Sunday - 14 January 2024 - 9:12 AM

जाट वोट बैंक : अवसरवादी नेतृत्व के चंगुल में कैद!     


राजेंद्र कुमार

जाट पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभुत्व वर्ग है। सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक कारणों से पश्चिमी के आठ जिलों में उनकी समानान्तर सत्ता होती है।  ऊपर से इस बिरादरी के रंग भले ही अलग-अलग दिखें पर अपनी खापों (पंचायतों ) के ये एक दूसरे से बंधे रहतें हैं।

जाट पूरी तरह सम्पन्न हैं। इसलिए हर दम सत्ता और सुविधा की राजनीति करते है। बड़ी जोत के किसान हैं, इसलिए सत्ता प्रतिष्ठान से मेलजोल इन्हें आर्थिक सुरक्षा देता है। प्रतिष्ठान से जुड़ने की ललक इनसे जल्दी जल्दी पाला बदलवाती है। जाट वोट बैंक के संस्थापक चौधरी चरण सिंह ने 11 दफा दलबदल किया। उनके वारिस अजित सिंह ने इस मामले में अपने पिता को भी पीछे छोड़ दिया है।  अजित इस बार वह सपा-बसपा गठबंधन का हिस्सा हैं।

आबादी सिर्फ चार फीसदी पर पश्चिम की करीब 15 लोससभा और 74 विधानसभा सीटों पर जाट खांसे असरदार हैं। कभी इस इलाके में जाट-मुसलमान का गठजोड़ ही चौधरी चरण सिंह के लिए दिल्ली को झकझोड़ता था। परन्तु जब अजित सिंह बीजेपी के साथ हो लिए तो मुसलमान यहां उनसे अलग हो गया। अब अजित फिर सपा-बसपा गठबंधन का हिस्सा बनकर मुसलमान को अपने पाले में लाने की जुगत लगा रहें हैं।

स्वभाव से लड़ाका, आत्मकेन्द्रित राजनीति का माहिर, जिददी, गैर समझौतावादी, यह जाट वोटबैंक मन्दिर और मंडल के बाद बीजेपी का हमराही हुआ था। विचित्र बात यह थी कि जाट मंडल का विरोधी था, लेकिन अपने लिए आरक्षण चाहता था।

जब-जब किसी सरकार से इस वोट बैंक की पटरी नहीं बैठी तो इसने अपने सामाजिक संस्थानों (पंचायतों ) के जरिये सरकार से लोहा लिया। तंत्र पर हमला बोला। बहाना बिजली का हो या पानी का अथवा गन्ने के दाम का हो या हाई कोर्ट बैंच की स्थापना हो या फिर कोई अन्य मसला। मकसद सरकार को ताकत दिखाना होता है। जाट पंचायतों की इसी ताकत का प्रतीक बने महेंद्र सिंह टिकैत।

दलित यहां वोट नहीं डाल पाते थे

इस बाहुबली समाज के चलते दलित यहां वोट नहीं डाल पाते थे। जाट-जाटव संघर्ष इसी का नतीजा था। जाट राजनीति में चौधरी के बाद नेतृत्व का आभाव बना रहा। इस कुंठा में जाट कभी अजित सिंह को पकड़ता है तो कभी महेंद्र सिंह टिकैत के परिवार को। या कभी बीजेपी की लहर में बहता है तो कभी मोदी की लहर में। यह समाज कभी पृथक हरित प्रदेश और पश्चिम में हाई कोर्ट की खण्डपीठ की स्थापना को लेकर भी एक जुट हो चुका है पर आज उसे ये मुददे उसे शूट नहीं करते।

1967 के पहले तक जाट कांग्रेस के साथ थे

जाट एक जुटता का लाभ बीते करीब पांच साल से बीजेपी को मिलता रहा है। पर बीते साल कैराना में हुए उप चुनावों ने यह दिखाया कि उनका बीजेपी से मोहभंग हो सकता है बशर्ते विपक्ष भी एक जुट हो। जाटों से मिले इस संकेत के बाद ही पहली बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा और रालोद एस गठबंधन के तहत यहां चुनाव लड़ रहें है। कांग्रेस इस गठबंधन का हिस्सा नहीं बन सकी है पर उसने अजित सिंह और उनके पुत्र के खिलाफ प्रत्याशी ना खड़ा करने की घोषणा कर यह जता दिया है कि बीजेपी को हराने के मामले में कांग्रेस भी विपक्ष के साथ है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट राजनीति की बात करें तो 1967 के पहले तक जाट कांग्रेस के साथ थे।

चौधरी चरण सिंह किसान नेता के तौर पर स्वीकृत और सहक शिनाख्त किए जाने वाले नेता थे। 1967 में जब चौधरी चरण सिंह 17 विधायकों के साथ कांग्रेस से निकले तो वह जाटों की नाक बन गए। बस यही से शुरु हुआ जाट वोट बैंक बनने का सिलसिला। चौधरी चरण सिंह के विरोधियों ने उन्हें कुलक राजनीति (बड़े किसानों की राजनीति ) का जनक कहा।

समाजवादी तथा चौधरी चरण सिंह के सहयोगी राजेन्द्र चौधरी कहते हैं ये सब झूठ है। अगर ऐसा होता तो चौधरी चरण सिंह राजस्व मंत्री के रूप में जमीदारी विनाश कानून क्यों लाते? सीवी गुप्ता से उनका झगड़ा ही किसानों को लेकर हुआ था। क्योकि गुप्ता जी व्यापारी हितों की बात करते थे। चौधरी चरण सिंह इस मर्म को जानते थे कि जाट राजनीति अकेले नहीं चल सकती। इसलिए मध्य उत्तर प्रदेश का कुर्मी, पूर्वी उप्र का यादव भी उनके साथ था। परन्तु अजित सिंह ने अपनी अतिमहत्वकांक्षा  में इस वोटबैंक को खंड-खंड कर दिया। नुकसान उन्हें ही हुआ। वे महज कुछ जिलों के नेता बनकर  रह गए।

