डॉ. वंदना चौबे
जहाँ पूंजीवाद अपने संकट के दौर में बर्बर हमले कर रहा होता है वहीं वह अपने विकासमान काल में सामंती और मध्यवर्गीय विश्वासों का ख़ात्मा करके ख़ुद को क्रांतिकारी ढंग से अनेक स्तरों पर विकसित भी करता है। मुनाफ़े में होड़ उसकी मजबूरी है। वह ख़ुद इस खाई को खोदता ही जाता है।
पूंजीवाद के इस .com वाले तकनीकी दौर में अनेक मार्क्सवादी विचारक भी भ्रामक स्थितियों से गुज़र रहे हैं और प्रैक्टिस से कटे अकादमिक नव-मार्क्सवाद और उत्तर-आधुनिकता का रास्ता ले रहे हैं।
“इस आधे अंधेरे समय में
हत्या और आत्महत्या एक जैसी रख दी गईं है
फर्क़ कर लेना साथी”
(आलोक धन्वा)
अन्याय को सांस्कृतिक और कानूनी जामा पहनाकर न्याय में तब्दील कर देना- स्थितियां इतनी एक जैसी हो रही हैं कि ‘फर्क’ करने की दृष्टि ख़त्म हो रही है।इस तरह स्तालिन और हिटलर को एक ज़मीन पर रखकर लीपापोती करने की साम्राज्यवादी शक्तियों की मुहिम रंग ला रही है।
एक दौर में महा आख्यानों के ख़िलाफ़ खण्ड-खण्ड विभाजित अस्मिताओं की राजनीति को तैयार कर इतिहास, विचारधारा और लेखक आदि हर चीज़ की मौत की घोषणा कर दी गई। सोवियत संघ के विघटन के बाद आए उदारवाद में यह विभाजित मनुष्यता के जश्न का उद्घोष था। यह साबित कर दिया गया कि सत्य/तर्क अनेक हैं और अपनी-अपनी परिस्थिति से हासिल अनुभवजन्य ज्ञान ही सत्य है, अतः सत्य अपने आप में कुछ नहीं है। अर्थात सत्य की कोई वस्तुगत सत्ता नहीं है।
इसी आधार पर उत्पीड़न को भी वस्तुनिष्ठ नहीं, मनोगत साबित किया गया। यानी जो उत्पीड़न को महसूस करता है वह उतना ही है। कोई ज़रूरी नहीं कि शोषण-उत्पीड़न समग्रता में कोई चीज़ हो; और जब सब कुछ खंडित और मनोगत है तो समग्र संघर्ष किस बात का? सबके अपने सत्य! सबका अपना संघर्ष!!
ऐसे समय में साथी वी.के सिंह की किताब ‘ह्यूगो चावेज़ और वेनेज़ुएला की बोलीवरी क्रांति’ हिन्दी जन के लिए ज़रूरी किताब है।
दक्षिणी गोलार्ध के लैटिन अमेरिकी देश उत्तरी अमेरिका जैसे लम्पट साम्राज्यवादी देश की खुली लूट और बर्बरता के ख़िलाफ़ अपने जुझारू संघर्षों से लगातार नाक में दम करते रहे हैं! वे लगातार संघर्ष में रहे हैं! नतीजतन पूंजीवादी मीडिया ने ह्यूगो चावेज़ के ख़िलाफ़ भी न जाने कितने दुष्प्रचार किए और उन्हें तानाशाह और निरंकुश घोषित कर दिया।
फ़िदेल कास्त्रो और चे गुएरा जैसी ही इंकलाबी शख़्सियत ह्यूगो चावेज़ और वेनेज़ुएला की बोलीवरी क्रांति के इतिहास से अवगत होकर हम धरती को बाँटकर लूट खाने वाले खूंखार साम्राज्यवाद का चेहरा ज़्यादा स्पष्टता से देख सकेंगे।
“ऐसा क्या था चावेज़ की शख्सियत में, जिसके चलते एक ओर समूची दुनिया के आम जनों और उनके पक्षधर नेताओं, कार्यकर्ताओं-बुद्धिजीवियों के लिए वह मनुष्य और मनुष्यता के लिए उम्मीद की मशाल थे तो दूसरी और अमेरिका की चौधराहट वाली साम्राज्यवादी विश्व-व्यवस्था के लिए ऐसी नफ़रत बन चुके थे, जैसी पूरी तरह साफ सुथरी पारदर्शी जनतांत्रिक प्रक्रिया से बार-बार चुने जाने वाले किसी और राष्ट्राध्यक्ष के लिए अब तक नहीं देखी-सुनी गई? कौन थे चावेज़? साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजीशाही के ढिंढोरचियों के अनुसार उजड्ड, सनकी, थुलथुल, काले होठों वाला कलुआ गुरिल्ला तानाशाह? या फिर लैटिन अमेरिकी जनता के लिए बोलीवार के सपनों और शौर्य का वारिस, शैतान की आंखों में आंखें डाल कर उसकी हैसियत बताने वाला जनता के जनतंत्र का हठीला साहसी और नई सदी के नए समाज का प्रयोगधर्मी?”
(लेखिका हिंदी विभाग, आर्य महिला, पीजी कॉलेज, (बीएचयू), वाराणसी में सहायक प्रोफेसर है, यह उनके निजी विचार हैं)