Sunday - 7 January 2024 - 2:36 AM

मोदी 2.0 : उम्मीद है पुरानी गलतियां नहीं दोहरायेंगे

डा. श्रीश पाठक

भाजपा की इस सुनामी में कई समीकरण और छोटे-मोटे प्रबंधन के बांस टूटकर गिर गए हैं लेकिन कठिन मुद्दों की कुछ बेहया घास अभी भी जमी हुई है l ये घास केवल सुशासन से ही हटाई जा सकती हैं l

2014 में नरेंद्र मोदी ने चुनाव लड़ने के लिए विकास और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया था और गुजरात मॉडल को सामने रखा था l मतदाताओं ने इसपर भरोसा भी किया और भाजपा ने अपने बलबूते स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बनाई थी l मुझे बेहद खुशी हुई थी जब मोदी जी ने अपने एक चुनावी भाषण में तब ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ की चर्चा की थी l इसका अर्थ यह है कि भारत के पास एक सुअवसर है जो उसकी जनसँख्या के युवा प्रतिशत से उभर आया है l

भारत की जनसँख्या में सर्वाधिक प्रतिशत युवाओं का है तो उत्पादक आयु वर्ग की संख्या सर्वाधिक हुई और निर्भर आयु वर्ग कम हुआ l यह स्थिति हमेशा नहीं रहने वाली l यदि इस युवा जनसँख्या को प्रभावी मानव संसाधन में बदल दिया जाय तो भारत विश्व के अग्रणी देशों में तुरत ही आ सकता है l नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही यह आशा बलवती हुई कि अब नयी सरकार मानव संसाधन निर्मित करने के दो बड़े घटकों यथा-शिक्षा (कौशल) व स्वास्थ्य पर सर्वाधिक ध्यान देगी l

2014 से 2019 तक यदि आंकडें देखें तो मोदी सरकार ने शिक्षा मद में लगातार बजट अलोकेशन कम किया है l यह 6.15 % से घटकर 3.48 % प्रतिशत रह गयी l प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा में कोई नया विजन नदारद रहा l नियुक्तियाँ ठिठकी ही रहीं l

स्वास्थ्य सेवा में मनमोहन और मोदी दोनों ही सरकारों का काम उल्लेखनीय नहीं है l स्वास्थ्य मद में दोनों के खर्च लगातार सिकुड़े हैं l मोदी सरकार ने 2025 तक स्वास्थ्य मद में जीडीपी का महज 2.5% खर्च करने का लक्ष्य रखा है। मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के आख़िरी महीनों में (सितम्बर 2018) आयुष्मान भारत नाम से एक महत्वाकांक्षी योजना जरुर शुरू की लेकिन पूरे भारत में महज 18000 प्राइवेट अस्पतालों को ही इसमें जोड़ा जा सका l

ऐसी कोई भी योजना तब तक नहीं सफल हो सकती जबतक एक जमीनी सार्वजनिक स्वास्थ्य संरक्षा व्यवस्था न निर्मित की जाये l जन औषधि केंद्र व स्टेंट व घुटना प्रत्यारोपण सामग्रियों को सस्ता कर एक राहत देने की कोशिश अवश्य की गयी l यदि स्वास्थ्य व शिक्षा पर ध्यान न दिया जाये तो भारत अपने डेमोग्राफिक डिविडेंड का लाभ नहीं ले सकेगा और यही युवा जनसँख्या कुछ समय बाद इसी अर्थव्यवस्था पर उचित शिक्षा व स्वास्थ्य के अभाव में उलटे एक बोझ बनेगी, इस प्रकार एक ऐतिहासिक अवसर जाता रहेगा l

मोदी सरकार के पूर्व अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन की लगातार दो कार्यकाल की सरकार थी l मनमोहन सरकार के मंत्रियों में एक दंभ दिखने लगा था और अक्सर उनकी आलोचना उस समय ऑक्सब्रिज कुनबा कहकर की जाती थी l मोदी सरकार के अर्थवयवस्था का जायजा यदि लिया जाय तो यह कहना होगा कि मोदी सरकार ने फिस्कल घाटे को कम किया, ऋण को नियंत्रित किया, इन्फ्लेशन पर लगाम लगाई l लेकिन इसमें दो तथ्य बेहद महत्वपूर्ण भी जोड़े जाने चाहिए जिससे बात स्पष्ट हो l इसी समय में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम बेहद निचले स्तर पर थे और लगातार अच्छे मानसून से फसल उत्पादन भी बढ़िया हुआ l 30 डॉलर प्रति बैरल पर कीमत आने के बाद भी सरकार ने देश में तेल की कीमतें घटाईं नहीं, बल्कि तेल के दामों को बाजार के नियंत्रण में छोड़ दिया गया l

