Wednesday - 9 July 2025 - 2:31 PM

ओली के हवा हवाई दावे से भारत का बेफिक्र रहना ही अच्छा


यशोदा श्रीवास्तव

नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली की छवि भारत विरोधी की है,यह बात छिपी नहीं है लेकिन वे खुल्लम खुल्ला भारत को चुनौती देने की अपनी आदतों से बाज नहीं आ रहे,यह हैरान करने वाली बात है। वे कभी भारत के खिलाफ तीसरे देश के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं तो कभी भारतीय भू क्षेत्र पर अपना दावा ठोक कर भारत को आंख दिखाते हैं। हद तो यह हो गई कि ओली अब भगवान राम के जन्म स्थान तक को नेपाल में होने का दावा कर रहे हैं। ओली के बे सिर पैर के दावे पर नेपाल के ही एक टिप्पणी कार ने कहा इस पर गौर कर दिमाग खपाने से बेहतर है कि भारत बेफिक्र ही रहे।

ओली के इस तरह अनाप-शनाप बकवास के पीछे का एक सच यह है कि वे नेपाल की राजनीति में निष्प्रयोज्य होते जा रहे हैं। अभी वे गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री हैं। और उस दल के(नेपाली कांग्रेस) गठबंधन में हैं जो अपेक्षाकृत हिंदूवादी है और उसके भारत के हिंदुवादी नेताओं से अच्छे संबंध है। ऐसे में ओली को यह डर सताता रहता है कि भारत अपने समर्थक दल नेपाली कांग्रेस का पेंच जरा सा भी कस दिया तो उनकी कुर्सी गई।

इस डर के बीच ओली नेपाल की राजनीति में कम्युनिस्ट होते हुए ही हिंदुत्व कार्ड खेलने की रणनीति पर तेजी से काम शुरू कर दिए हैं। जाहिर है भगवान राम भारत और नेपाल में समान रूप से सर्वमान्य और पूज्यनीय हैं। भगवान राम का ससुराल जनकपुर में है जो नेपाल में स्थित है। यह माता सीता का मायका है। इस रिश्ते की वजह से ही भारत और नेपाल के बीच रोटी बेटी जैसे संबंध को प्रगाढ़ता मिली है जो आज भी कायम है।

नेपाल में इन दिनों राज संस्था और हिंदू राष्ट्र की मांग जोर शोर से चल रही है। आने वाले चुनाव में नेपाल में दो ही मुद्दे हावी रहेंगे। एक गणतंत्र और धर्मनिरपेक्ष दूसरे राजशाही और हिन्दू राष्ट्र! ओली संभावित राजनीति की इस धारा को बखूबी समझ रहे हैं और इससे भयभीत भी हैं। यही वजह है कि वे कभी देश भक्ति का कार्ड खेलते हैं तो कभी हिंदुत्व का।
इस बार हिंदुत्व का कार्ड खेलते हुए ओली ने भगवान राम के नेपाल में जन्मने का राग अलापना शुरू किया है। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) के केंद्रीय पर्यटन विभाग द्वारा आयोजित कार्यक्रम में ओली ने स्पष्ट लहजे में कहा कि “प्रभु राम का जन्म नेपाल में ही हुआ है”यह सच्चाई कहने में किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने कहा कि नेपाल के चितवन जिले के माड़ी में ही प्रभु श्री राम का जन्म हुआ है। वह पवित्र स्थल राम की जन्मस्थली है।

प्रधानमंत्री ओली आगे कहते हैं कि “हम पर्यटन की बातें करते हैं, लेकिन राम नेपाल में जन्मे थे—यह बात कोई और कहे,यह कब तब चलेगा? केवल कथाएं बना कर किसी और स्थान को जन्मभूमि बताना कहां तक उचित है?”ओली का इशारा साफ तौर पर भारत की ओर है।उन्होंने कहा, “राम के जन्म के वक्त नेपाल राज्य की क्या सीमाएं थीं, क्या प्रशासन था, वह अलग बात है। शायद वहां थारू समुदाय का गांव रहा होगा, लेकिन आज वह भूभाग नेपाल में ही है। इसलिए सच कहने में हिचक क्यों?”प्रधानमंत्री ओली ने स्पष्ट किया कि किसी को यह बात बुरी लग सकती है, इससे डर कर सत्य बोलने से नहीं रुकना चाहिए। उन्होंने कहा, “राम भगवान हैं या नहीं, यह हर किसी का व्यक्तिगत विश्वास है, लेकिन जो लोग भगवान राम को मानते हैं, उनके लिए राम की जन्मभूमि एक पवित्र स्थल है। ओली ने कहा “अगर सच्चाई बोलने से कोई नाराज़ होता है तो वह होता रहे।

