Sunday - 7 January 2024 - 4:16 AM

बड़े अदब से : मुद्दों की सेल

प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव

सेल…सेल…सेल… मुद्दों की सेल। सामने बोर्ड देखकर मैं चौंका। बात थी भी चौंकाने वाली। मैं उतना ही चौंका जितना मुद्दों की जगह ‘मुर्दों” लिखा देखा होता। किसने खोली? आखिर क्यों खोली गयी? किसके दिमाग का यूनीक स्टार्टअप है? यह पहली है या इस तरह की दुकानों की प्रशांत किशोर फ्रेंचाइजी है? ऐसे तमाम सवालात मस्तिष्क में लात घूंसे चलाने लगे। खोजी पत्रकारिता के डीएनए ने दुकान का शटर उठाने में तनिक भी देर नहीं की।

काउंटर के पीछे खर्राटों की आवाज से यह यह स्पष्ट हो चला था कि किसी जीवित प्राणी से मुलाकात  अश्वयंभावी है। हिलाया डुलाया तो खड़बड़ाकर उठ बैठे वे। शक्ल ओ सूरत से हिले डुले ही लगे। छूटते ही बोले,’क्या मियां, यूपी के इलेक्शन की डेटें एनाउंस हो गयीं?”

‘हो जाएगी। आप कब से सो रहे हैं?”

‘बस यूं ही झपकी आ गयी थी। इस देश में तो आदमी भरपूर नींद सो भी नहीं पाता आैर अचार संहिता नाजिल हो जाती है। आये दिन कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। पलक झपकाने की भी फुर्सत नहीं मिल पायी है।” उन्होंने पलकें झपकाते हुए फरमाया। सोचा बुजुर्गवार फालतू ही फुटेज ज्यादा खायेंगे… इसलिए जल्दी मुद्दे पर आ जाओ। मैंने सवाल किया,’ मुद्दों की सेल का क्या अभिप्राय है मान्यवर?”

‘गजब करते हो मियां! इत्तु सी बात भी नहीं जानते कि अब बिना मुद्दों के चुनाव न लड़े जाते हैं और न ही जीते। पहले पार्टियां इक्का दुक्का थीं। बिना मुद्दों के चुनाव जीत लिये जाते थे। चुनाव चिन्ह ही बता देता था कि पार्टी का रुख क्या है। घास चरने जाएगी या खेत जोतेगी। अब इतनी ज्यादा पार्टियां हैं कि बैलेट पेपर कम टेबलाइट साइज का न्यूज पेपर ज्यादा लगता है।”

‘लेकिन चचा हम यह जानना चाहते हैं कि आप क्या बेंचते हैं?” मैंने उन्हें पटरी पर लाने के लिए जैक लगाया।

 ‘देख भाई ये सयाफी की तरह बात तो करो नहीं! यूं समझो कि जब पार्टियां थोक के भाव में नमूदार हुई  तो चुनाव चिन्ह बेमानी हो गये। अब किसी को पंखा मिला तो क्या वह पांच साल तक पंखा ही झलेगा? झाडू तो चलो फिर भी साफ सफाई के काम आएगी। सो रास्ता निकाला गया कि मुद्दों को उछाला जाए। मुद्दों को छांटने बीनने में मारामारी शुरू हो गयी। बर्खुरदार आपने सुना होगा कि क्राइसिस ही सप्लाई का मार्ग प्रशस्त करती है। मैंने भी लगे हाथ मुद्दों का कच्चा माल सप्लाई करना शुरू कर दिया। कई साल तो वर्क फ्राम होम रहा। जब देखा कि लोग घर पर एक निवाला तक खाने नहीं दे रहे सो दुकान खोल ली।

‘क्या इतनी भीड़ लग जाती थी घर पर?” मैंने आश्चर्य को लपेटकर शब्द उगले।

‘अमां आप भी क्या औल फौल जुगाली करते हैं। वो नामुराद लंच टाइम में ही आते थे।” चचा ने मुस्की छानी।

