Wednesday - 30 October 2024 - 3:41 PM

राष्ट्रवाद के समकालीन भारतीय सन्दर्भ

श्रीश पाठक

जैसे मनोविज्ञान के लिए मन, अर्थशास्त्र के अर्थ, भौतिकी के लिए पदार्थ, भूगोल के लिए पृथ्वी और समाजशास्त्र के लिए समाज सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वैसे ही राजनीति शास्त्र के लिए राज्य की संकल्पना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एवं सर्वांगीण विकास के लिए सतत संसाधनों की आवश्यकता होती है।

संसाधनों की उपलब्धता सभी को हो, समुचित हो, यही राजनीति की चिंता है। महसूस हो अथवा न हो लेकिन जैसे ही एक से  दो की बात होगी और अगर एक की भी बात दूसरों के सापेक्ष हुई तो राजनीति का विषयक्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है।

‘राष्ट्रराज्य’

‘राजनीतिक’ की व्याख्या ‘सबसे संबंधित’  के प्रत्यय में की जाती है। राजनीति, हम सामाजिक प्राणियों के लिए इतनी स्वाभाविक है और इस तरह हममें घुली-मिली है कि कई विषयों के प्रवर्तक अरस्तु इसे विषयों का विषय अर्थात प्रधानशास्त्र कहते हैं। आधुनिक विश्व के राज्य अपने पूर्ण अर्थो में ‘राष्ट्रराज्य’ कहे जाते हैं। राज्य जहां भौगोलिक अस्तित्व के द्योतक हैं तो राष्ट्र उस राज्य के सांस्कृतिक व राजनीतिक अस्मिता को परिलक्षित करते हैं। एक निश्चित भू-भाग, एक सरकार, एक जनसंख्या व एक शक्तिशाली संप्रभुता के संयोग से राज्य निर्मित होते हैं और जब उस राज्य के वासी हर एक से सांस्कृतिक व राजनीतिक तौर पर एक अभिन्न जुडाव महसूस करते हैं तो राष्ट्र बनता है।

राष्ट्र की संकल्पना एक बेहद तरल पर बेहद शक्तिशाली संकल्पना है। भारत से बेहद दूर किसी विदेशी शहर में वहां मौजूद अन्य अजनबी विदेशियों को छोड़ जब हिमाचल का एक व्यक्ति अरुणाचल या केरल के किसी अजनबी से बात करने को सहज वरीयता देता है, तो यही शक्तिशाली राष्ट्र की संकल्पना अपना कार्य कर रही होती है। आपस में अनगिन विभेद हो सकते हैं, ढ़ेरो भौगोलिक, भाषायी, आंचलिक, रहन-सहन के विभेद लिए नागरिक भी अंततः राष्ट्र के नाम पर एक सुर में समवेत हो खड़े हो जाते हैं।

किसी राष्ट्र के सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम के प्रत्येक तत्व मिलकर राष्ट्रीय चेतना के तत्व गढ़ते हैं। राष्ट्र की संकल्पना का एक विचारधारा के रूप में पनपना एक अपेक्षाकृत नयी घटना है। यूरोप में चलने वाले अस्सी वर्षीय एवं तीस वर्षीय युद्धों के बाद हुए वेस्टफिलिया शांति संधि के पश्चात राष्ट्र की संकल्पना एक विचारधारा के रूप में तेजी से फैली। एक विचारधारा के रूप में राष्ट्र की संकल्पना में एकरूपता, एकरसता, एक पहचान को आधार बनाते हुए सभी अलग-अलग सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिताओं को राष्ट्र कहा गया।

पश्चिमी राष्ट्रवाद की  समस्या

यही कारण है कि छोटे से महाद्वीप यूरोप में राष्ट्रराज्यों की भरमार है। पश्चिमी राष्ट्रवाद की एक समस्या यह  भी है कि इसमें अतिवाद के बीज पैदाइशी तौर पर जुड़े हैं, जिसमें यह मात्र अपने ही राष्ट्र, अपनी ही संस्कृति, अपनी ही भाषा, अपने ही तौर-तरीकों को सर्वश्रेष्ठ करार देते हैं। इससे राष्ट्रों के मध्य स्वाभाविक संघर्ष उपजता है। इस अतिवादी राष्ट्रवाद के कारण ही यूरोप जो पहले ही तकरीबन एक सौ बीस वर्षो के सतत युद्धों में झुलसा पड़ा था, उसे दो-दो विश्वयुद्धों की भयानक आग में भी जलना पड़ा।

