Wednesday - 10 January 2024 - 7:08 AM

बहस के केन्द्र में है गोदी मीडिया

केपी सिंह 

लोक सभा चुनाव के नतीजों के बाद लोकतंत्र का तथाकथित चौथा स्तम्भ पहले स्तम्भ के निशाने पर है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनो ही अपने-अपने तरीके से मीडिया की भूमिका पर उंगली उठाने में लगे है। इस बीच गोदी मीडिया का मुहावरा एक गाली का रूप ले चुका है। यह दूसरी बात है कि मीडिया जगत में आयी इस कर्मनाशा का अवतरण मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के काफी पहले उत्तर प्रदेश में समाजवाद की पुण्य भूमि से हुआ था।

क्यों है मीडिया चौथा स्तम्भ

मीडिया के मौजूदा अंजाम को समझने के पहले इसके गठन की अंतरक्रियायों को जानना होगा। एक समय था जब इंग्लैण्ड में पार्लियामेंट के अंदर की कार्यवाही को छापने के अधिकार के लिए पत्रकारों को जेल जाना पड़ा था। सत्ता अधिष्ठान से टकराकर लोकतंत्र को पूर्णतः प्रदान करने का पश्चिम के पत्रकारों को जो इतिहास है उसी के चलते प्रेस को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का खिताब मिला।

भारत में प्रेस को इस तरह का कोई दर्जा संवैधानिक रूप अभी तक प्राप्त नही है लेकिन लोक मान्यता में यहां भी श्रद्धा प्रदर्शन के बतौर प्रेस को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में नवाजा जाता रहा है। हांलांकि आजाद भारत में प्रेस का शुरूआती दौर सत्ता से मुठभेड़ करने की बजाय उसकी वंदना का नजर आता है।

धर्मयुग जैसी हिन्दी की अति सम्मानित पत्रिका के यशस्वी सम्पादक धर्मवीर भारती इमरजेन्सी में तत्कालीन केन्द्रीय वाणिज्य उपमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की कविताओं के हस्तलिखित मजमून का ब्लाक बनाकर छापते थे तो जनता पार्टी की सरकार बनने पर उन्होने उतने ही भक्तिभाव के साथ तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की कविताओं के हस्तलिखित मजमून को छापना शुरू कर दिया था।

सोनिया गांधी का पहला इण्टरव्यू करने का श्रेय भारती जी की पत्नी पुष्पा भारती को दिया जाता है और यह इण्टरव्यू भी फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार के एक टीवी चैनल पर प्रसारित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रास-रंग नुमा इण्टरव्यू की ही तर्ज पर था।

लालित्य की पत्रकारिता और क्रान्तिकारी पत्रकारिता के दो ध्रुव

लेकिन उस समय पत्रकारिता के इस सकारात्मक तेवर को आज की तरह हेय दृष्टि से नही देखा जाता था तो दूसरी ओर इण्डियन एक्सप्रेस की क्रान्तिकारी पत्रकारिता के प्रति भी घ्रणा का आलम नही था बल्कि कांग्रेस पार्टी के प्रति बहुतायत जनता के प्रेम के बावजूद एक्सप्रेस की बहादुरी को भी लोग सराहना के भाव से देखते थे।

दिनमान की भी पत्रकारिता थी जिसके पत्रकार खालिस समाजवाद के लिये प्रतिबद्व थे और इसलिए उनकी कलम सरकार की नीतियों के खिलाफ हमलावर रहती थी। फिर रविवार आया जिसने ऑपरेशन ब्लू स्टार की एक्सक्लूसिव खबरे कुछ दुर्लभ फोटो के साथ प्रकाशित की जिनमें सेना द्वारा स्वर्ण मंदिर के अंदर खालिस्तानी आतंकवादियों को हाथ बांधकर गोली मारने की सच्चाई का रहस्योद्घाटन हुआ था। लोगो के राष्ट्रवादी मर्म को इससे धक्का जरूर लगा पर किसी ने रविवार की पत्रकारिता को देशद्रोह का नमूना साबित करने का जोश नही दिखाया।

पत्रकारिता कोई सूचनाओं का व्यापार नही है, न ही मनोरंजन उद्योग है। पहले पत्रकार वे बनते थे जिनका अपना विशिष्ट राजनीतिक दृष्टिकोण होता था और कई बार राजनीतिक आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ता ही पत्रकारिता को अपना कार्यक्षेत्र बना लेते थे।

वैचारिक उठापटक का दौर

शुरू में समाजवादी और वामपंथी नजरिये वाले पत्रकार अखबारों और पत्रिकाओं में छाये हुए थे। इसके बाद जब जनता पार्टी सरकार ने लालकृष्ण आडवाणी सूचना प्रसारण मंत्री बने तो उन्होने कांग्रेस समर्थक सम्पादकों को अखबारों से हटवाकर संघ से जुड़े बुद्धिजीवियो को उनकी जगह दिलाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया। इन सम्पादकों ने विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं को पत्रकार बनाकर अखबारों में अपनी विचारधारा का प्रभुत्व बनाने का प्रयास किया।

