Sunday - 7 January 2024 - 6:17 AM

चुनौतियों से आता है जीवन में निखार

डा.रवीन्द्र अरजरिया

चुनौतियों का सामना करना मानवीय काया की प्रकृति है। जीवन के पहले दिन से ही नवजात को अनजानी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु चुनौती से गुजरना पडता है। अज्ञानी शरीर का मस्तिष्क प्रत्येक नई वस्तु, घटना और कृत्य को आश्चर्यचकित होकर देखता है। उसे समझने की चुनौती से गुजरना पडता है। ऐसा रोज घटित होता है हम सब के साथ। जिस कारक के बारे में हमें पता नहीं है वह हमारे लिए जिग्यासा पैदा करने का कारण बनता है।

यही जिग्यासा अपने समाधान की चुनौती प्रस्तुत करती है। एक का समाधान होते ही दूसरी तैयार हो जाती है। यह स्वनियंत्रित प्रणाली शाश्वत है। सृष्टि से पहले भी थी और बाद में भी रहेगी। चुनौतियों की सार्वभौमिकता को लेकर मंथन चल ही रहा था कि बुंदेलखण्ड के प्रसिद्ध कजली महोत्सव का आमंत्रण लेकर कार्यक्रम को स्थापित करने वाले शरद तिवारी ने हाल में प्रवेश किया। अभिवादन के आदान प्रदान के उपरान्त कुशलक्षेम पूछने-बताने का क्रम चल निकला।

उन्होंने हमसे आयोजन में सक्रिय भागीदारी की अपेक्षा की। आत्मीय आमंत्रण को सहर्ष स्वीकारते हुए हमने अपने मन में चल रहे वैचारिक मंथन से उन्हें अवगत कराया। हमेशा मुस्कुराहट बिखेरते रहने वाला चेहरा गम्भीर हो गया। सोच की मुद्रा ने आकार ले लिया। अंतरिक्ष में कुछ खोजने के बाद उन्होंने कहा कि चुनौतियों के बिना जीवन की कल्पना ही बेमानी है। चुनौतियों से आता है जीवन में निखार। क्षमताओं में होती है बढोत्तरी। प्रतिभा को मिलता है विकास।

अन्यथा निष्क्रियता तो सुस्ती, आलस्य और अकर्मण्डयता को ही जन्म देगी, जो आगे चलकर निराशा, हताशा और कुंठा में परिवर्तित होगी। दार्शनिक व्याख्या लम्बी होती देखकर हमने उनसे व्यवहारिकता में उतरने को कहा। आल्हा महोत्सव के प्रारम्भिक काल का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि यूं तो आल्हा परिषद ने सन् 1978 से कार्य करना प्रारम्भ कर दिया था, जब महोत्सव के नाम पर पानी और गैस वाले गुब्बारे, रैंचकुआ और हिडोला जैसे झूले, मिठाई के नाम पर तेल वाली बंदी के लड्डू, चंग और चिलम के फट्टा जैसी दुकानें ही क्षेत्रीय भीड के आकर्षण का केन्द्र हुआ करतीं थीं।

प्रमाणित इतिहास के स्थान पर किवदंतियों का चलन था। क्षेत्र की सांस्कृतिक प्रतिभाओं का शोषण चरम सीमा पर था। वैभवशाली विरासत अपने अस्तित्व की लडाई लड रही थी। तब हमारे पितामह बैजनाथ तिवारी ने हम और हमारे जैसी विचारधारा के लोगों को जन्मभूमि के अतीत को संवारने का आदेश दिया। हम सब ने मिलकर आल्हा परिषद के नाम से संस्था का गठन किया और कूद पडे कथित आधुनिकता ओठकर इठलाने वालों के साथ जंग करने।

वह एक चुनौती थी पुरातन संस्कार और संस्कृति को बचाने की। हमने सामूहिक रूप से उसे स्वीकारा और आज कजली महोत्सव को देश की सीमा से पार भी पहुंचा दिया। महोत्सव में विदेशियों की भागीदारी इसका जीवन्त उदाहरण है। शब्दों के साथ उनका चेहरा भी सपाट होता जा रहा था। संघर्ष के कथानक मंच के बिना ही अभिनीत होने लगे थे। आवेश का ज्वार सिर चढकर बोल रहा था। वे एक क्षण के लिए शांत हुए। वातावरण में नीरव शांति उत्पन्न हो गई।

चुनौतियों से सफलता का मूल मंत्र जानने की गरज से हमने उनके मस्तिष्क में हौले से हलचल पैदा की। अतीत की स्मृतियों से बाहर आते हुए उन्होंने कहा कि चुनौतियां ही वह भट्टी है जहां प्रतिभा का सोना निखरकर कुंदन बनता है। जीवन में समस्याओं का झंझावात जितना सघन होगा, सफलता का प्रतिशत भी उतना ही अधिक होगा। इस तरह के सूत्रों को हमें स्वीकारना ही पडा है।

यही वो अनुभव जिसे हमने जिया और आत्मसात किया। चर्चा चल ही रही थी कि चाय के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। निरंतरता में व्यवधान उत्पन्न हुआ परन्तु तब तक हमें अपने वैचारिक मंथन को दिशा देने के लिए पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो चुकी थी। सो चाय के बुलावे को सम्मान देने के लिए हमने अपने को प्रस्तुत कर दिया। इस बार बस इतना ही।

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