Wednesday - 10 January 2024 - 3:39 AM

‘एक देश-एक चुनाव’ से क्या फायदा, क्या नुकसान

न्‍यूज डेस्‍क

देश में लंबे समय से ‘एक देश-एक चुनाव’ यानी एक साथ विधानसभा और लोकसभा चुनाव कराने को लेकर बहस छिड़ी हुई है। इसी बहस को आगे बढ़ाने के लिए आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी राजनीतिक दलों के प्रमुखों की बैठक बुलाई है। बैठक में राष्ट्रीय पार्टियों, क्षेत्रीय पार्टियों के अध्यक्ष को शामिल होना है। ये बैठक बुधवार दोपहर 3 बजे संसद भवन की लाइब्रेरी में होगी। तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस बैठक में आने से इनकार कर दिया है।

‘एक देश-एक चुनाव’ को लेकर विपक्षी दल अभी राय साफ नहीं कर पाए हैं। सूत्रों की मानें तो कई विपक्षी दल इस प्रस्ताव का विरोध कर सकते हैं। लेकिन सरकार इस मामले पर गंभीर दिखाई पड़ रही है। ऐसे में सवाल में उठ रहा है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ से देश क्‍या फायदा होगा या इससे क्‍या नुकसान होगा।

चुनाव किसी भी गणतांत्रिक देश की मुख्य पहचान होते हैं। इसके बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। कहा जाता है कि समय-समय पर होने वाले चुनाव एक लोकतंत्र को मज़बूत करते हैं। लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि देश में हर समय चुनाव को लेकर गहमा गहमी बनी रहती है। अभी कुछ दिन पहले लोकसभा चुनाव का शोर खत्‍म हुआ है लेकिन उसके तुरंत बाद तीन राज्‍यों के विधानसभा चुनाव की तैयारियां भी शुरू हो गई है।

देश में हर समय कोई न कोई चुनाव होता रहता है कभी विधानसभा, कभी लोकसभय या कभी नगर निगम चुनाव का शोर चारों तरफ रहेता है। हालांकि, इसका कुछ लाभ होता तो कभी  इसके वजह से नुकसान भी उठाना पड़ता है।

जनता पहले चुनाव द्वारा अपने प्रतिनिधियों का चयन करती है। कुछ समय बाद जब दुबारा चुनाव होते हैं, तो उन प्रतिनिधियों के काम-काज के आधार पर या तो उन्हें दोबारा चुना जाता है या फिर उनकी जगह किसी और को।

हालाँकि, कई विद्वानों का कहना है कि संगठित प्रचार से प्रत्याशी जनता को विभ्रमित करते हैं और चुनावों से कुछ नहीं बदलता। जानकार बताते हैं कि यदि वोट देने से कुछ बदलता तो व्यवस्था में सबसे ऊपर बैठे लोग जनता को ऐसा करने ही नहीं देते।

चुनाव आयोग ने सबसे पहले 1983 में एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया था। आगे 1999 में जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले लॉ कमीशन ने कहा था कि हमें उस व्यवस्था में वापस जाना चाहिए, जहां लोकसभा और सभी विधानसभा चुनावों को एक साथ कराया जा सके। वहीं 2015 में पार्लियामेंट की स्टैंडिंग कमेटी ने भी चुनावों को एक साथ कराने की सिफारिश की।

अभी हाल ही में खबर आई है कि समजवादी पार्टी, जेडीयू और टीआरएस जैसे क्षेत्रीय दल एक साथ चुनाव कराने के लिए बीजेपी के साथ एकमत हो गए हैं। वहीं डीएमके ने इसे संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया है।

एक साथ चुनाव कराने के कई फायदे हैं। लगातार चुनावों के चलते सरकारी योजनाएं लटक जाती हैं और सामान्य जन-जीवन प्रभावित होता है। लगातार चुनावों से न केवल जरूरी सेवाओं पर असर पड़ता है, बल्कि चुनावी ड्यूटी में ह्यूमन रिसोर्स भी बर्बाद होता है। एक साथ चुनाव कराने से इनको रोका जा सकता है।

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में यह भी तर्क दिया जा रहा है कि इससे राजनीतिक स्थिरता आएगी। यह ऐसे होगा कि सरकार बनने के बाद अगर किन्हीं कारणों से वह गिर जाती है, तो एक तय समय के बाद ही चुनाव होगा। इसके अलावा अगर किसी को बहुमत नहीं मिलता है, तो भी यह तय रहेगा कि अगला चुनाव एक तय समय के बाद ही होगा। ऐसे में राजनीतिक स्थिरता बनी रहेगी।

वहीँ इन चुनावों के एक साथ कराने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे चुनावी खर्चे में भरी कमी आएगी। आगे इस बचत का इस्तेमाल दूसरी योजनाओं में किया जा सकता है।