‘ये सेल का क्या फंडा है?” मैंने उन्हें फिर घेरा।

‘पार्टियोें को आकर्षित करने के वास्ते सेल लगा रखी है। दो बड़े किंग साइज के मुद्दे लेने पर एक चिलगोजा साइज का मुद्दा एकदम फ्री। पहले यह योजना नहीं थी लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक, दफा 370, तीन तलाक, राम मंदिर के बाद धंधा बैठने लगा था सो यह आफर देना पड़ा। अब आप आये हैं तो लगता है कि बोहनी हो ही जाएगी। इलेक्शन कब है? कब है इलेक्शन??” (सौजन्य व तर्ज गब्बर सिंह )।

वही हुआ जिसका मुझे डर था। चचा फुटेज पर फुटेज खाये जा रहे थे। बात आगे बढ़ाने की गर्ज से पूछ लिया,’कौन कौन से मुद्दे आपके स्टॉक में हैं?”

‘जनाब रेडीमाल में इस वक्त चार केटेगरी के मुद्दे आपको मिल जाएंगे- धोबी पछाड़, लल्लन टाप, एवरग्रीन आैर व्हील चेयरी। व्हील चेेयरी एक ही पीस आया था सो वह  बिक गया। ये सभी मेड इन इंडिया हैं। स्मगलिंग वाले कनेडियन, अमरीकन, चाइनीज व बंग्लादेशी मुद्दे आपको हाफ रेट में लग जाएंगे। लेकिन ऐसे मुद्दे हम दुकान पर डिसप्ले नहीं करते।” मामला कुछ कुछ इंटरेस्टिंग हो चला था। मैं कुछ आैर नत्थी होने का प्रयास करता हूं, ‘इससे पहले आपने कौन कौन से मुद्दे बेंचे हैं?”

‘लो कर लो बात।” लगा प्रकारांतर से कह रहे हो क्या खबरिया चैनल से हो!! ‘अरे जनाब यह बोफोेर्स, एशियन गेम्स, चीनी घोटाला, हवाला, ब्रीफकेस प्रकरण, पनडुब्बी-हैलीकॉप्टर खरीद मामले, राफेल, कॉफिन खरीद, दो करोड़ नौकरियां, पंद्रह लाख… यह सब तो मेरी दुकान से ही तो बिके हैं।”

चचा ने छोड़ने की सभी सीमाएं लांघ ली थीं,’पहले मैं मुद्दे पुड़िया बानकर डिलीवर किया करता था लेकिन अब बाकायदा खुलेआम पैकेज डील करता हूं।”

‘आपके पास सबसे लेटेस्ट मुद्दा क्या है?” मैंने बीच में ही उन्हें रोकते हुए पूछा।

‘पेगासिस का मामला। ये आपको इलेक्शन से पहले मिल पायेगा। अभी अंडर टेस्टिंग है।”

अचानक बंदे की नजर एक धूल से अटे पुराने से बक्से पर पड़ी। उस ओर इशारा कर मैंने पूछा,’इसमें क्या स्पेशल माल बंद है?”

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मेरे इस सवाल पर उनके चेहरे पर अजीब सी उदासी छा गयी। मुझे लगा कहीं ये इनकी मरहूम बीवी का सुहाग बक्सा न हो। आवाज में मायूसी भिगोकर बिना निचोड़े उन्होंने कहना शुरू किया,’काश इसके अंदर कैद सबको शिक्षा, जन जन के लिए पर्याप्त उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सेवाएं, सबको रोजगार, सबको दो वक्त की रोटी, स्वच्छ पेयजल, सीटों पर नारी आरक्षण, भ्रूण हत्यारों के लिए मौत की सजा, आपदों से राहत के लिए ठोस कदम, जातिवादी रहित समाज, अपराधियों का जेल से चुनाव लड़ना, आपसी भाईचारा, महिलाओं को अधिकार व सम्मान जैसे मुद्दों को कोई पार्टी पूछती तक नहीं। आपकी कसम इन मुद्दों को ढोते ढोते मैं बूढ़ा हो चला हूं। फिर भी इन्हें सम्भाल कर रखे हूं। कभी न कभी कोई न कोई कद्रदान पार्टी आयेगी। तब मुफ्त में दे दूंगा। मैं चलने को जैसे ही मुड़ा उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा,’अपने अलावा इन पार्टियों ने किसी का भला किया है क्या ?”…

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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