ग्रोथ रेट के आंकड़े मोदी सरकार में कार्यकाल के दुसरे वित्तीय वर्ष से ही 2011-12 को आधार वर्ष मानकर (पहले आधार वर्ष 2004-05 था) दिखाया जा रहा था l लेकिन तीन स्तर पर बदलाव किये गए और उन आधारों पर मनमोहन सिंह के कार्यकाल और मोदी कार्यकाल के आंकड़ों की तुलना प्रदर्शित की गयी, इसमें मोदी सरकार के लिए ग्रोथ रेट जहाँ 7.5 % दिखाया गया वहीं, मनमोहन के लिए यह 6.7 % ही रहा l इस नए तरीके से मनमोहन काल में अर्जित डबल डिजिट ग्रोथ को भी सिंगल डिजिट (10.3% से 8.5 %) का बना दिया गया l 

इन आंकड़ों को यूँ दिखाने के लिए तीन बदलाव किये गए- पहला आधार वर्ष बदला गया, डेटा के स्रोत आधारों को बदला गया और तीसरा जीडीपी गणना की पद्धति बदली गयी जिसमें अर्थव्यवस्था के प्राथमिक सेक्टर और द्वितीयक सेक्टर के आंकड़ो को अधिक वरीयता दी गयी और तृतीयक सेक्टर के आंकड़ों को कम महत्त्व दिया गया (जबकि तृतीयक सेक्टर यानि सेवा क्षेत्र का योग सर्वाधिक 54% है जबकि पहला और दूसरा सेक्टर क्रमशः 17%  व  29% ही योग देते हैं) l

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मनमोहन सिंह के एक बयान के मुताबिक UPA की ग्रोथ रेट तक पहुँचने के लिए सरकार को 10.6 % की रेट को बनाना होगा, जाहिर है जो संभव नहीं हो सका l 1% वार्षिक भी यदि जीडीपी ग्रोथ में कमी आती है तो यह तकरीबन 1.5 लाख करोड़ रूपये का नुकसान राष्ट्र को पहुँचाता है, इससे होने वाले मानवीय असर की कल्पना की जा सकती है l पिछले पाँच सालों में अप्रत्यक्ष कर की संख्या बढ़ी है जबकि सब जानते हैं कि एक बेहतरीन अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष कर अधिक होते हैं और अप्रत्यक्ष कर कम रखे जाते हैं। मनरेगा में लगातार फंड घटाए गए। ग्यारह करोड़ से अधिक सीनियर सिटिजन के लिए कोई खास इंतजाम नहीं किया गया।

उज्ज्वला योजना और गिव अप योजना खासी सफल और चर्चित रही l यहाँ यह कहना जरुरी है कि राहुल गाँधी UPA-II के समय फिस्कल डीफिसिट को कम करने की गरज से ही साल में केवल 9 सिलेंडरों पर सब्सिडी रखना चाहते थे और बाकी तीन सिलेंडर रेफीलिंग कॉस्ट को बाजार आधारित रखना चाहते थे l उस वक्त में भाजपा के राजनाथ सिंह बेहद कड़े विरोध में संसद की कार्यवाही ही नहीं चलने दे रहे थे l

मोदी सरकार ने स्वयं से सब्सिडी इन सिलेंडरों पर छोड़ने की बात कही और इसे राष्ट्रीय अभिमान से जोड़ दिया और यह भी कि इससे किसी गरीब महिला के रसोई में सिलेंडर पहुंचेगा l यहाँ यह समझना जरुरी है कि यह काम सरकार का ही है कि गरीब के घर में सब्सीडाइज्ड सिलेंडर पहुंचे पर इसे गिव अप अभियान से होशियारी से जोड़ दिया गया l एक पार्टी जो तीन सिलेंडर पर भी सब्सिडी छोड़ने के खिलाफ थी, उसकी सरकार ने गिव अप अभियान में बारहो सिलेंडर पर सब्सिडी हटा ली l

बेरोजगारी के मोर्चे पर मोदी सरकार के पास कहने को यकीनन कुछ ठोस नहीं है l सरकारी आँकड़े निकाले नहीं गए और आरटीआई से भी कुछ निकालना संभव नहीं रहा l आंकड़ों के अभाव में भी फ़िलहाल यूपीएससी के भर्तियों से एक ट्रेंड समझा जा सकता है l 2015 में जहाँ 1164 भर्तियाँ प्रकाशित की गयीं थीं, वहीं 2016 में 1079, 2017 में 980, 2018 में दशक की न्यूनतम 780 भर्तियाँ ही निर्गत की गयीं, जबकि मिनिस्टर ऑफ़ स्टेट फॉर पर्सनेल जितेन्द्र सिंह ने लोकसभा को अपने एक लिखित जवाब में तकरीबन 1500 आईएएस ऑफिसर्स की कमी की बात स्वीकारी थी l UPA-II के पाँच सालों में यही भर्तियाँ बढ़कर 1364 तक पहुँच गयीं थीं l