भारत की स्वतंत्रता के समय भारतीय विचारक व स्वतंत्रता सेनानी यूरोप की इस त्रासदी व राष्ट्रवाद के अतिवादी रूप से परिचित थे। इसलिए ही रविंद्रनाथ टैगोर जैसे मनीषी पुरे विश्व भर में घूम-घूमकर राष्ट्रवाद के इस अतिवादी संस्करण की आलोचना करते रहे। अंग्रेजों के जाने के बाद नए भारत में व्याप्त भिन्नताओं को एकसूत्र में पिरोकर उसे अखंड बनाना एक चुनौती थी। राष्ट्रवाद के पश्चिमी संस्करण को अपना लेने का अर्थ भारत में यूरोप की तरह ही ढ़ेरों राष्ट्र की उत्पत्ति को न्यौता देना होता।

इस सनातन राष्ट्र के इतने अकल्पनीय टुकड़े संभव थे जितने कि यहां भिन्नताएं सांस लेती हैं। कहीं न कहीं अंग्रेज यही चाहते भी थे। भारतीय विचारकों ने एकता और अखंडता के लिए राष्ट्रवाद तो अपनाया लेकिन इसकी मूल आयोजना में ही निर्णायक परिवर्तन कर दिया। राष्ट्रवाद के भारतीय संस्करण ने विभिन्नता में एकता को अपनाया। भारतीय राष्ट्रीय चेतना ने भारतभूमि में बसने वाली प्रत्येक भिन्नताओं को पृथकता की दृष्टि से नहीं समग्रता की दृष्टि से देखा। भारतीय राष्ट्रवाद की बुनियाद ने वह प्रविधि विकसित की जिससे प्रत्येक भिन्नता को विभिन्नता की तरह देखा गया।

राज्य-निर्माण प्रक्रिया एवं राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया सतत होती है। राज्य-निर्माण प्रक्रिया में जहां नए-नए भू-भाग देश से जुड़ते-टूटते रहते हैं तो वहीं राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया में देश की राष्ट्रीय चेतना के गुणधर्म प्रत्येक नागरिकों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी सरकार और नागरिक-समाज की होती है। इसमें शिक्षा की भूमिका बेहद अहम है। किसी भी देश में यह दोनों प्रक्रियाएं संपन्न नहीं होती हैं, अपनी प्रकृति से यह सतत ही होती हैं।

आमतौर पर जब सरकारें नागरिक हित के कार्य करने में सक्षम नहीं हो पाती हैं तो इस अधूरी राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का लाभ उठाकर वे भिन्नताओं को विभेद बताकर समाज को आसानी से बांटती हैं। बंटे हुए लोग आसानी से चुनावों में जाति, धर्म, भाषा, समुदाय के आधार पर मत दे देते हैं और भ्रष्ट नेताओं के लिए सरकार बनाकर सत्ता में लौटना बेहद आसान हो जाता है। इसमें उन्हें नागरिक हित के कार्य नहीं करने पड़ते, महज राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया को अवरुद्ध करना होता है ताकि भिन्नताओं को विभिन्नता से देखने वाली दृष्टि धूमिल पड़ती जाए और प्रत्येक भिन्नता को विभेद में बदलकर समाज में विभाजन की स्थिति बनाई जाये।

यही स्थिति आज स्पष्टतया दिखाई पड़ रही है। चूंकि, सरकार एवं नागरिक समाज ने शिक्षा के महत्त्व को दरकिनार किया है तो लोग बहुधा राष्ट्रवाद के पश्चिमी अतिवादी संस्करण को देशभक्ति से जोड़ अपनाने को उत्सुक दिखते हैं। जबकि भारतीय राष्ट्रवाद अपनी तरह का अनूठा राष्ट्रवाद है जिसमें कोई अतिवाद नहीं है, प्रत्येक भिन्नताओं को वह विभिन्नता का सम्मान देता है, इसके मूल में वसुधैव कुटुम्बकम की उदात्त धारणा का वास है।

आइये हम भारतीय राष्ट्रवाद की सहज उदात्तता से ओतप्रोत हो एक-दुसरे का हाथ पकड़ अनेकता में एकता का वैश्विक शंखनाद करें एवं राष्ट्रहित में एक हो आगे बढ़ें। 

(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार व संप्रति गलगोटियाज यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष हैं।)

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