Friday - 12 January 2024 - 12:00 PM

पद्मावत: हिस्ट्रियोग्राफ़ी बनाम हिस्ट्रियोफ़ोटी

डॉ कुमार विमलेन्दु सिंह

इतिहास का निष्पक्ष होना, हमेशा, प्रश्नों के घेरे में रहा है। जो इतिहास में लिखा गया है, उसकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठते रहे हैं। जब इतिहास में वर्णित घटनाओं और व्यक्तियों की कलात्मक प्रस्तुति होती है तो उसमें कलाकार की स्वतंत्रता और उसका निरंकुश होना भी असर डालता है। भावनाओं के आवेग में कुछ न कुछ कम या ज़्यादा हो जाता है क्योंकि उसे प्रतिक्रिया और प्रशंसा की आशा होती है। चित्रों या चलचित्रों के माध्यम से ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों की प्रस्तुति को हिस्ट्रियोफ़ोटी कहते हैं और सिनेमा ऐसी प्रस्तुतियों का सशक्त माध्यम है।

2018 में आई, संजय लीला भंसाली की फ़िल्म, “पद्मावत”, इतिहास को स्वतंत्रता से प्रस्तुत करने का एक प्रयास है। चित्तौड़ की रानी पद्मावती कई कवियों और इतिहासकारों का विषय रही हैं, उन्हें मिथक भी मानें तो भी उनसे जनता की भावनाएँ, पीढ़ी दर पीढ़ी जुड़ी हुई हैं। कई युगों से लोगों के हृदय में सम्मान और सौंदर्य का प्रतीक रही पद्मावती को इस फ़िल्म में 2 घंटे, 44 मिनट में दिखाने का प्रयास किया गया है। दीपिका पादुकोण से बेहतर, इस पात्र के लिए कोई हो ही नहीं सकता था।

राजा रतन सिंह के किरदार में शाहिद कपूर भी खूब जंचे हैं। दोनों मुख्य पात्रों का चयन बहुत ही प्रशंसनीय है। फ़िल्म का संगीत भी मधुर और कर्णप्रिय है (खली बली गाने के अलावा)। संगीत की आवश्यकता, ऐतिहासिक विषयों पर बनने वाली फ़िल्मों में बैकग्राउंड स्कोर के अलावा होती तो नहीं है, लेकिन कॉमर्शियल हिन्दी फ़िल्म के फ़ॉर्मुला के हिसाब से गानों का होना ज़रूरी है और भंसाली जी ने स्वयं अपने निर्देशन में, इस फ़िल्म में गाने दिए हैं।

कथानक से तो हम सब पूर्व परिचित हैं तो बात पात्र और प्रस्तुति की ही करनी आवश्यक है। खिलजी के रूप में, रणवीर सिंह का चयन तो बहुत अच्छा है, लेकिन उनका विक्षिप्त जैसा व्यवहार और सैनिकों के साथ अचानक से नाचना और हास्यास्पद संवाद शैली कलात्मक दृष्टि से भी सहज और स्वीकार्य नहीं है।

भंसाली, विषय वस्तु अगर किसी कृति या इतिहास से उठाते हैं तो उसकी प्रस्तुति को संवाद और अभिनय के आधार पर यथावत नहीं कर पाते और इस कमी को विशाल सेटिंग और बड़े बड़े झाड़ फ़ानूस से ढकने की चेष्टा करते हैं। कई मूल बातों को कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर बदल या बिगाड़ भी देते हैं। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की “देवदास” के ऊपर बनाई अपनी फ़िल्म में भी उन्होंने ऐसा ही किया है।

अभिनय के आधार पर रणवीर सिंह ने बेहद कमज़ोर काम किया है, हालांकि, वेश-भूषा को ही अभिनय समझने वाले कुछ स्वघोषित कला मर्मज्ञों को उनका काम पसंद आया है। शाहिद कपूर और दीपिका पादुकोण ने सधा हुआ अभिनय किया है।

कुल मिलाकर कर कुछ यादगार संवादों के साथ, एक मनोरंजक फ़िल्म बन पड़ी है लेकिन कलात्मक उत्थान की दिशा में इस फ़िल्म का कोई योगदान नहीं माना जाएगा।

बहरहाल, लिखे हुए इतिहास (हिस्ट्रियोग्राफ़ी), के प्रति, भारतीय फ़िल्मकारों को और निष्ठावान होने की आवश्यकता है और स्क्रीन पर विक्षिप्त आचरण को ऊर्जा का नाम न देकर, कला के प्रति ईमानदारी का परिचय देने की बहुत ज़रूरत है।

(लेख में लेखक के निजी विचार हैं)

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