प्रो. अशोक कुमार
प्राचीन काल में भारत विश्व गुरु माना जाता था। धीरे-धीरे यह शब्द लुप्त होता चला गया लेकिन कुछ वर्ष पूर्व एक बार पुन: भारत विश्व गुरु की ओर अग्रसर है, यह समाचार आने लगा, इतना सुनने के बाद मेरा मन आत्म विभोर हो गया।
मैंने भी शिक्षा के क्षेत्र में विश्व गुरु के बारे मे अध्ययन करना शुरू किया। मन बहुत ही प्रसन्न हुआ जब यह सुना की नई शिक्षा नीति आ गई है और इस नीति में विद्यार्थी जब आए, जब चला जाए, वह चाहे तो आए या नहीं आए।
वह 1 साल के लिए आए तो उसको सर्टिफिकेट मिलेगा 2 साल के लिए आए उसको डिप्लोमा मिलेगा और यदि 3 साल के लिए आ जाता है तो उसको डिग्री भी मिल जाएगी और इतना ही नहीं 1 साल के बाद वह 5 वर्षों तक नहीं आए तो भी कोई बात नहीं, उसकी जब इच्छा हो, जब मन चाहे तब वह सेकंड ईयर की क्लास शुरू कर दे और दोबारा महाविद्यालय और विश्वविद्यालय से जुड़ जाए ।
मैं समझता हूं यह विश्व गुरु की ओर पहला कदम माना जाना चाहिए। वर्तमान मे विद्यार्थी जब भी किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में किसी कोर्स के लिए आवेदन करता है , तब वो कभी नहीं पूछता है कि मैं जिस कक्षा में प्रवेश ले रहा हूं उसमें क्या सिलेबस है, उसमें क्या पढ़ाया जाएगा।
वह तो सिर्फ परीक्षा के समय महाविद्यालय विश्वविद्यालय में परीक्षा देने आता है क्योंकि हमने सुनिश्चित कर रखा है कि कोई भी विद्यार्थी परीक्षा में फेल नहीं होगा। यह अपने आप में एक ऐसी सुविधा है जो मैं समझता हूं विश्व भर में कहीं नहीं पाई जाती होगी।
आज के विश्वविद्यालय, महाविद्यालय में कागजों मे कक्षाएं जुलाई से शुरू हो जाती हैं लेकिन विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम सितंबर या अक्टूबर के माह में मिलता है और सेमेस्टर प्रणाली होने के कारण परीक्षाएँ समय पर हो जाती हैं। नई शिक्षा नीति के अनुसार कोई भी विद्यार्थी फेल नहीं होता।
नई शिक्षा नीति अपने आप मे महान है – विद्यार्थीयो के लिए अब छूट है कि वह कोई भी विषय ले। विज्ञान के साथ संगीत, संगीत के साथ नृत्य।
कौशल विकास की भी छूट है जो वह ले सकता है और सबसे जो गजब की बात है यह की इन सब की विषयों के लिए उनको शिक्षक नहीं मिलेगा। उद्देश यह है कि हम विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं ,स्वावलंबी बनाना चाहते हैं। बाजार में छात्रों के कौशल विकास के लिए बहुत से सहायता केंद्र बन गए हैं जो की महाविद्यालय और विश्वविद्यालय के छात्रों को बना बनाया प्रोजेक्ट दे देते हैं और वह प्रोजेक्ट वह अपने महाविद्यालय विश्वविद्यालय में जमा कर देता है ! यह एक अच्छी बात है।
मैंने एक नेता से पूछा की विज्ञान का छात्र कला और विज्ञान दोनों विषय ले सकता है तब वह इन दोनों विभिन्न विषयों पर परीक्षा की तैयारी कैसे कर सकता है।
नेता जी ने बताया कि हमारी नई शिक्षा नीति में प्रश्न पत्र 100 अंकों का होता है और इस 100 अंक में 20 अंक आंतरिक परीक्षा के होते हैं और मुख्य परीक्षा पत्र 80 नंबर के परीक्षा पत्र से किया जाता है।
प्रश्नपत्र मे 15 से 20 अंक के प्रश्नवस्तुनिष्ठ ( ऑब्जेक्टिव ) टाइप के बहुविकल्पी (मल्टीपल चॉइस ) पर आधारित होते हैं। इस कारण से हम सभी परीक्षक विद्यार्थियों को आंतरिक परीक्षा में 20 नंबर दे देते हैं और ऑब्जेक्टिव प्रश्न पत्र में 15 से 20 अंक का तो हम उनको परीक्षा कक्षा में बोलकर उत्तर लिखवा देते हैं।
इस प्रकार से 100 में से 35 नंबर तो उनको परीक्षा में अवश्य मिल जाते हैं जो कि किसी भी परीक्षा को पास करने के लिए आवश्यक है।
