Sunday - 7 January 2024 - 1:43 PM

सुनामी में घास: चुनावी गणित में प्रबंधन बनाम प्रशासन

डा. श्रीश पाठक

भारतीय जनता पार्टी की इतनी शानदार जीत ऐतिहासिक है, यहाँ से भारतीय आम चुनाव एक नए विमर्श प्रतिमानों के साथ याद किये जायेंगे l इस जीत के लिए इन्हीं आंकड़ों के साथ कोई आश्वस्त था, यह कहना निरी मुर्खता होगी और कुछ सरलीकरण भी चुनाव पश्चात् प्रचलित हुए हैं, यथा- जाति, धर्म की भूमिका गौड़ हो गयी, लोगों ने बस देश देखा, अब परिवार की राजनीति के दिन हुए खत्म, आदि-आदि; वे भी कोई बहुत तार्किक दम नहीं रखते l

मै इन परिणामों को जब प्रबंधन की दृष्टि से देखता हूँ तो आसानी से स्वीकार्य कर पाता हूँ पर जब प्रशासन (Governance) की कसौटी पर देखता हूँ तो विस्मित होता हूँ।

प्रबंधन की दृष्टि

भारतीय जनता पार्टी ने यह चुनाव बेहद ही पेशेवर ढंग से लड़ा। उसकी तैयारी सबसे गहन रही। बाकी दलों ने जबतक ट्रैक पर आने का फैसला किया तब तक तो भाजपा मैदान का काफी हिस्सा नाप चुकी थी। अपने सत्य हिंदी के चुनाव विश्लेषण में आशुतोष व शीतल बताते हैं कि 2014 के साल से ही 2019 की तैयारी भाजपा में दिखती है। पार्टी के 168 कॉल सेंटर के 15600 कर्मचारी हैं जिन्होंने देश के प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र से अर्थात देश के लगभग हर दूसरे मतदाता से लगातार संपर्क कर पाए।

पूरे देश में भाजपा को इसबार लगभग 20 करोड़ वोट मिले हैं, इसका अर्थ यह है कि कुल यदि 60 करोड़ के करीब लोगों ने मत दिया है इस चुनाव में तो हर तीसरे मतदाता ने भाजपा को मत दिया। अपने डिजिटल कैंपेन से भाजपा ने तकरीबन 11 करोड़ लोगों को पार्टी से जोड़ा है। 14 करोड़ लोगों से पार्टी का सीधा जमीन पर संवाद हुआ। 6 करोड़ लोगों को फोन और एसएमएस माध्यम से संपर्क किया।

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लगभग 6 करोड़ महिलाओं से भी वे जमीन ओर जुड़कर सरकार की खूबियों और उनकी योजनाओं के बारे में बताया। उज्ज्वला के गैस कनेक्शन व सिलेंडर, गांवों में शौचालय व घर, देश में सड़कें, किसान सम्मान योजना, नीम कोटेड यूरिया की उपलब्धता, साॅइल हेल्थ कार्ड आदि योजनाओं एवं सरकार की आर्थिक आधार पर आरक्षण की कोशिश के असर को बार बार सुनाया गया। इसके अलावा गूगल और फेसबुक पर पार्टी का विज्ञापन लगातार छाया रहा।

जहाँ भाजपा ने इन विज्ञापनों पर लगभग 21 करोड़ रुपये खर्च किए वहीं काँग्रेस इसका महज पाँचवाँ हिस्सा यानी केवल 4.5 करोड़ ही खर्च कर पायी। अप्रैल के महीने में विभिन्न चैनलों को मिलाकर टीवी पर नरेंद्र मोदी लगभग 746 घंटे दिखे हैं तो राहुल गांधी केवल 250 घंटे ही दिखायी दिए। राजनीतिक चंदे को पाने के लिए सरकार ने जो इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था बनायी उससे लगभग 95% चंदा भाजपा को मिला।

भाजपा ने देश के लगभग 70% जिलों में अपने कार्यालय बना लिए हैं जहाँ किसी भी वक्त वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा मौजूद है। इस तरीके से मोदी शाह की जोड़ी ने बूथ स्तर पर अपने कार्यकर्ता को लगातार बांधे रखा।

समीकरण साधने में भी आगे

चुनाव प्रबंधन का एक निर्णायक तत्व समीकरण साधना है और यहाँ भी भाजपा अपने विरोधी दलों से इक्कीस पड़ी। उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की उपस्थिति और राजस्थान, मध्य प्रदेश की हालिया हार से भाजपा सतर्क थी कि उसे लोकसभा चुनाव में सीटों का नुकसान हो सकता है तो वे नए राज्यों में नई जमीन की कोशिश में लगे हुए थे। आसाम में उन्होंने काँग्रेस से नाराज नेता को तोड़ लिया और एन आर सी का मुद्दा तो गर्म था ही।

पश्चिम बंगाल में लेफ्ट और तृणमूल की लड़ाई का फायदा उठाया और वहाँ ममता की आक्रामकता का जवाब उन्होंने आक्रामकता से ही दिया। ओडिशा में वे एक सीट से आठ सीट तक पहुँचे। बस जीतना ही लक्ष्य हो जैसे, जहाँ भाजपा मजबूत पार्टी होकर भी बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में सहयोगी दलों से सीटों का बँटवारा किया और जीता भी वहीं काँग्रेस उत्तर प्रदेश और दिल्ली में टस से मस नहीं हुई।

भाजपा ने अपने समीकरणों के लिए कभी हिन्दू-मुस्लिम तो कभी राष्ट्रवाद का कार्ड खेलती रही और साथ ही अपने नेता नरेंद्र मोदी की एक उत्कट छवि भी गढ़ती रही। टिकट बंटवारे में बाकी दलों की तरह ही जाति का भी खास ख्याल रखा गया।

इस तरह जब हम प्रबंधन का दृष्टिकोण रखते हैं और विपक्षी दलों के कमजोर प्रबंधन को देखते हैं तो हमें भाजपा की इस प्रचंड जीत का आधार समझ आता है। इसमें भाजपा सरकार के कुछ योजनाओं की सफलताओं व नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व व उनकी लोकप्रियता को भी जोड़ दें तो समीकरण और सतत प्रबंधन की इस प्रचंड ऊर्जा से जो राजनीतिक उच्च वायु दाब निर्मित हुआ उसने 303 सीटों की प्रचंड अविश्वसनीय सुनामी को जन्म दिया।

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आजकल के ज्यादातर विश्लेषण ऊपर तक खत्म हो जाते हैं। इन्हीं विश्लेषणों को जमीनी और व्यावहारिक कहा जाता है और यह सच भी है। पर जरा सोचिए कि क्या संविधान की भावना यही थी कि चुनाव इसलिए आयोजित किए जाएँ कि सरकारें महज अपने दलों के प्रबंधन से सीटें जीत जाएँ, नहीं न। जीतने और हारने का आधार तो कामकाज ही होना चाहिए अर्थात सुशासन का निष्पादन न कि किसी प्रकार का मतप्रबंधन।

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