सबसे महंगा चुनाव

आपको बता दें कि 2019 का लोकसभा का चुनाव भारत के इतिहास का सबसे महंगा चुनाव रहा है। सात चरणों में 75 दिनों तक चले इन चुनावों में 60,000 करोड़ रुपये के खर्च होने का अनुमान है। 2014 के चुनावों में 30,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे जो अब पांच वर्ष बाद दो गुना हो गया है। चुनाव खर्च का यह अनुमान सेंटर फार मीडिया स्टडीज (सीएमएस) ने लगाया है।

सीएमएस की रिपोर्ट में बताया कि 542 लोकसभा सीटों पर हुए चुनावों में करीबन 100 करोड़ रुपये प्रति संसदीय सीट खर्च हुए हैं। यदि वोटर के हिसाब से देखा जाए तो यह 700 रुपये प्रति वोटर आएगा। इन चुनावों में लगभग 90 करोड़ वैध वोटर थे। सीएमएस ने अनुमान लगाया है कि इन चुनावों में 12 से 15000 करोड़ रुपये सीधे वोटरों में वितरित किए गए। दक्षिण के राज्यों आंध्र, तेलंगना में वोटरों को दो दो हजार रुपये तक रिश्वत के तौर पर दिए गए। राजनैतिक दलों ने चुनाव प्रचार में 20 से 25 हजार करोड़ रुपये खर्च किए। वहीं चुनाव आयोग ने इन चुनावों में 10 से 12000 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। वहीं 6000 करोड़ रुपये अन्य मदों में खर्च हुए हैं।

जनता की भागीदारी बढ़ेगी

इन चुनावों के एक साथ कराने के पक्ष में यह बात भी कही जा रही है कि इससे जनता की भागीदारी बढ़ेगी। इससे पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि देश में एक बहुत बड़ी ऐसी आबादी है, जो रोजगार की जुगत में अपने मूल निवास से अलग रहने चली जाती है. ऐसे में अगर एक बार चुनाव होगा तो यह आबादी वोट डालने अपने मूल निवास पर आ जाएगी.

इन सब तर्कों के अलावा कई तर्क और भी हैं। एक साथ चुनाव कराने से केंद्र और राज्य एक साथ पालिसी बनाने में पहले से ज्यादा सक्षम होंगे। वहीं इससे सुरक्षा बालों का समय भी बचेगा। इसके अलावा एक साथ चुनाव कराने से मंत्रियों और नेताओं के समय की भी बचत होगी, इसलिए वे अपना ध्यान जनहित के कार्यों में लगा सकेंगे।

हमारे देश में चुनाव के बाद नेता गायब होने के लिए कुख्यात हैं। बार-बार चुनाव होने से उन्हें जनता के सम्मुख उपस्थित होना होता है, इससे उनकी जवाबदेही बढ़ती है। ऐसे में अगर चुनाव एक साथ होंगे तो उनकी जवाबदेही घट जाएगी।

यह लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ होगा

एक साथ चुनाव कराने का नुकसान यह भी है कि ऐसे में राष्ट्रीय मुद्दे क्षेत्रीय मुद्दों पर भारी पड़ जाएंगे। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि चुनावों के दौरान देश की बड़ी राष्ट्रीय पार्टियाँ राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों को लेकर मैदान पर उतरेंगी। ऐसे में क्षेत्रीय मुद्दे कहीं गुम हो जाएंगे।

क्षेत्रीय मुद्दों के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व पर भी संकट उत्पन्न हो जाएगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि चुनाव जीतेने के लिए बड़े राष्ट्रीय दल भारी पैमाने पर संसाधन झोकेंगे, इन संसाधनों का मुकाबला करना क्षेत्रीय दलों के बस की बात नहीं होगी। ऐसे में क्षेत्रीय दल ख़त्म होते जायेंगे और क्षेत्रीय मुद्दों का निवारण भी मुश्किल हो जाएगा। क्षेत्रीय दलों के ख़त्म हो जाने से लोकतंत्र में केवल कुछ ही बड़े दलों का बोलबाला हो जाएगा। यह लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ होगा।

इन्हीं सब बातों से जुड़ा एक खतरा यह भी है कि एक साथ चुनाव होने से यह केवल एक व्यक्ति के आसपास केन्द्रित हो जाएगा। ऐसे में मतदाता उस पार्टी को ही वोट करेगा, जिसके प्रधानमंत्री को वह कुर्सी पर देखना चाहता हो, भले ही दूसरी पार्टी उसके क्षेत्र के विकास के लिए पहली पार्टी से ज्यादा अच्छे वादे कर रही हो।

संवैधानिक संकट उत्पन्न जोने की आशंका

इन चुनावों को एक साथ कराने में संवैधानिक पेंच भी फंस रहा है। अगर किसी राज्य में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनती है तो क्या उस राज्य को अगले चुनाव तक इन्तेजार करना पड़ेगा। वहीं अगर लोकसभा में किन्हीं कारणों से सरकार गिर जाती है तो क्या बाकी राज्यों को अपनी चुनी हुई सरकारों को निरस्त कर दुबारा से चुनाव कराने पड़ेंगे. इन प्रश्नों के अभी संतुष्टिदायक उत्तर मिलने बाकी हैं।

 

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