Tuesday - 9 January 2024 - 1:26 PM

क्या कांग्रेस को उन्नीसवी सदी के शुरूआती दशकों में लौट जाना चाहिए

के पी सिंह

कांग्रेस पार्टी के भविष्य पर अंधेरा छाया हुआ है। जिसने पार्टी के दिग्गजों को विचलित कर रखा है। इन स्थितियों के बीच कांग्रेस के तीन बड़े बुद्धिजीवी चेहरों के हथियार डालने की मुद्रा जताने वाले बयान ट्वीट के माध्यम से एक के बाद एक सामने आये हैं। आगाज जयराम रमेश ने किया, इसके बाद शशि थरूर ने भी उनकी तर्ज पर ही शराफत उड़ेल डाली और बाद में अभिषेक मनु सिंघवी भी इसी कड़ी में यह कहते हुए जुड़ गये कि उन्होंने तो पहले ही मशविरा दिया था कि मोदी पर निजी हमलों के मामले में संयम बरता जाये क्योंकि इसका लाभ मोदी को ही मिल रहा है।

वैसे बुद्धिजीवियों का सुविधाभोगी मानसिकता के कारण पलायनवादी चरित्र पहले से ही जाना पहचाना है। संघर्ष की नौबत आते ही डटे रहने की बजाय वे भागने की मानसिकता में नजर आने लगते हैं।

मोदी पर निजी हमलों की वजह से कांग्रेस की दुर्दशा हुई वरना वह जंग जीत लेती ऐसे विचार को फैलाने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि लोकसभा चुनाव के पहले हुए विधानसभा के चुनावों में तो इसी आक्रामकता के कारण कांग्रेस भाजपा को जबरदस्त चुनौती दे सकी थी। लोकसभा चुनाव में भी यही होने वाला था अगर पुलवामा न हुआ होता। पुलवामा में सीआरपीएफ के 40 जवानों के शहीद होने और इसके बाद बालाकोट में भारत द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक से पासा पलट गया।

स्थिति यह बन गई कि अगर मोदी पर निजी हमले न करके उनका स्तुतिगान भी किया जाता तब भी कांग्रेस की ऐसी ही मिट्टी पलीत होती। कांग्रेस क्या समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जो उत्तर प्रदेश के अपने गढ़ में भाजपा पर जबरदस्त तरीके से भारी पड़ रहे थे चुनाव परिणामों ने उनका भी सत्यानाश कर दिया। अब ये तीनों तथाकथित थिंक टैंक उनके सर्वस्व स्वाहा को लेकर क्या कहेंगे।

निजी हमलों का ट्रेंड राजनीति में

दरअसल निजी हमलों का ट्रेंड राजनीति में क्यों आया इसे समझना होगा। मोदी ने शुरू से जाना कि कांग्रेस के तोते की जान नेहरू इन्दिरा परिवार में है। जब भी यह परिवार दूर हुआ दूसरा कोई भी तीरंदाज पार्टी की रखवाली नहीं कर पाया। राजीव गांधी की हत्या के बाद का नरसिंहाराव से लेकर सीताराम केसरी तक का परिदृश्य इसका गवाह है। इसके पहले इन्दिरा युग में भी देखा जा चुका है।

शुरू में जब सारी पार्टी एक तरफ हो गई थी और इन्दिरा गांधी दूसरी तरफ नौसिखियों को लेकर अकेली थी तो जनता की स्वीकृति उन्हीं को मिली थी और सिंडीकेट का डिब्बा गोल हो गया था। यहां तक कि राष्ट्रपति के चुनाव में इन्दिरा गांधी ने अंतरात्मा की आवाज पर वोट की अपील करके जो इशारा दिया उससे कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को हार का मुंह देखना पड़ा था और निर्दलीय वीवी गिरि राष्ट्रपति बन गये थे।

इसलिए कांग्रेस को हिलाने की मंशा के तहत मोदी ने पंडित नेहरू से लेकर इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे दिवंगत नेताओं पर भी निजी तौर पर तीर छोड़ने में कोई रहम नहीं किया। पंडित नेहरू को लेकर सोशल मीडिया पर काम करने वाली ब्रिगेड ने जो धमाचैकड़ी की उसे चरित्र हनन की राजनीति की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। इसमें नेहरू को अय्याश से लेकर अपनी असलियत छुपाये मुसलमान तक साबित कर दिया गया है।

मोदी पलटन के आईटी दस्ते की भूमिका अहम

मूर्तिभंजन के इस अभियान के पीछे कहा जाता है कि मोदी पलटन के आईटी दस्ते की भूमिका रही जो फेंक आईडी के माध्यम से लोगों के ब्रेनवाश के लिए जुटा रहता है। यहां तक कि जब मोदी ने इसी चुनाव अभियान में यह कह दिया कि राजीव गांधी मिस्टर क्लीन बनकर राजनीति में आये थे और जब मरे तो चोर का कलंक समेट कर गये। इससे भाजपा के लोग तक असहज हो गये थे। हाल में कांगे्रस ने राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद जब सोनिया गांधी को दुबारा अध्यक्ष चुन लिया तो फिर वंशवाद का राग भाजपा के नेता अलापने लगे। भाजपा यह जानती है कि नेहरू इन्दिरा परिवार के मैदान से हटते ही कांग्रेस का बिखरकर अंत हो जायेगा।

