Monday - 15 January 2024 - 12:28 PM

प्रतिष्ठा की लड़ाई में योगी चतुर या मजबूर ?

 
प्रीति सिंह 
 
लोकसभा उपचुनावों में वैसे तो भाजपा को तीनों सीटों पर हार मिली थी लेकिन सबसे ज्यादा झटका मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लगा था, जब जातीय समीकरणों के गणित के जरिये समाजवादी पार्टी ने अजेय माने जा रहे योगी के दुर्ग गोरखपुर को जीत लिया था। इधर योगी राष्ट्रीय राजनीति में अपना कद बढ़ा रहे थे और उधर उनके खुद के दुर्ग की दीवारे दरकने लगी थी। 
   
कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक के पीता है। ये कहावत फिलहाल योगी पर सटीक बैठ रही है। योगी आम चुनावों में गोरखपुर की सीट पर दुबारा हार बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है, इसीलिए यूपी की सियासत बीते 2 दिनों से गोरखपुर के इर्द-गिर्द सिमट के रह गयी है। 
 
 2014 तक जिस सीट को लेकर बीजेपी हमेशा से आश्वस्त रही है आज वहीं उलझ के रह गई है। गोरखपुर में 2018 उपचुनाव से पहले तक यहां लोकसभा का एक तरफा चुनाव ही रहा है, लेकिन इसके बाद से यहां का राजनीतिक माहौल बदल गया है। शायद इसीलिए अब तक बीजेपी प्रत्याशी का चयन नहीं कर पायी है। पिछले एक पखवारे में कई नाम आए लेकिन अब तक किसी एक पर मुहर नहीं लग पायी है। दरअसल सपा-बसपा गठबंधन और निषाद वोट वैंक ने बीजेपी के गणित को उलझा दिया है। 
 
2018 में हुए उपचुनाव में इस सीट पर जिस तरह बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी थी उससे योगी समेत बीजेपी शीर्ष नेतृत्व सचेत है। चूंकि इस सीट से सीएम योगी की प्रतिष्ठा सीधे तौर पर जुड़ी है तो इस चुनाव में योगी को अपनी परंपरागत सीट वापस लाने की चुनौती भी है। यदि इस चुनाव में बीजेपी इस सीट पर कब्जा नहीं कर पाती है तो निश्चित ही योगी का तिलिस्म टूट जायेगा। 
 
यही वजह है की अपने तिलिस्म को बचाने के लिए सीएम योगी ने उस निषाद पार्टी से भी हाथ मिलाने में परहेज नहीं किया, जिस निषाद पार्टी के हाथों पिछले साल गोरखपुर में हुए उपचुनाव में बीजेपी को या कहें योगी को मुंह की खानी पड़ी । तो क्या लोकसभा चुनावो में खुद न उतरने की दशा में गोरखपुर में योगी कमजोर हो रहे हैं ? योगी की छवि एक ऐसे कठोर नेता की रही है जो अपने विरोधियों को कभी माफ़ नहीं करता।  
 
गोरखपुर में हर दिन सियासी समीकरण बदल रहा है। उपचुनाव से पहले तक गोरखपुर लोकसभा चुनाव आध्यात्मिक लगाव के चलते जनता के लिए राजनीतिक कम और आस्था का चुनाव होता था लेकिन अब नहीं है। उपचुनाव में सपा-बसपा ने निषाद पार्टी के साथ मिलकर यहा एक नया सियासी समीकरण बना दिया। इतने दिनों से बीजेपी इसी का काट ढ़ूढ रही है।
 
अमरेन्द्र के सहारे निषाद वोट बैंक को साधने की कोशिश 
 
मार्च के पहले सप्ताह में बीजेपी ने पूर्व मंत्री जमुना निषाद के बेटे और लोहिया वाहिनी के राष्ट्रीय सचिव अमरेन्द्र निषाद को पार्टी की सदस्यता दिलाई थी। अमरेन्द्र निषाद के भाजपा में शामिल होने के बाद गोरखपुर का राजनीतिक समीकरण बदल गया। ऐसे भी कयास लगाए जा रहे थे कि बीजेपी में आने के बाद संभव है पार्टी उन्हें गोरखपुर सीट से उम्मीदवार बना सकती है। दरअसल अमरेन्द्र निषाद के पिता और पूर्व मंत्री जमुना निषाद ने साल 1999 के लोकसभा चुनाव में सपा के टिकट पर तब इस सीट से सांसद रहे योगी आदित्यनाथ को कड़ी टक्कर दी थी। जमुना प्रसाद महज 7 हजार वोट से हार गए थे। 
 