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मुद्रा योजना में छोटे और लघु व्यवसायों के लिए वित्त की व्यवस्था की गयी लेकिन इस मद में दिए जाने वाले औसत मात्रा के लोन काफी छोटे हैं जो पर्याप्त नहीं है फिर चूँकि रोजगार का डेटा उपलब्ध नहीं है तो कुछ कहना भी सम्भव नहीं है।

नरेंद मोदी ने अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में कुल 94 देशों की यात्राएँ की थीं, जबकि मनमोहन ने दस वर्षों में कुल 95 देशों की यात्राएँ की थीं l खर्चों की बात यदि न भी करें तो भी एक विषय यहाँ प्रासंगिक है l मनमोहन के दुसरे कार्यकाल में ऍफ़डीआई में 20.02 % का उछाल आया था वहीं मोदी के कार्यकाल में 3.08 % की गिरावट देखी गयी l पारदर्शिता की बात भी यहीं कर लें अगर तो मनमोहन के साथ विदेश जाने वाले व्यवसायियों के नाम सार्वजनिक तौर पर जाने जा सकते थे, लेकिन आरटीआई द्वारा मोदी की विदेश यात्राओं में साथ जाने वाले व्यवसायियों के नाम जानने पर पाबंदी थी l

कश्मीर मुद्दे पर भी एक पड़ताल जरूरी है। मनमोहन सिंह की सरकार ने एक अपेक्षाकृत शांत कश्मीर मोदी सरकार को सौपा था। उम्मीद थी कि स्पष्ट बहुमत की मोदी सरकार कश्मीर मुद्दे को एक निर्णायक मोड़ पर पहुंचाएगी लेकिन सरकार की नीति में एकतरफा सिक्योरिटी फोर्स अप्रोच ही दिखा और आज कश्मीर फिर से अशांत हो उठा है। युद्ध और सुरक्षा दबाव अकेले इसका समाधान नहीं कर सकती। भारत, पाकिस्तान को पहले ही कितनी बार युद्ध में हरा चुका है और मोदी सरकार भी कश्मीर में एकतरफा नीति का परिणाम सकारात्मक नहीं है यह देख चुकी है।

मोदी सरकार में लोकतांत्रिक एवं सांविधानिक संस्थाएँ भी दबाव में रहीं। सुप्रीम कोर्ट के जजों ने पहली बार प्रेस कांफ्रेंस की और अपना विरोध मुख्य न्यायाधीश के प्रति जताया। इस विरोध के पीछे जो केस था वह जज लोया केस था। जज लोया सोहराबुद्दीन फेक एनकाउंटर केस को देख रहे थे, जब वे मृत पाए गए थे। सबरीमाला मंदिर केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट ही निर्देश दिया था कि किसी भी उम्र की महिला मंदिर में प्रवेश कर सकती है लेकिन फिर भी भाजपा केरल में इस भावना के विरुद्ध लामबंद रही। विश्वविद्यालयों पर वैचारिक आक्रमण किए गए, उनकी स्वायत्तता को परे करते हुए एच आर डी मिनिस्ट्री की तरफ से गाईडलाइन आयी कि अब पीएचडी केवल ‘नेशनल रिलेवेंट टॉपिक’ पर ही करवायी जाय।

संसद के कई बिल जैसे आधार बिल और इलेक्टोरल बॉन्ड बिल को मनी बिल व फाइनेंस बिल बताकर लोकसभा से ही पास कराया गया और उसे राज्य सभा तक पहुँचने ही नहीं दिया गया क्योंकि वहाँ भाजपा का बहुमत नहीं था। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप हुआ तो ओर्डिनेंस रूट अपनाया गया। इस नए बहुमत के साथ अगले साल अप्रैल तक संभवतः भाजपा को राज्य सभा में भी बहुमत मिलने की उम्मीद है, आप कल्पना करिए फिर कितनी गुंजायश बचेगी बहस की।

सबसे इंट्रेस्टिंग रहा इलेक्टोरल बॉन्ड का मामला। इसमें राजनीतिक दलों को कितना भी चंदा दिया जा सकता है और उसपर कंपनी को टैक्स में 80 GGB के तहत 100% छूट भी मिलेगी और दान दाताओं को अपना नाम भी सार्वजानिक नहीं करना होगा। आरटीआई यहाँ भी बेबस रही। पूरी दुनिया में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इसपर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने कहा था कि इससे तो काला धन, सफेद किया जा सकता है।

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पूरी आशा से यह फिर भी लिखना चाहता हूँ कि नई मोदी सरकार यह अवसर नहीं गंवायेगी और भारत को उसका वाजिब स्थान दिलायेगी।

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