दूसरी ओर कांग्रेस को भी इसी तरह यह पता हो चुका है कि भाजपा की सारी ताकत मोदी-शाह की जोड़ी में छिपी है। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने तो उनके कद का कोई नेता देश में नहीं बचा था। फिर भी उन्हें सोनिया गांधी के मुकाबले सत्ता गंवानी पड़ी हालांकि सोनिया ने बारी आने पर अपने विदेशी मूल का विवाद छिड़ता देख खुद को पीछे करके मनमोहन सिंह का राज तिलक प्रधानमंत्री पद पर करा दिया था। लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी को अवसर मिला तो आज कांग्रेस पार्टी समेत पूरा विपक्ष कहीं अता पता न लगने की स्थिति में पहुंच गया है। इसलिए कांग्रेस में अगर जिजीविषा रहेगी तो मोदी-शाह की जोड़ी पर निजी तौर पर हमलावर होना उसके लिए लाजिमी होगा।

लेकिन शराफत का ढ़ोल पीटने वाले कांग्रेस के बौद्धिक महारथी जिजीविषा गंवा चुके हैं। उन्होंने न केवल मोदी पर निजी हमले न करने की वकालत की है बल्कि यह भी कहा है कि कांग्रेस को प्रधानमंत्री के अच्छे कामों की तारीफ भी करनी चाहिए। इससे कांग्रेस का शैशवकाल याद आ गया जब वह फिरंगी सरकार से लड़ने की बजाय रचनात्मक विपक्ष की भूमिका का निर्वाह देश के प्रति कर्तव्य निभाने के नाम पर अदा करती रही थी।

दरअसल रचनात्मक विपक्ष के नाम पर कांग्रेस उस समय फिरंगी शासन के खिलाफ उभरते जन असंतोष के प्रबंधन का उपकरण बनी हुई थी। क्या कांग्रेस को एक बार फिर रचनात्मक विपक्ष का स्वांग ओढ़ लेना चाहिए। दरअसल इन बौद्धिक नेताओं को लगता है कि जब तक मोदी-शाह की जोड़ी है कांग्रेस के लिए सत्ता में वापिसी की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए सरकार से लड़ने की बजाय विरोध की औपचारिकता पूरी करते हुए अंदर से सरकार के सहयोगी दल की भूमिका निभाने का वे पार्टी से कर रहे हैं।

कांग्रेस के अंदर बौद्धिक क्षमता नहीं

कांग्रेस नेतृत्व में भी बड़ी कमी है। मोदी की सफलता और अपने हार के कारणों का विश्लेषण गहराई से करने की बौद्धिक क्षमता उसके अंदर नहीं है। यह क्षमता अगर उसके अंदर होती तो पार्टी के ये बौद्धिक चेहरे लालबुझक्कड़ का अवतार लेने की बजाय अपने ज्ञान चक्षू खोलकर काम करते। वास्तव में राजनीतिक मामलों में नरेन्द्र मोदी जैसा दूर तक सोचने वाला नेता वर्तमान में कोई नहीं है इसीलिए उनके सामने विपक्ष की हर रणनीति फेल है।

उन्होंने नेहरू बनाम पटेल के विमर्श को तेज और पैना किया जबकि वास्तविक तौर पर दोंनों नेताओं के बीच कोई मनोमालिन्य नहीं था। मोदी को मालूम था कि अव्यक्त रूप से यह विमर्श ब्राह्मण बनाम पिछड़ा के द्वंद के रूप में लोगों में घुसता जायेगा और यही हुआ जिससे मध्य जातियों का बहुजन समाज उनके पक्ष में लामबंद हुआ। इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने के इस दौर में एक और विमर्श जो सबसे तीखेपन से मुखरित है वह गांधी बनाम गोडसे का है।

मोदी की भाजपा बहुत ही चालाकी से इस बहस से अपना दामन सुरक्षित रखने में सफल है जबकि यह बहस उसी के द्वारा प्रायोजित है। गांधी शुरू में वर्ण व्यवस्था के पोषक थे लेकिन बाद में उनका नजरिया बदलता गया और वे वर्ण व्यवस्था की चूलें हिलाने लगे। 1945 में उन्होंने ऐलान कर दिया कि किसी विवाह में नये जोड़े को वे तभी आशीर्वाद देने जायेंगे जब युगल अलग-अलग जाति के या अलग-अलग धर्म के हों।

