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कौन थे श्यामा प्रसाद मुखर्जी जिनकी पुण्यतिथि मना रही है ममता सरकार

न्‍यूज डेस्क

पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि मनाने का एलान किया है।  ममता सरकार के मंत्री मुखर्जी की प्रतीमा पर माल्‍यापर्ण करेंगे। ममता बनर्जी सरकार का भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पुण्यतिथि को मनाने का फैसला उस समय आया है, जब पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) लगातार मजबूत हो रही है।

पंचायत चुनाव हो या लोकसभा चुनाव पश्चिम बंगाल में बीजेपी लगातार अच्‍छा प्रदर्शन कर रही है। बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से भारतीय जनता पार्टी ने 18 सीटों पर कब्जा जमाया था। पिछले कई चुनाव में बीजेपी बंगाल में लेफ्ट और कांग्रेस को पीछे छोड़ तृणमूल कांग्रेस के सामने मुख्य प्रतिद्वंदी बन कर उभरी है।

ऐसे में सवाल उठ रहा है कि आखिर क्‍यों एक तरफ ममता बनर्जी और उनकी पार्टी टीएमसी लगातार बंगाल में बीजेपी और संघ से टक्‍कर ले रही है वहीं दूसरी ओर वह संघ के विचारकों और दिग्‍गज नेताओं का सम्‍मान कर रही हैं।

1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की

बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में महापुरूषों से जुड़े और धार्मिक मुद्दों को अपना राजनीतिक हथियार ममता के दुर्ग में सेंध मारी की है। श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्‍यतिथि मनाकर ममता उनसे जुडे़ लोगों तक पहुंच बनाने की कोशिश कर रहीं हैं। बता दें कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी। जनसंघ से ही भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ था।

कौन थे डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी

राजनीति में अलख जगाने वाले डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी की मौत आज भी एक रहस्य ही है। 23 जून 1953 को उनका निधन श्रीनगर में हुआ था। उनका जन्म 6 जुलाई 1901 में हुआ था। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे।

सबसे कम आयु के कुलपति

डॉ॰ मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया और 1921 में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की। 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित करने के पश्चात् वे विदेश चले गये और 1926 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। जिस तरह से श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पिता ने अल्पायु में ही शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएं अर्जित कर ली थीं। उसी तरह से मात्र 33 वर्ष की उम्र में वो भी कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए थे। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे।

बंगाल ने कितने ही क्रांतिकारियों को जन्म दिया है। स्व. डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी इसी पावन भूमि पर पैदा हुए थे। 22 वर्ष की आयु में उन्होंने एमए की परीक्षा उत्तीर्ण की, उसी साल उनका विवाह सुधादेवी से हुआ। बाद में उनसे दो पुत्र और दो पुत्रियां हुईं। मात्र 24 साल की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्य बने। उनका रूझान गणित की ओर विशेष था। गणित के अध्ययन के लिए वे विदेश गए तथा वहां पर लंदन मैथेमेटिकल सोसायटी ने उनको सम्मानित सदस्य बनाया। वहां से लौटने के बाद उन्होंने वकालत तथा विश्वविद्यालय की सेवा में काम किया।

गांधी और कांग्रेस की नीति का किया विरोध

इसके बाद उन्होंने 1939 से राजनीति में भाग लिया और आजीवन इसी में लगे रहे। उन्होंने गांधी जी व कांग्रेस की नीति का विरोध किया, जिससे हिन्दुओं को हानि उठानी पड़ी थी। एक बार आपने कहा कि वह दिन दूर नहीं जब गांधी जी की अहिंसावादी नीति के अंधानुसरण के फलस्वरूप समूचा बंगाल पाकिस्तान का अधिकार क्षेत्र बन जाएगा। उन्होंने नेहरू जी और गांधी जी की तुष्टिकरण की नीति का खुलकर विरोध किया। अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में एक गैर-कांग्रेसी मंत्री के रूप में उन्होंने वित्त मंत्रालय का काम संभाला। उन्होंने चितरंजन में रेल इंजन का कारखाना, विशाखापट्टनम में जहाज बनाने का कारखाना एवं बिहार में खाद का कारखाने स्थापित करवाए।

एक देश दो झंडे का विरोध

1950 में भारत की दशा दयनीय थी। इससे उनके मन को गहरा आघात लगा। डॉ मुखर्जी को ये ठीक न लगा तो उन्होंने भारत सरकार की अहिंसावादी नीति के फलस्वरूप मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर संसद में विरोधी पक्ष की भूमिका का निर्वाह शुरू किया। एक ही देश में दो झंडे और दो निशान भी उन्‍हें स्वीकार नहीं थे। अतः कश्मीर का भारत में विलय के लिए प्रयत्न प्रारंभ कर दिए। इसके लिए जम्मू की प्रजा परिषद पार्टी के साथ मिलकर आंदोलन छेड़ दिया।

बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो

मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहां साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में डाल दिया। डॉ॰ मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं।

एक ही भाषा, एक ही संस्कृति

इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई।

धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की

डॉ॰ मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहां का  मुख्यमन्त्री (वजीरे-आज़म) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ॰ मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।

रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत

उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।

 

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