1971 के युद्ध के तुरंत बाद इंदिरा गाँधी के समय पूर्व चुनाव करवाने व भारी जीत दर्ज करने के ऐतिहासिक तथ्य को परोस रहे हैं तो दूसरे तरह के परसेप्शन पायलट मोदी सरकार पर जबरन देश को युद्ध की आग में झोंकने का आरोप लगा रहे ताकि इसका फायदा उन्हें आगामी चुनाव में मिल सके।

राजनीतिक लाभ की लिप्सा में राजनीतिक दल तो रहेंगे 

राजनीतिक लाभ की लिप्सा में राजनीतिक दल तो रहेंगे ही किन्तु बहुरंगी पर्सेप्शंस से इतर हमें यह समझना चाहिए कि युद्ध स्थाई हल होता तो 1947, 1965, 1971 और 1999 के युद्धों में हुई करारी पराजय के बाद भी पाकिस्तान, भारत के लिए सरदर्द न होता। यह भी समझना होगा कि युद्ध में हमारे और आपके घरों के जवान लड़ते हैं, जिनका जीना, उनके शहीद हो जाने की तुलना में कहीं से भी कम महत्व का नहीं होता। समझना यह भी है कि पड़ोसी से देरसबेर हाथ मिलाना होगा जो हम चाहते हैं कि विश्वशक्ति रुपी बन्दर हमारे हिस्से की रोटी न हड़प सकें।

तथ्य यह भी है कि पाकिस्तान को युद्ध में एक और बार हरा देने से पाकिस्तान विश्व मानचित्र से रातोरात गायब नहीं होगा अपितु युद्ध से जर्जर, आर्थिक रूप से बेहाल वह देश भावी आतंकवादियों की ऐसी शरणस्थली बनेगा जिससे समस्त विश्व को खतरा होगा।

समझना यह भी होगा कि पश्चिमी शक्तियों ने जो न्यूक्लियर बम विकसित किया वह एशिया में ही जापान पर गिराया गया था और अभी तो एशिया के ही दो खिलाड़ी हाथ में न्यूक्लियर बम लेकर युद्ध-युद्ध चिल्ला रहे हैं और किसी भी तरह के युद्ध के बाद दोनों देशों की किस्मत जापान जैसी ही होगी, ऐसा सोचना सकारात्मकता की अयथार्थवादी पराकाष्ठा है। ध्यान से सोचें अगर चुनाव के लिए युद्ध नहीं है तो फिर कहीं युद्ध के लिए चुनाव में चयन तो नहीं होने जा रहा ?

परसेप्शन से बचें, पढ़ते रहें, सचेत रहें !

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेखकअंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार  संप्रति गलगोटियाजयूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष हैं।)

 

 

 

 

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