यह नई शिक्षा नीति विद्यार्थियों को एक विश्वास दिलाना चाहती है कि कोई भी विद्यार्थी इस परीक्षा प्रणाली में फेल नहीं हो सकता।
इसलिए विद्यार्थी हित मे प्रश्नपत्र वस्तुनिष्ठ ( ऑब्जेक्टिव ) टाइप के बहुविकल्पी (मल्टीपल चॉइस ) पर आधारित ही होने चाहिए। ऑब्जेक्टिव प्रश्नकी आदत तो इतनी ज्यादा हो गई है – यदि किसी से उसके पिता का नाम पूछो तो वह पहले 4 विकल्प मांगता है।
विगत कुछ दिनों में मित्रों ने विश्वविद्यालयों / महाविद्यालयों में वर्तमान प्रायोगिक परीक्षा के अपने अनुभव सुनाये। सुनकर बहुत सुखद आश्चर्य हुआ कि कई विद्यार्थियों ने परीक्षक के सवालों का जवाब न दे पाने पर कहा कि वह पहली बार कक्षा में उपस्थिति हुए हैं । हमको विषय के बारे में जानकारी नहीं है ।
एक विद्यार्थी ने कहा कि उसका विषय तो गणित था उसे परीक्षा के दिन ही मालूम चला कि उसके प्रवेश पत्र एवं प्रवेश फार्म में प्राणी शास्त्र लिखा था-ग़ज़ब ।
एक शारीरिक शिक्षा के शिक्षक ने परीक्षार्थियों के सामने एक बास्केटबाल , एक क्रिकेट की गेंद और एक टैनिस की गेंद रखी और पूछा कि यह गेंदे किन किन खेलों में खेली जाती है ? जबाब मिला – पुरुष , महिला और टैनिस की गेंद छोटे बच्चों के खेल के लिये ।
गजब तो तब हुआ जब कुछ ही दिन पहले एक वनस्पति शास्त्र की अध्यापिका ने मुझे बताया कि प्रायोगिक परीक्षा में उन्होंने वनस्पति शास्त्र की एक पौधे के अंडाकार की स्लाइड रखी थी जिसको वनस्पति शास्त्र के विद्यार्थी ने लिखा यह मुर्गी का अंडा है। किसी विद्यार्थी का इतना ज्ञान होना जो की वनस्पति शास्त्र के विषय में प्राणी शस्त्र खोज ले यह वास्तव में बहुत ही प्रशंसनीय है ! विश्व गुरु होने का अनुभव तो तब हुआ जब विश्वविद्यालय/ महाविद्यालयों के शिक्षकों ने ऐसे विद्यार्थियों को 80-90% अंक देने को कहा।
हमारे छात्र कितने आशावादी भी हैं । यह तब मालूम चला जबकि एक प्रायोगिक परीक्षा में मैंने एक विद्यार्थी से एस्केरिस के बारे में पूछा ! एस्केरिस एक परजीवी है जो मनुष्य की आंतों में रहता है।
विद्यार्थी से पूछा कि एस्केरिस कहां पाया जाता है : मीठे पानी या समुद्री पानी में ? विद्यार्थी बड़े संकोच के बाद बोला समुद्री पानी मे ! कभी कभी मीठे पानी मे भी पाया जाता है।
आशावादी विद्यार्थी इसके अतिरिक्त भी कहा की यदि हम कोशिश करें तो यह नाले में भी मिल सकता है! यह उसकी आशावादी सोच को दर्शाता है। आपको हमेशा आशा रखनी चाहिए।
ढूंढने पर तो भगवान भी मिल सकते हैं। मेरे एक मित्र के पास एक महाविद्यालय में प्रयोगिक की परीक्षा के लिए निमंत्रण आया। उन्होंने महाविद्यालय के शिक्षक से कहा कि मैंने सुना है कि आपके महाविद्यालय में प्राणी शास्त्र का तो कोई शिक्षक ही नहीं है, प्राणी शास्त्र की तो कोई प्रयोगशाला ही नहीं है तो फिर आप किस प्रकार से विद्यार्थियों को प्रयोग करवाते हैं।
उन्होंने बड़े ही आसान तरीके से कहा कि गुरु जी हमारे विद्यार्थी बहुत होशियार हैं और पिछले 5 वर्ष से विद्यार्थी को प्रयोगात्मक परीक्षा में 80 से 90% अंक भी मिलते हैं। हमारे कुछ राज्यों ने कुलपति का नाम भी बादल दिया।
अब कुलपति को कुलगुरु कहा जाएगा। जब देश के सभी विश्वविद्यालय के मुखिया का नाम कुलपति की जगह कुलगुरु हो जाएगा तब हमें अपने आप को विश्व गुरु कहने मे बहुत ही सहजता होगी।
अब तो शहरों के नाम के आगे भी गुरु नाम लगने लगा है । आपने देखा होगा कि विगत वर्षों में गुड़गांव का नाम अब गुरुग्राम हो गया है। हो सकता है कि अन्य शहरों के नाम के आगे भी गुरु शब्द का प्रयोग किया जाए।
पूर्व कुलपति कानपुर, गोरखपुर विश्वविद्यालय , विभागाध्यक्ष राजस्थान विश्वविद्यालय