लेकिन वे चाहे वामपंथी नजरिये के पत्रकार हो या हिन्दुत्ववादी नजरिये के, उनकी व्यक्तिगत सच्चरित्रता पर कोई दाग नही था। गोदी मीडिया की शुरूआत एसपी सिंह के जमाने में क्रांतिकारी तेवरों के लिए मशहूर रही पत्रिका रविवार से तब हुई जब बोफोर्स दलाली के मुद्दे पर आन्दोलन छिड़ा हुआ था। ज्यादातर अखबार वीपी सिंह के प्रति हमदर्दी दिखा रहे थे और उन्हे नायक के रूप में पेश कर रहे थे। जबकि रविवार की नयी टीम वीपी सिंह और उनके साथियों के चरित्र हनन में मशगूल थी।

कलम की कीमत वसूलने का अध्याय

रविवार के नये कलेवर के पत्रकार ऐसा किसी इतर राजनैतिक आग्रह की वजह से नही कर रहे थे। सत्ता का साथ देकर उन्होने इसकी भरपूर कीमत वसूली और यही वजह थी कि वे पत्रकार हैसियत में किसी कारपोरेट के बराबर पहुंच गये। इसके बाद मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू किये जाने के फैसले और भाजपा के मंदिर आन्दोलन से उपजा तूफानी वैचारिक दौर आया जिसमें भारतीय पत्रकारिता का दक्षिणपंथी रचित्र उभरा लेकिन इसके पीछे पत्रकारों को बिकाऊ मानने की धारणा का प्रचलन फिर भी नही हुआ था।

इसी बीच उत्तर प्रदेश में जब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन की सरकार बनी तो पत्रकार अपनी वर्ग चेतना के कारण इसके प्रति स्वाभाविक तौर पर दुराग्रही थे लेकिन सरकार ने वैकल्पिक पत्रकारिता का विकास करने की बजाय स्थापित पत्रकारों को ही अपना बनाने के लिए खरीद की झोली खोल दी। जब मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनी तो उन्होने उनके पहले मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से अनुग्रहीत किये गये पत्रकारों की सूची जारी करके मीडिया के बदनाम चेहरे को सामने ला दिया।

वर्ग सत्ताओं को साधने की राजनीति

बाद में राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन का एक अलग दौर आ गया। बदलाव और जनोन्मुखी राजनीति की जगह समाज में हावी विभिन्न वर्ग सत्ताओं को साधकर वर्चस्व बढ़ाने की राजनीति जोर पकड़ने लगी। ऐसे में वैचारिक पोषण करने वाली पत्रकारिता आप्रासंगिक होती चली गयी। मार्केटिंग के लोग मीडिया की सम्पादकीय नीति का एजेण्डा तय करने लगे तो राजनीतिज्ञ वैचारिक रूप से हमसफर पत्रकारिता के अवलम्बन की बजाय मीडिया को अपनी ब्राण्डिंग के उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने के गुर सीखने लगे।

जिस तरह कम्पनियां हर प्रमुख साइटों पर होर्डिंग लगवाती है ताकि आते जाते समय कई बार उन्ही के प्रोडक्ट के विज्ञापन पर लोगो की निगाह पड़े। मनोविज्ञानियों का कहना है कि बार-बार किसी स्लोगन या किसी का चेहरा लोगो की आँखों के सामने से गुजरे या कानों में गूंजे तो भीड़ उसके सम्मोहन की गिरफ्त में आ जाती है। मार्केटिंग के इसी सिद्वान्त के अनुरूप राजनीतिज्ञ मीडिया से केवल यह चाहते है कि हर क्षण उनकी फोटो और समाचार दिखाता रहे ताकि लोगो के जेहन पर उनका कब्जा हो सकें।

अगर भाजपा और मोदी ने मीडिया मैनेजमेण्ट पर बहुत खर्च किया तो दूसरे लोग भी इसमें पीछे नही रहे। अखिलेश ने भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी सरकार की ब्राण्डिंग के लिए मीडिया में पानी की तरह सरकारी खजाना बहाया था। अन्तर इतना रहा कि मीडिया का ज्यादातर हिस्सा खुद हिन्दू राष्ट्रवाद का कायल है इसलिए जब उसने भाजपा के लिए काम किया तो उसकी शक्तियां पूरी क्षमता के साथ सक्रिय हुयी लेकिन जब उसे दूसरे की बजानी पड़ी तो वह उस शिद्दत के साथ अपना हुनर इस्तेमाल नही कर सका। नतीजतन इस होड़ में भाजपा ज्यादा फायदा उठा ले गयी।

इसलिए गोदी मीडिया के मुहावरे को अलापकर विपक्ष आत्मप्रवंचना में जी रहा है। लेकिन क्या इससे उबरने के लिए वैचारिक पत्रकारिता को फिर से बल देना अब संभव रह गया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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