प्रधानमंत्री ओली ने यह भी दावा किया कि भगवान शिव, ऋषि विश्वामित्र और कौशिक ऋषि भी नेपाल के ही हैं। उन्होंने कहा, “शिव यहीं के हैं, विश्वामित्र यहीं के हैं। यह रामायण में खुद लिखा है।”प्रधानमंत्री ओली ने कहा कि वाल्मीकि कृत रामायण में उल्लेख है कि विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को कोशी नदी पार करके पश्चिम दिशा में यानी नेपाली भूभाग में ही शिक्षा दी थी। यह रामायण में यह लिखा गया है। वाल्मीकि रामायण में यह वर्णित है कि कोशी नदी पार करके विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को शिक्षा दी। इससे स्पष्ट है कि विश्वामित्र चतरा (नेपाल) के थे।”

इतना ही नहीं उन्होंने नेपाल पर्यटन बोर्ड से कहा कि भगवान राम की जन्मस्थली का डिजिटल माध्यम से प्रचार प्रसार कर अधिक से अधिक विदेशी श्रृद्धालुओं को नेपाल आने के लिए आकर्षित किया जाय। ओली ने कहा कि नेपाल के धार्मिक स्थलों का प्रचार बिल्कुल आधुनिक तरीके से और आक्रामक ढंग से किया जाना सुनिश्चित किया जाए।
प्रधानमंत्री ओली ने स्पष्ट किया कि धर्म में विश्वास करना या न करना हर व्यक्ति का स्वतंत्र अधिकार है, लेकिन भगवान राम नेपाल में जन्मे थे और सीता का निधन भी यहीं हुआ था, जैसी बातों का ग्रंथों में उल्लेख है, इसे पूरी दुनिया में प्रचारित करने से डरने की जरूरत नहीं है।

इसके पहले ओली जब भारत के उत्तराखंड में स्थित काला पानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा नामक पहाड़ी क्षेत्र को अपने भू भाग का हिस्सा बताते हुए भारत पर कब्ज़ा करने का आरोप मढ़ते हैं तो इससे वे खुद को पक्का देशभक्त साबित करने की कोशिश करते हैं।

यह भू क्षेत्र उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जिले का हिस्सा है। दर असल यह भू क्षेत्र भारत, नेपाल और चीन सीमा पर स्थित है जो नेपाल और भारत में बहने वाली काली या महाकाली नदी का उद्गम स्थल है। इस इलाके को काला पानी भी कहते हैं। यहीं पर लिपुलेख दर्रा भी है। यहां से उत्तर-पश्चिम की तरफ कुछ दूरी पर एक और दर्रा है, जिसे लिंपियाधुरा कहते हैं।

1816 में अंग्रेजों और नेपाल के गोरखा राजा के बीच हुए सुगौली समझौते में काली नदी के जरिए भारत और नेपाल के बीच सीमा तय की गई थी। समझौते के तहत काली नदी के पश्चिमी क्षेत्र को भारत का इलाका माना गया, जबकि नदी के पूर्व में पड़ने वाला इलाका नेपाल का हिस्सा माना गया।

काली नदी के उद्गम स्थल को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद रहा है। भारत नदी के पूर्वी धारा को काली नदी का उद्गम मानता है जबकि नेपाल पश्चिमी धारा को काली नदी का उद्गम स्थल मानता है। इसी आधार पर दोनों देश काला पानी के इलाके पर अपना-अपना दावा करते हैं। ये तीनों इलाके 370 वर्ग किमी में फैले हुए हैं। यहां रहने वाले लोगों की नागरिकता भारतीय है।

