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कोरोना की वजह से कहीं हम भूल तो नहीं रहे 23 मार्च

न्यूज़ डेस्क

आज 23 मार्च है। कोरोना की वजह से शायद लोग ये तारीख भूल गये हो। लेकिन हिंदुस्तान के इतिहास में इस तारीख को नहीं भुलाया जा सकता है। आप सोच रहे होंगे ऐसा क्या हुआ था इस तारीख को। चलिए हम आपको याद दिला देते हैं। 23 मार्च का दिन शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।

जी हां वही शहीद दिवस जिस दिन 23 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को ब्रिटिश सरकार ने फांसी दे दी थी। ये फांसी उन्हें इसलिए दी गई थी कि उन्होंने 1928 में लाहौर में एक ब्रिटिश जूनियर पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स की गोली मारकर हत्या कर दी थी।

इसके बाद भारत के तत्कालीन वायसरॉय लार्ड इरविन ने इस मामलें पर मुक़दमे के लिए एक विशेष ट्राईब्यूनल का गठन किया था। इसके बाद तीनों को फांसी की सजा सुनाई गई थी

वैसे तो भारत को आजादी दिलाने में कई क्रांतिकारियों ने अहम योगदान दिया था। लेकिन इन क्रांतिकारियों में सबसे पहले 23 मार्च 1931 को शहीद हुए भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु का नाम जेहन में सबसे पहले आता है।

जब हुई थी फांसी

गौरतलब है कि अंग्रेजों ने इन तीनों को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी। पहले उनकी फांसी के लिए कोर्ट की तरफ से 24 मार्च 1931 का दिन तय किया गया था। लेकिन अंग्रेज सरकार को डर था कि इस दौरान हजारों लोग एकत्रित हो जाएंगे और उन्‍हें रोक पाना मुश्किल होगा। साथ ही फांसी की तारीख का एलान होते ही व्‍यापक स्‍तर पर विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गया था।

इसी वजह से घबराकर अंग्रेज सरकार ने तीनों को एक दिन पहले ही फांसी दे दी। हालांकि भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव ने इसका कोई विरोध नहीं किया था। वो जानते थे कि भारत की जनता में वो लौ जग चुकी है जिसके चलते अंग्रेजों को एक दिन यहां से जाना ही होगा। वो जान गये थे कि उनकी मुहिम एक दिन रंग लाएगी। इसी वजह से तीनो हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए।

असेंबली में बम फेंकने का भी दोषी ठहराया गया

8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंके थे। लेकिन ये बम किसी की जान लेने के मकसद से नहीं फेंके गए थे बल्कि इसका मकसद सोई हुई अंग्रेज सरकार को नींद से जगाना था और बताना था कि उन्‍हें यहां से जाना होगा। घटना के बाद भगत सिंह भागने के बजाय डटे रहे और खुद को अंग्रेजों के हवाले कर दिया। जबकि तीनों इसका अंजाम बखूबी जानते थे।

स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़ कर लिया था हिस्सा

गांधी जी ने 1920 में जब असहयोग आंदोलन शुरू किया, उस समय भगत सिंह मात्र 13 साल के थे। वहीं जब उन्हें 1929 गिरफ्तार किया गया तो 22 वर्ष के। 8 अप्रैल, 1929 को गिरफ्तार होने से पहले उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की प्रत्येक गतिविधि में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार ने भगत सिंह पर गहरा असर डाला था

इसके बाद से ही वे उनके मन में भारत की आजादी की आग जलने लगी थी। उस समय भगत सिंह मात्र 12 वर्ष के थे। इस नरसंहार के दौरान 379 लोगों की मौत हुई थी और 2000 के करीब घायल हुए। हालांकि मृतकों की संख्या 1000 से अधिक बताई जाती है। भगतसिंह महात्मा गांधी का सम्मान तो बहुत करते थे, लेकिन भारत को आजाद कराने के लिए दोनों की विचारधारा बिल्‍कुल अलग थी।

लिया था लाला जी की मौत का बदला

1928 में साइमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन किया जा रहा था। इसके बाद प्रदर्शन कर रहे लोगों पर अंग्रेजों ने जमकर लाठियां बरसाई थीं। अंग्रेजों द्वारा किये गये लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी। इस घटना से आहत भगतसिंह ने इसका बदला लेने की ठानी थी।

17 दिसंबर 1928 को करीब सवा चार बजे, एएसपी सॉण्डर्स के ऑफिस के बाहर भगतसिंह ने अपने चंद्रशेखर आजाद और राजगुरू साथ मिलकर सॉण्डर्स की हत्या कर दी और लाला जी की मौत का बदला लिया।

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