Saturday - 6 January 2024 - 8:03 AM

कोई भी ऐसी स्थिति के लिए कभी तैयार नहीं होता

रतन मणि लाल 

देश क्या, दुनिया में कोई भी ऐसी अप्रत्याशित स्थिति के लिए कभी तैयार नहीं रह सकता जिसमे पूरा देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के अधिकतर देश अधिकारिक रूप से ‘बंद’ हो जाएं।

देशों के बीच सभी तरह का आवागमन बंद हो, सीमाएं बंद हो जाएँ, देश के अन्दर शहरों से लेकर गाँव कस्बों तक सड़कों पर लोगों के निकलने पर रोक लग जाये। रेल गाड़ियाँ, बस-टैक्सी सेवा, निजी वाहन आदि सब के चलाने पर रोक लग जाए। और यह सब किसी पारंपरिक युद्ध के चलते नहीं, बल्कि एक अनजानी वैश्विक महामारी के खतरे की वजह से हो।

इसमें कोई संदेह नहीं कि हम इस समय दुनिया के इतिहास के शायद सबसे चिंताजनक और संवेदनशील समय में हैं। वर्ष 2019 के नवम्बर में जब चीन में कोरोना वायरस की खबरों की छोटी हैडलाइन बन रहीं थीं, तब हम उत्तर प्रदेश के अयोध्या में राम मंदिर बनाने पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले और उसके बाद के बदलते राजनीतिक परिदृश्य पर चर्चा कर रहे थे।

आज, जब देश-दुनिया के अधिकतर लोग अपनी जान बचने के लिए अपने घरों में कैद हैं, तब राजनीति और समाज के तमाम मुद्दे अचानक अप्रसांगिक लगने लगे हैं – सिर्फ एक ही चीज हमारी सोच में सबसे ऊपर है – अपनी जान कैसे बचाई जाए।

सच कहा है, जान है तो जहान है। और यह भी सच है कि जब मौत सामने दिखती है, तो सबको अपनी जान बचने की पड़ी होती है। प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, सूखा, भूकंप, तूफ़ान, सूनामी, मानव-जनित आपदा जैसे युद्ध, दंगे, सामाजिक अशांति, राजनीतिक उथल-पुथल, औद्योगिक दुर्घटना आदि से निबटने के लिए हमारे पास सेना, अर्ध-सैनिक बल, पुलिस, आपदा प्रबंधन बल, आदि तमाम संसाधन हैं, लेकिन रासायनिक या जैविक आपदा से निबटने के लिए हम अभी भी तैयार नहीं हैं।

वर्ष 1984 में भोपाल में यूनियन कार्बाइड में हुई गैस रिसाव त्रासदी दुनिया की अबतक की सबसे बड़ी रासायनिक दुर्घटना मानी जाती है, हालाँकि कुछ वर्ग तत्कालीन सोवियत यूनियन के चेरनोबिल में अप्रैल 1986 में हुए नाभिकीय संयंत्र की दुर्घटना को ज्यादा गंभीर मानते हैं।

दोनो ही मामलों में उन दुर्घटनाओं का असर कुछ किलोमीटर के क्षेत्र तक सीमित था, और उनका प्रभाव आने वाली कई पीढ़ियों तक महसूस किया जाता रहा। इसमें कोई शक नहीं कि इन दोनों ही दुर्घटनाओं में प्रभावित लोगों ने जैसा महसूस किया,

उसका कोई पूर्व उदाहरण नहीं है – शायद दूसरे विश्व युद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम को छोड़ कर। इसके बावजूद, वर्ष 2020 में दुनिया के सभी देशों में कोरोना वायरस का कहर जिस तरह से टूटा है, जिस तरह से निर्दोष व अनभिज्ञ लोग अपनी जान गवां रहे हैं, और जिस तरह से यह वायरस अभी भी फैल रहा है, उससे मानव जाति की रासायनिक/नाभिकीय आपदा से निबटने की सारी जानकारी व तैयारी तुच्छ या महत्वहीन लग रही है।

चीन से शुरू हुए इस वायरस से होने वाले फ्लू व फेफड़ों के संक्रमण से तीन महीनों में ही दुनिया के एक दर्जन से ज्यादा देशों में हजारों लोग इसका शिकार बन चुके हैं, यूरोप के कई देश बर्बादी की कगार पर हैं, अमेरिका अपने इतिहास की सबसे बड़ी विभीषिका को देख रहा है, और भारत उस नाजुक मोड़ पर है जहाँ अगले कुछ ही दिनों में देश व लोगों के भविष्य की दिशा तय हो जाएगी।