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि योगी को आशंका है कि निषाद के मुकाबले गैर-निषाद प्रत्याशी उतारने पर 4.5 लाख निषाद वोटर पाला बदल सकता है।  इस बात को समाजवादी पार्टी ने बखूबी समझ लिया और पूर्व मंत्री राम भुवाल निषाद पर दावं लगा दिया। ।  अब  भाजपा के सामने नई मजबूरी है।  वह अगर कोई सवर्ण उम्मीदवार उतरती है तो सपा बसपा का समीकरण उसकी राह मुश्किल कर देगा यह तय है।फिलहाल अब निषाद पार्टी भी बीजेपी खेमे में आ गई है तो गोरखपुर में सियासी रण रोचक होगा। 
 
गोरखपुर में निषाद वर्सेस निषाद की होगी लड़ाई 
 
निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद के साथ गठबंधन कर सपा ने उपचुनाव में बीजेपी को परास्त कर इस सीट पर कब्जा कर लिया था। इस बार भी सपा-बसपा गठबंधन यही करने वाली थी। औपचारिक रूप से इसका ऐलान भी हो गया  था लेकिन शुक्रवार को डॉ. संजय निषाद ने सपा से किनारा कर बीजेपी से हाथ मिला लिया। इस बीच सपा ने निषाद पार्टी को भाजपा के साथ जाता देख शनिवार को बड़ा दांव चला और गोरखपुर से रामभुआल निषाद को मैदान में उतार दिया। 
 
माना जा रहा है कि निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद को बीजेपी से हाथ मिलाते देख सपा को निषाद समुदाय के वोटों के खिसकने का खतरा नजर आ रहा था। इसी वजह से पार्टी ने इसकी काट के तौर पर गोरखपुर से रामभुआल निषाद को मैदान में उतारा है।  रामभुआल निषाद को सपा में निषाद समुदाय के चेहरे के तौर पर देखा जाता है। ये सपा का मास्टर स्ट्रोक साबित हो सकता है। 
 
गोरखपुर की राजनीति पर लंबे समय से काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार व विष्लेषक सुशील वर्मा कहते हैं कि चूंकि उपचुनाव के बाद से यहां एक अलग सियासी समीकरण तैयार हो गया है, इसलिए इस चुनाव में किसी भी पार्टी के लिए चुनाव आसान नहीं है।  बीजेपी यदि पिछले चुनाव में हारी थी तो सवर्णों की वजह से ही। कायस्थ, ब्राह्मण क्षत्रियों की नाराजगी ही बीजेपी के हार का कारण थी। इस बार बीजेपी अपने पारंपरिक वोट बैंक पर ध्यान न देकर दूसरी पार्टियों के वोट पर ध्यान दे रही है। क्षेत्र में बहुत से जमीनी नेता है जो अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन उनकी उपेक्षा हो रही है। बीजेपी इस चुनाव में बड़ी चुनौती के लिए तैयार रहे। 
 
गोरखपुर में जातीय समीकरण 
गोरखपुर के जातीय गणित को यदि देखा जाए तो यहां 19.5 लाख वोटरों में से 3.5 लाख वोटर निषाद समुदाय के हैं। इस संसदीय क्षेत्र में निषाद जाति के सबसे अधिक मतदाता हैं। वहीं यादव और दलित मतदाता दो-दो लाख हैं। ब्राह्मण वोटर करीब डेढ़ लाख हैं। यदि चुनाव में निषाद, यादव, मुसलमान और दलित एकजुट हो जाते हैं तो चुनाव परिणाम चौंका भी सकते हैं।
Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com