चौधरी चरण सिंह दरअसल किसान नेता थे। उन्हें जाट नेता कहना उन्हें का आंकना होगा। 1967 से चला जाट-जाटव गठजोड़ 1987 तक चला।  चौधरी चरण सिंह की मौत के बाद 1987 में  लोकदल के भीतर विरासत का झगड़ा उठा। लोकदल (अ) और लोकदल (ब) बना। अजित सिंह के साथ जाट चला गया और लोकदल (ब) में मुलायम सिंह के साथ यादव। यही से जाटों और यादवों के बीच जो अदावत शुरु हुई वह आज तक जारी है।

चौधरी चरण सिंह

पश्चिमी यूपी के राजनीतिक इतिहास के अनुसार जाट स्वाभिमान जगने के बाद 1969 के विधान सभा चुनावों में इस जाट बाहुल्य इलाके में  चौधरी चरण सिंह 33 सीटें मिली।

1974 में  चौधरी साहब के भारतीय क्रांति दल ने फिर 31 सीटें जीती। 1977 में तो  चौधरी साहब ने यहां सबका सूपड़ा ही साफ कर दिया। 1980 में फिर जनता पार्टी (चरण) ने यहां की 74 सीटों में से 22 सीटों पर कब्जा बरकरार रखा। 1985 के विधानसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की मौत से उपजी सहानुभूति के बावजूद यहां चरण सिंह की धमक बनी रही। 74 में से 29 सीटों पर चरण सिंह का दल जीता।

चरण सिंह यहां मुसलमानों को अच्छी तादाद में टिकट देते थे। मध्य और पूर्वी में वह राजनीति पिछड़ों के बल पर करते थे. यही उनकी ताकत थी। 1989 का चुनाव चौधरी साहब की मौत तथा अजित सिंह के उदय के बाद का पहला चुनाव था। वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल चुनाव लड़ा। 70 सीटों में से 50 सीटों पर जनता दल को जीत मिली।

इसके बाद शुरु हुआ अजित सिंह का राजनीतिक सफर। वो जाटों की राजनीति के बदले सत्ता प्रतिष्ठान की राजनीति करने लगे। कांग्रेस में गए, फिर बाहर आए, नई पार्टी बनायी। कुछ दिए बाद पुरानी पार्टी जीवित की। चौधरी चरण सिंह के बाद जाट स्वाभवत: गैर कांग्रेसी हो गए थे, इसलिए अजित के कांग्रेस में जाते ही उनका वोट आधार छिनना शुरु हुआ।

पहले अजित सिंह ने पिता का वोट आधार खोया, फिर पुराने सहयोगी खोये। उधर मुलायम सिंह सत्ता के केंद्र में थे. दो बार मुलायम मुख्यमंत्री बने, फिर मायावती मुख्यमंत्री बनी पर दोनों ने कोई जाट कैबिनेट में नहीं रखा। जाटों पर इसका असर हुआ।

महेंद्र सिंह टिकैत ने कुंठा को अभिव्यकित दी, पर राजनीतिक रूप से जाटों का अजित की ओर जाट वोट बैंक की मजबूरी थी। क्योंकि अजित ही जाटों को राष्ट्रीय पहचान दिलवा पा रहे थे।

जाट राजनीति को लेकर राजनीतिक समीक्षक़ बताते है कि पश्चिमी यूपी में जाटों के प्रभाव वाली करीब 15 लोससभा और 74 विधानसभा  सीटें है। मंडल, मन्दिर और 2014 तथा 2017 की मोदी लहर में जाट यहां बीजेपी के साथ खड़ा हुआ था। 1991 में बीजेपी ने यहां जो पैर जमाए वह अभी उखड़े नहीं है। इसके पहले यहां चौधरी चरण सिंह और फिर 1988 के बार अजित सिंह इस वोट आधार के अजेय नेता थे। उन्हें कमजोर करने की कुछ कोशिश महेंद्र सिंह टिकैत ने अंजाने में की। जिसके चलते नब्बे के दशक में बागपत से चुनाव हार गए। इस हार ने जाट समाज को महेंद्र सिंह टिकैत और अजित सिंह में क्या फर्क है यह समझा दिया।

जाट समाज को समझ में आ गया कि महेंद्र सिंह टिकैत पश्चिमी यूपी में जाटों को राजनीतिक पहचान देने में सक्षम नहीं थे, इसलिए जाटों ने फिर अजित पर ध्यान जमाया है। परन्तु मोदी लहर ने पश्चिमी यूपी में फिर जाट-जाटव-मुस्लिम गठजोड़ में सेंध लगा दी। जिसे अब अजित सिंह सपा-बसपा के साथ गठबंधन कर चुनौती दे रहे हैं। यही वजह है कि वर्षों बाद पश्चिमी यूपी की हर सीट पर कांटे का मुकाबला हो रहा है। बीजेपी को हर सीट पर किसानों की नाराजगी से जूझना पड़ रहा है। अब देखना यह है कि पश्चिमी यूपी का जाट वोट बैंक इस बार किसके पक्ष में अपना निर्णय सुनाएगा?

जाट समुदाय के असर वाले इलाके

मेरठ, मुजफ्फरनगर, बुलन्दशहर, गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, बिजनौर, मुरादाबाद, मथुरा, आगरा, अलीगढ़, सहारनपुर, बरेली और रामपुर.

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