इसके इलाज के विकल्प कम हैं, और हालाँकि इससे मरने वालों की संख्या कुल संक्रमित होने वाले लोगों का 3 या 4 प्रतिशत है, फिर भी इसके तेजी से फैलने के कारण इससे बचने का एक मात्र रास्ता है की संक्रमण की सम्भावना से दूर रहा जाए।

फरवरी के अंत में इस महामारी की आहट मिल चुकी थी और मार्च की शुरुआत में यह स्पष्ट हो गया था कि भारत में आने वाले दिनों में स्थिति बिगड़ सकती है। मार्च 20 को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार 22 मार्च को एक दिन के जनता कर्फ्यू का निर्णय लिया और दो दिन बाद, 24 मार्च को ही तीन हफ़्तों के ‘लॉक डाउन’ की घोषणा की।

तो अब, कई लोगों को यह लग रहा है कि जब भारत में इस वजह से हुई कुल मौतों की संख्या 10 है, यहाँ का मौसम गर्म हो चला है, कुल संक्रमित लोगों की संख्या कुछ सैकड़ों में है, तो इतने व्यापक प्रतिबंध की क्या वाकई में जरूरत है? कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि सरकार शायद वास्तविक जानकारी नहीं दे रही है और स्थिति या तो इससे भी ज्यादा भयावह है, और या इतनी गंभीर नहीं है।

अपनी सरकार पर विश्वास न करना, और हर बात में गोपनीय या अर्ध-अधिकारिक जानकारी की मांग करना हमारा राष्ट्रीय शौक है। हर घटना का सबूत मांगना भी इसी शौक का हिस्सा है। राजनीतिक मतभेद इतने गहरे हो गए हैं कि हम अपने अस्तित्व से जुड़े हुए मामलों पर भी शासन तंत्र पर विश्वास आसानी से नहीं कर पाते।

यह बात अलग है कि शासन तंत्र भी पूर्ण पारदर्शिता पर पूर्ण विश्वास नहीं करता – लेकिन ऐसा आखिर कौन सा देश करता ही है? क्या अमेरिका, चीन, सऊदी अरब, रूस, पाकिस्तान या इटली की सरकारें ऐसे मामलों पर अपने देश वासियों को पूरी बात बताते हैं? और क्या हमारे देश जैसी निर्बाध डेमोक्रेसी किसी और देश में है भी?

आज जब संयुक्त अरब गणराज्य (यूएई) या ब्रिटेन में प्रतिबंधों को लागू करने के लिए कठोर कानून या सेना के इस्तेमाल के विकल्प पर विचार हो रहा है, तब भारत में लोग आवागमन पर लगे प्रतिबंधों को खेल समझ उनका उल्लंघन कर रहे हैं। जागरूकता का अभाव कह लीजिये, या जान से खिलवाड़ करने की अखिल भारतीय आदत, अभी भी लोग इस महामारी से हजारों लोगों के रोज मरने की आशंका की कल्पना नहीं कर पा रहे है।

सच तो यह है कि आज जैसी स्थिति के लिए कोई भी देश कभी तैयार नहीं होता। अभी तो यह भी यह स्पष्ट नहीं है कि 14 अप्रैल तक सब कुछ सामान्य होगा भी या नहीं। अप्रत्याशित परिस्थितियों के लिए अप्रत्याशित उपाय किये जाते हैं। अपने संसाधनों और राष्ट्रीय आदतों के हिसाब से ही सरकारें अपनी प्रतिक्रिया तैयार करती हैं।

शायद इसीलिए प्रधान मंत्री मोदी ने हाथ जोड़ कर लोगों से आग्रह किया, प्रार्थना की, कि वे प्रतिबंधों का पालन करें क्योंकि टेस्टिंग और अस्पतालों की कमी की वजह से जागरूकता और संयम के अलावा कोई चारा है नहीं। उम्मीद है कि प्रतिबंध की वजह से आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता में कोई रूकावट नहीं आने दी जाएगी, और यह भी उम्मीद है कि देश में मार्शल लॉ या इमरजेंसी सैनिक कानून लागू करने की नौबत नहीं आएगी।

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)

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