काला पानी भारत, तिब्बत और नेपाल के बीच ट्राई-जंक्शन पर है। यह क्षेत्र सामरिक तौर पर इतना महत्वपूर्ण है कि यहां से भारत का चीनी सेना पर नजर रखना आसान है।भारत ने पहली बार 1962 के युद्ध में यहां सेना तैनात की थी। अभी भी यहां भारत-तिब्बत सीमा पुलिस तैनात है। लिपुलेख दर्रा उत्तराखंड को तिब्बत से जोड़ता है। भारत से मानसरोवर जाने वाले तीर्थयात्री लिपुलेख दर्रे से होकर गुजरते हैं। 1962 में चीन के हमले के बाद भारत ने लिपुलेख दर्रे को बंद कर दिया था। 2015 में चीन के साथ व्यापार और मानसरोवर यात्रा को सुगम बनाने के लिए इसे दोबारा खोला गया।

मई 2020 में भारत ने कैलाश मानसरोवर यात्रा को सुगम बनाने के लिए पिथौरागढ़ से लिपुलेख दर्रे तक 80 किमी लंबी नई सड़क का उद्घाटन किया था, जिसे लेकर नेपाल ने नाराजगी जताई थी।अंग्रेजों के साथ संधि के करीब 100 साल बाद तक इस इलाके को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ। यहां तक कि भारत ने 1962 में चीनी आक्रमण को रोकने के लिए इस इलाके में अपनी सेना तक तैनात कर दी थी। अभी भी इस इलाके के कई हिस्सों में भारतीय सेना तैनात है। फिर ओली इस दुर्गम इलाके को अपना बताते हैं।

सवाल उठता है कि यदि ऐसे ही हवा हवाई सबूतों के आधार पर किसी भू क्षेत्र अथवा जन्मस्थली पर दावा ठोकना हो तो भारत भी नेपाल के लुंबिनी को अपने देश का हिस्सा कह सकता है। ऐसा कहने के लिए भारत के पास ऐतिहासिक और प्रमाणिक सबूत भी है। लुंबिनी गौतम बुद्ध की जन्मस्थली है और यह नेपाल के विदेशी आय का बड़ा स्रोत भी है। नेपाल सीमा से बिल्कुल सटे भारतीय क्षेत्र में कपिलवस्तु स्थिति है जो गौतम बुद्ध के पिता राजा शुद्धोधन की राजधानी है। गौतमबुद्ध का जन्म यदि ननिहाल में हुआ तो उनका ननिहाल देव दह है जो नेपाल सीमा से सटे भारतीय क्षेत्र में स्थित है। लुंबिनी पर दावा ठोकने का फिलहाल इतना ही सबूत प्रयाप्त है लेकिन लुंबिनी के भारत में होने का सबसे बड़ा और प्रमाणिक सबूत जापान की एक संस्था ने पेश किया है।

हाल ही जापान की एक संस्था ने करीब पांच साल तक लुंबिनी पर किए रिसर्च में लुंबिनी को भारत का हिस्सा बताया है। जापानी संस्था लुंबिनी इंटरनेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट ने गौतम बुद्ध की जन्मस्थली पर रिसर्च के बाद अपनी पुस्तक में बाकायदा नक्शे के साथ इस बात का उल्लेख किया है। जापानी संस्था ने बाकायदा नेपाल सरकार से अनुमति लेकर पांच साल तक इस पर रिसर्च करने के बाद अपनी रिपोर्ट सार्वजनिक की। जापानी संस्था की यह रिपोर्ट लुंबिनी पर अपना दावा ठोकने के लिए एक ठोस सबूत है लेकिन भारत ऐसा कर नेपाल से अपने संबंधों में खटास नहीं लाना चाहता वहीं ओली हैं कि वे भारत को चिढ़ाने से बाज नहीं आते। मजे की बात यह है कि भारत ओली के ऐसे ऊल जलूल हरकतों पर ध्यान तक नहीं देता क्योंकि वह जानता है कि नेपाल की राजनीति नया करवट ले रही है जिसमें फिलहाल ओली किसी भी कोण पर टिकने वाले नहीं हैं।

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