Sunday - 7 January 2024 - 6:04 AM

‘नसबंदी’ पर कमलनाथ के इस फरमान ने दिलाई आपातकाल की याद

न्यूज डेस्क 

अक्‍सर चुनाव के दौरान गैर कांग्रेस दल इमरजेंसी के नाम के जिन्‍न को याद करते हैं व हर तरफ इसकी चर्चा करने लगते हैं और कांग्रेस इस जिन्‍न से बैकफूट पर आ जाती है। इमरजेंसी के दौरान तत्‍कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के द्वारा नसबंदी पर दिए गए फैसले को सबसे गलत फैसला बताया जाता है।  21 महीने बाद जब आपातकाल खत्म हुआ तो सरकार के इसी फैसले की आलोचना सबसे ज्यादा हुई। इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी का यह अभियान आपातकाल का सबसे दमनकारी अभियान साबित हुआ और अभी भी इस अभियान के नाम से लोग सिहर जाते हैं।

संजय गांधी बेहद करीबी लोगों में से एक और अब मध्‍य प्रदेश में कांग्रेस सरकार के मुखिया कमलनाथ ने इस दमनकारी अभियान की याद एक बार फिर से ताजा कर दी है। सीएम कमलनाथ ने परिवार नियोजन कार्यक्रम में पुरुषों की भागीदारी बढ़ाने की दिशा में कदम उठाते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने मेल मल्टी पर्पस हेल्थ वर्कर (MPHWs) को एक अजीबो-गरीब आदेश दिया है।

इस आदेश में कहा गया है कि जो भी हेल्थ वर्कर 2019-20 में नसबंदी के लिए एक भी आदमी को जुटाने में विफल रहे, उनका वेतन वापस लिया जाए और उन्हें अनिवार्य सेवानिवृत्त दे दी जाए। सर्कुलर में कहा गया है कि सभी एमपीएचडब्ल्यू को जिलों में शिविर आयोजित करने पर कम से कम पांच से 10 “इच्छुक लाभार्थियों” को जुटाना चाहिए।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -4 की रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य में केवल 0.5 प्रतिशत पुरुषों ने ही नसबंदी करवाया है।

इसी रिपोर्ट का हवाला देते हुए राज्य के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) ने शीर्ष जिला अधिकारियों, मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारियों (सीएचएमओ) से ‘जीरो वर्क आउटपुट’ देने वाले पुरुष स्वास्थ्य कर्मचारियों की पहचान करने को और ‘नो वर्क नो पे’ सिद्धांत लागू करने को कहा है। साथ ही मिशन यह भी कहा कि अगले महीने (2019-20 साल) के दौरान एक भी पुरुष नसबंदी नहीं करवाने वाले कर्मचारियों के खिलाफ यह सख्त कदम उठाए जाएं।

11 फरवरी राज्य के एनएचएम मिशन निदेशक द्वारा जारी सर्कुलर में कहा गया है कि अगर स्थिति में सुधार नहीं होता है, तो एमपीएचडब्ल्यू की अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सिफारिश करने वाले प्रस्तावों को जिला कलेक्टरों के माध्यम से भोपाल में एनएचएम मुख्यालय भेजा जाएगा।  यहां से इसे आगे की कार्रवाई के लिए स्वास्थ्य निदेशालय भेजा जाएगा।

बता दें कि पिछले पांच वर्षों में राज्य में नसबंदी कराने वाले पुरुषों की संख्या लगातार घट रही है। 20 फरवरी 2020 तक 2019-20 साल में सिर्फ 3,397 पुरुषों की नसबंदी हुई। वहीं इस दौरान महिलाओं की संख्या 3.34 लाख रही। साल 2015-16 में 9,957 पुरुषों की नसबंदी हुई थी। वहीं इसके बाद 2016-17 में यह संख्या 7270, 2017-18 में 3,719 और 2018-19 में 2925 रही।

एनएचएम की उप निदेशक डॉ. प्रज्ञा तिवारी के अनुसार, परिवार नियोजन कार्यक्रम में पुरुषों की “लगभग कोई भागीदारी नहीं” है। उन्होंने कहा, “हम यह नहीं कह रहे हैं कि आप पुरुषों की नसबंदी के लिए जबरदस्ती करें। हम चाहते हैं कि वे लोगों को प्रेरित करें। ऐसे कई लोग हैं जो अपने परिवार को सीमित करना चाहते हैं लेकिन उनमें जागरूकता की कमी है। यह उनका काम है। यदि आप पूरे एक वर्ष में एक भी व्यक्ति को प्रेरित नहीं कर सकते हैं तो यह आपकी कार्य के प्रति लापरवाही को दर्शाता है। ऐसे में करदाताओं के पैसे को वेतन पर खर्च करने का क्या फायदा?”

तिवारी ने कहा कि सहायक नर्स दाइयों (एएनएम) के विपरीत एमपीएचडब्ल्यू की निगरानी तब तक नहीं थी जब तक कि उन्होंने पिछले साल अक्टूबर में परिवार नियोजन कार्यक्रम का प्रभार लेने के बाद “अच्छे से निगरानी” शुरू नहीं की। जो अच्छा करते हैं, उन्हें पुरस्कृत किया जाता है।

वहीं दूसरी ओर विपक्ष कमलनाथ के इस फैसले को आपातकाल से जोड़कर सरकार पर हमलावर है। 25 जून 1975 की तारीख को देश में आपातकाल लागू किया गया था। इस फैसले के बाद जनता के अधिकार छीने जा चुके थे और तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने जबरजस्‍ती नसबंदी कराने आदेश देकर घर-घर में दहशत फैलाने का काम किया। उस दौरान गली-मोहल्लों में सिर्फ एक ही फैसले की चर्चा सबसे ज्यादा थी और वह थी नसबंदी। यह फैसला आपातकाल का सबसे दमनकारी अभियान साबित हुआ।

नसबंदी का फैसला इंदिरा सरकार ने जरूर लिया था लेकिन इसे लागू कराने का जिम्मा उनके छोटे बेटे संजय गांधी को दिया गया। इस दौरान घरों में घुसकर, बसों से उतारकर और लोभ-लालच देकर लोगों की नसबंदी की गई।

एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ एक साल के भीतर देशभर में 60 लाख से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गई। इनमें 16 साल के किशोर से लेकर 70 साल के बुजुर्ग तक शामिल थे। यही नहीं गलत ऑपरेशन और इलाज में लापरवाही की वजह से करीब दो हजार लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी। संजय गांधी का ये मिशन जर्मनी में हिटलर के नसंबदी अभियान से भी ज्यादा कड़ा था जिसमें करीब 4 लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी।

संजय इस फैसले को युद्ध स्तर पर लागू कराना चाहते थे। सभी सरकारी महकमों को साफ आदेश था कि नसंबदी के लिए तय लक्ष्य को वह वक्त पर पूरा करें, नहीं तो तनख्वाह रोककर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। इस काम की रिपोर्ट सीधे मुख्यमंत्री दफ्तर को भेजने तक के निर्देश दिए गए थे। साथ ही अभियान से जुड़ी हर बड़ी अपडेट पर संजय गांधी खुद नजरें गड़ाए हुए थे। ऐसी सख्ती से लेट-लतीफ कही जाने वाली नौकरशाही के होश उड़ गए और सभी को अपनी नौकरी बचाने की पड़ी थी।

 

 

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