Sunday - 7 January 2024 - 5:52 AM

पड़ोसियों के साथ महासंघ वक्त की मांग है!

डा सी पी राय

क्या अब उचित समय है की भारत, पाकिस्तान, बंगला देश और संभव हो तो नेपाल ,भूटान और श्रीलंका का भी एक ,महासंघ बन जाना चाहिये ?

यद्दपि बंगला देश ने काफी तरक्की किया है और मजबूत भी हुआ है. नेपाल भारत और चीन के बीच झूल रहा है सहायता के लिए तो पाकिस्तान अमेरिका और चीन के बीच और यही स्थिति श्रीलंका की भी है .

भूटान छोटा है और पड़ोसियों की सहायता पर निर्भर है तो भारत भी अपनी सैन्य आवश्यकताओ के लिए तो अन्य देशो पर निर्भर है इसे भी अंतर्राष्ट्रीय मदद की दरकार भी रहती है.

यद्दपि भारत ने पिछली सभी सरकारों के समय काफी तरक्की किया है और आर्थिक क्षेत्र हो ,अंतरिक्ष का क्षेत्र हो या सैन्य ताकत ,सभी में दुनिया के बड़े देशो की क़तार में खडा हो गया है पर इसकी भी बेतहाशा बढ़ती हुयी जनसँख्या और उसमे युवाओं की बड़ी संख्या इसके सामने चुनौती बनने वाली है.

क्योंकि एक सीमा तक युवा राष्ट्र उत्पादक होता है और ताकत होता है पर अगर नीतियां रोजगार का निर्माण न कर रही है और पूँजी का वितरण देश में और समाज में तार्किक और समानुपाती न हो बल्कि उसका विकेन्द्रीयकरण के बजाय केन्द्रीयकरण हो रहा हो तो बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ती है.

बेरोजगार युवा देश पर बोझ ही नहीं मुसीबत साबित हो सकता है जिसका भारत के परिपेक्ष्य में अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होना चाहिए . पाकिस्तान भी आर्थिक मामलों से लेकर अंदरूनी समस्यायों से झूझ रहा है और आतंकवाद की आंच उसे भी जला रही है.

भारत ,पाकिस्तान और बंगला देश तो हमेशा से एक देश रहा है.| इन तीनो देशो किन संस्कृति , खानपान ,पहनावा ,मौसम ,फसले , नदियाँ , पहाड़ , भाषा , बोली ,इतिहास सब कुछ तो एक ही है.

इन देशो का कोई भी भारत आता है तो न भारत उसे बेगाना लगता है और न इन देशो में जाने वाले भारतीयों को ये लोग बेगाने लगते है.

पाकिस्तान जाकर लौटने वाले सारे लोगो ने यही बताया की वहा बहुती प्यार और इज्जत मिली और वहा के लोगो ने हाथोहाथ लिया भारतवासी जानकार.

समस्याए भी एक जैसी ही है करीब करीब. अगर पकिस्तान में धार्मिक कट्टरता ने उसको पीछे किया है तो बंगला देश में भी कट्टर ताकते सर उठाती रहती है और भारत भी धार्मिक घृणा की तरफ धकेला जा रहा है कुछ ताकतों द्ववारा.
नेपाल लगातार अस्तिर है तो श्रीलंका अभी एक आन्तरिक युद्ध से ठीक से उबर भी नहीं पाया है.

ये सारे देश एक दूसरे के खिलाफ होने या साथ नहीं होंने के कारण सेना और हथियार पर बहुत बड़ा धन खर्च करने को मजबूर है और आपस में सहयोगी नहीं होने के कारण खासकर पकिस्तान की सीमा और व्यापार बंद होने के कारण वही चीजे दूसरो से महंगा लेने को मजबूर है.

जबकि अगर ये सब देश एक देश की तरह या ढीले ढाले महासंघ के रूप में काम करने लगे और उन मुद्दों को उठा कर किनारे टांग दे जो इतने वर्षो से केवल आत्मघाती साबित हुए है तो ये सभी बहुत मजबूत हो सकते है. केवल सेना और हथियार का खर्च ही कम हो गया और आपसी तनाव ख़त्म हो जाये तथा सीमाए खुल जाए और दुश्मन की जगह सहयोगी बन जाए तो ये सभी देश खुशहाल हो जायेंगे और आपसी 90% जरुरते खुद पूरी कर सकेंगे.

