Thursday - 11 January 2024 - 8:21 PM

सियासी घरानों में भी कमाऊ पूत, सबसे मजबूत!

 

संदीप पांडेय

संदीप पांडेय

क्या वाकई मां-बाप अपने बच्चों को दो आंखों से देखते हैं ? सामाजिक पृष्ठभूमि का ये सवाल अब सियासी गलियारे का भी सच बनता जा रहा है।

बिहार में राजनीतिक दलों के बीच जारी उठापटक से ज्यादा चर्चा RJD में मचे घमासान पर हो रही है। परिवार और पार्टी से पहले से ही नाराज तेज प्रताप ने लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे के बाद खुल कर बगावत का ऐलान कर दिया।

हालांकि, इस बार के घरेलु कलह में तेज प्रताप अकेले नहीं है। जानकारों की माने तो तेजप्रताप की बड़ी बहन मीसा पर्दे के पीछे से उन्हे सपोर्ट कर रही हैं और ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि जब लालू प्रसाद ने अपने छोटे बेटे तेजस्वी को पार्टी की कमान सौंपी थी तबसे ही परिवार में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है।

ये और बात है कि उस समय खुलकर सारी चीजें सामने नहीं आईं थी लेकिन कमान मिलने के बाद जिस अंदाज से तेजस्वी ने काम करना शुरू किया वो तेज प्रताप और मीसा को खटक रहा था।

भाई तेजप्रताप और तेजस्वी के साथ मीसा भारती

तेजस्वी के तरीके से मीसा और तेजप्रताप दोनों उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। चूकि लालू प्रसाद ने तेजस्वी पर भरोसा जताया है लिहाजा पार्टी के बड़े नेता भी इस मामले में कुछ भी कहने से बच रहे हैं।

लेकिन पार्टी में ही एक तबका है जो अपने खेल में लगा है। इन नेताओं में शामिल मोहम्मद अली अशरफ फातमी, कांति सिंह और साधु यादव हो सकता है कि तेज प्रताप का साथ दें।

तेजप्रताप और तेजस्वी के साथ लालू यादव और राबड़ी देवी

जेल में बंद बीमार लालू प्रसाद हर घटना को कंट्रोल नहीं कर पा रहे हैं और राबड़ी देवी ने खामोशी अख्तियार कर ली है। शायद इन्ही कारणों से ‘घर’ की लड़ाई चौखट को पार कर गई।

क्षेत्रीय दलों में अक्सर राजवंशों की भांती ही संपत्ति और अधिकार को लेकर विवाद होते रहे हैं। RJD ही इसकी अकेली शिकार नहीं है। क्षेत्रीय दलों की स्थापना करने वाले नेता जब बुजुर्ग हुए तो खींचतान मचती देखी गई। चाहें यूपी के मुलायम परिवार को ही देख लीजिए।

अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव के शिवपाल यादव

अखिलेश यादव को बागडोर मिलते ही कलह दिख गई थी, और इसका अंजाम ये हुआ कि चाचा शिवपाल पार्टी से अलग होकर अपनी खुद की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बना ली और बकायदा 2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के खिलाफ उम्मीदवार भी उतार दिया।

ऐसा ही कुछ तमिल राजनीति के दिग्गजों के साथ हुआ। एम करुणानिधि के निधन के बाद उनके बेटों और रिश्तेदारों में खुद को कलैगनार का वारिस साबित करने की होड़ मच गई।

एम करुणानिधि के बेटे एमके अलागिरी और एमके स्टालिन

एमके स्टालिन और एमके अलागिरि के बीच का विवाद किसी से नहीं छिपा। राजनीति में सक्रिय परिवार के ज्यादातर सदस्यों ने अपने गुट का चुनाव कर लिया। डीएमके की धुर विरोधी AIADMK में भी जयललिता के निधन के बाद सियासी संघर्ष देखा गया। हालांकि यहां पारिवारिक पृष्ठभूमि तो नहीं थी लेकिन पॉवर को लेकर पनीरसेल्वम, पलानीस्वामी और शशिकला के बीच गतिरोध चलता रहा।

शरद पवार की NCP में भी गाहे-बगाहे सुप्रिया सुले और अजित पवार के बीच विवाद की खबरें बाहर आ जाती है तो पंजाब की शिरोमणि अलाकी दल भी सत्ता की दावेदारी के विवाद से अछूती नहीं है।

ऐसा क्या होता है कि विचारों के आधार पर बनी पार्टियां बेटे-बेटी के आगे घुटने टेक देती हैं। कांग्रेस पर वंशवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाने वाले तकरीबन सभी बड़े नेता अपने-अपने बच्चों-रिश्तेदारों को विधायक, सांसद, मंत्री बना चुके हैं या बनाने की तैयारी में है।

कमाल की बात ये है कि सत्ता में बंटवारे के लिए लड़ते भाई, बहन, चाचा, नेता ये दलील देतें हैं कि वो ये लड़ाई बिहार, तमिलनाडू, यूपी, पंजाब, महाराष्ट्र और देश को बचाने के लिए लड़ रहे हैं।

(लेखक टीवी पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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