पर सवाल है की ये होगा कैसे ? इन देशो के विद्वान , सिविल सोसायटी , कलाकार ,लेखक ,कवि और छात्र मिलकर इसकी बुनियाद डाल सकते है अगर बडे पैमाने पर इन लोगो का एक दूसरे के यहाँ आना जान शुरू हो जाये ,सबके साथ मैत्री संघ बन जाए और उसको सरकारों की भी मान्यता तथा सहायता मिले.

वैसे तो अगर जर्मनी का एकीकरण हो सकता है तो भारत ,पाकिस्तान और बंगला देश का क्यों नहीं हो सकता ? एक प्रधानमंत्री ,दो उप प्रधानमन्त्री का फार्मूला चल सकता है प्रारम्भिक तौर पर और दो उप राष्ट्रपति का या राष्ट्रपति बारी बरी तीनो जगह से हो सकते है और जब सब ठीक लगे तो एक देश के रूप में काम करने लग सकते है.

प्रारम्भिक तौर पर केवल सुरक्षा ,विदेश नीति ,संचार ,और मुद्रा एक रहे और बाकि चीजे तीनो की स्वतन्त्र रहे और सेना का संयुक्त कमांड हो जो आपस के लिए नहीं बल्कि अन्य देश की सीमाओं के लिए काम करे तथा आपसी सीमओं से सेना पूरी तरह हट जाये बस कानून व्यवस्था और किसी भी तरह के आतंकवाद और अवैध कारोबार को रोकने के लिए नाममात्र की रहे . आगे चल कर एकीकरण की प्रक्रिया पूरी की जा सकती है पूरा सामंजस्य बैठ जाने और आपसी विश्वास कायम होने तथा अंतरिम व्यवस्था के सफल हो जाने के बाद.

यही फार्मूला बाकी पड़ोसियों के साथ भी अपनाया जा सकता है. यद्दपि ये आसान नहीं है और दुनिया को अपनी रियाया समझने वाली ताकते ऐसा आसानी से होने नहीं देगी पर चुनौती भी तो यही है और उन ताकतों के शोषण तथा दादागिरी के खिलाफ और खुद को सशक्त करने तथा अपनी समस्याओ से खुद निपटने में आपसी सहयोग स्थापित करने के लिये ही तो इस एकीकरण अथवा प्रारम्भिक तौर पर ढीलेढाले महासंघ की आवश्यकता है.

पर इसके लिए इन देशो और समाजो को उन ताकतों को तो किनारे लगाना ही होगा जो धार्मिक अथवा जातीय कट्टरता वाला समाज अथवा देश बनाना चाहते है क्योकि ऐसा महासंघ तो सिर्फ मानवता की बुनियाद पर और मानवता की बहबूदी के लिए ही बन सकता है.

पाकिस्तान या बंगला देश की जनता को ऐसी ताकतों पर लगाम लगाना होगा तो भारत में भी कुछ लोगो को तय करना पड़ेगा की देश के बटवारे से दुखी होना और फिर धर्मं के नाम पर किसी कौम की उपेक्षा या उससे घृणा दोनों साथ तो नहीं चल सकते है.

सवाल ये है की भारत बड़ा है ,क्या इसकी सत्ता ऐसी पहल नहीं कर सकती ? क्या आगे बढ़ कर आजादी के बाद बनी दीवार गिराने की तरफ पहला हथौड़ा नहीं चला सकती है.

इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी जी को पहल करनी चाहिए और सत्ता की मात्रि संस्था आरएसएस जो भारत बटवारे के खिलाफ बहुत मुखरता से आवाज उठाती रही है उसको आगे बढ़ कर इस अभियान की शुरुवात करनी चाहिये और अगर ये लोग आगे नही बढ़ते है तो राहुल गाँधी और कांग्रेस को इस अभियान की शुरुवात करना चाहिये. कांग्रेस के रिश्ते पड़ोसियों से अच्छे रहे है इसलिए वो विश्वास बना सकती है.

पर करे कोई भी लेकिन आपसी दीवार अब गिर ही जानी चाहिए. क्योकि लडाइयो से तो बर्बादी के अलावा आजतक कुछ भी हासिल नहीं हुआ तो क्यों न लड़ाई शब्द को मिलकर खूटी पर टांग दिया जाए और केवल खुशहाली की प्रतियोगिता और सहयोग में लग जाया जाए.

(लेखक स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं) इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि  JubileePost या Jubilee मीडिया ग्रुप उनसे सहमत हो…इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है…

 

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