भारत की स्थितियां बदली

इससे वे कट्टरवादियों के निशाने पर आ गये और नाथूराम गोडसे ने इसी मानसिकता से ग्रस्त होने के कारण उनकी हत्या कर दी। गांधी बनाम गोडसे के द्वंद से कट्टरवादी तबके को भी मोदी ने भाजपा के साथ मजबूती से जोड़े रखने का उपक्रम बेहद कामयाबी के साथ किया। जिसमें पार्टी के अंदर सोशल इंजीनियरिंग के प्रणेता गोविंदाचार्य विफल हो गये थे इसलिए पार्टी को बहुत ऊचाई पर पहुंचा देने के श्रेय के बावजूद उन्हें परित्यक्त हो जाने का अभिशाप झेलना पड़ा।

इसी क्रम में भारतीय समाज के अभिमान की सीमा तक बुलंद मनोबल पर भी गौर किया जाना चाहिए। जब देश आजाद हुआ था उस समय कई दशक तक भारतीय समाज हीन भावना से ऊपर उठने की नहीं सोच पाया था लेकिन आज स्थितियां बदली हुई हैं। दुनिया की बड़ी से बड़ी कंपनी में भारतीय सर्वोच्च पद पर हैं। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में भारतीय मूल के लोगों के ही हाथ में शासन-प्रशासन की कुंजी है।

भारतीय युवा अपने पुरखों जैसा दब्बू नहीं रहा

इसलिए भारतीय युवा आज अपने पुरखों जैसा दब्बू नहीं रह गया बल्कि उसे सारी दुनिया अपने सामने बौनी नजर आने लगी है। इसलिए मोदी ने जब विश्व नेताओं से चढ़कर बात करने की अदाबाजी दिखाई तो नया भारत उनका मुरीद हो गया। इस मनबढ़ भारत को पाकिस्तान अब पिद्दी नजर आता है। इसलिए जब पाकिस्तान से निर्देशित आतंकवादी देश के अंदर वारदात कर देते थे तो उसका खून खौल जाता था।

उसे अपनी सरकार से कूटनीतिक तरीकों से उन पर नियंत्रण की तरकीबें खोजते रहना गवारा नहीं था बल्कि वह अपनी सरकार को पाकिस्तान को मिटा देने की मुद्रा अख्तियार करते हुए देखना चाहता था। नये भारत का यह मानस कांगे्रस का यथास्थितिवाद का शिकार नेतृत्व भांप नहीं पाया और मोदी ने उनकी मंशा को पहचान कर सारी जोखिम और खतरों को नजरअंदाज करते हुए दुस्साहसिक पहल शुरू की तो मंजर ही बदल गया।

अमेरिका और चीन को भी भाव नहीं देना चाहता भारत

देखने वाली बात यह है कि मोदी ने जोश के साथ होश भी रखा इसलिए अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी भी उनकी सुनियोजित कोशिशों से भारत के साथ खड़ी हो गई। यहां तक कि मुस्लिम देशों में भी पाकिस्तान के विचारों को पनाह नहीं मिली। पाकिस्तान की तो क्या हैसियत नया भारत अमेरिका और चीन को भी भाव नहीं देना चाहता। मोदी ने उनकी इन्हीं भावनाओं के अनुरूप डोकलाम घुसपैठ के समय उपयुक्त भूमिका निभाई तो उनकी विश्वसनीयता नये भारतीय समाज में चरम पर पहुंच गई।

लेकिन बिडम्वना यह है कि जहां मोदी के इस योगदान को इतिहास में सुनहरी इबारत से लिखा जायेगा वहीं इस अफसोस को भुलाया नहीं जा सकता कि मोदी को जिस बड़प्पन का परिचय देना चाहिए वे उसमें विफल हैं। उनके साहस में व्यक्तिगत गुण के साथ-साथ नये भारतीय समाज के मनोबल का बहुत बड़ा योगदान है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि यह मनोबल किसी ईश्वरीय वरदान की बजह से पैदा नहीं हुआ।

पिछले 70 सालों में आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों को खोलने व आधुनिकीकरण की वैश्विक मुख्य धारा में आगे आने के लिए जो सार्थक प्रयत्न हुए उसकी वजह से दुनिया भर में भारतीयों को हर क्षेत्र में अगुवा होने का अवसर मिला। इसके बावजूद वे 70 वर्ष में देश में कुछ न होने की बात लोगों के दिमाग में बैठाने में लगे हैं जबकि राजनीतिक माइलेज के लिए यह कतई जरूरी नहीं है क्योंकि लोगों का समर्थन का जुड़ना और बिगड़ना वर्तमान पर निर्भर करता है।

कांग्रेस में कई नेताओं ने किया अनुच्छेद 370 का समर्थन

प्रधानमंत्री या सरकार के देश हित में करने का समर्थन हर पार्टी को करना चाहिए। बुद्धिजीवी नेताओं ने इसका सुझाव दिया लेकिन घालमेल करके। कांग्रेस में तमाम नेताओं ने अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले का समर्थन किया है लेकिन उनमें से किसी पर पार्टी ने कार्रवाई नहीं की। कारण स्पष्ट है। कांग्रेस नेतृत्व सीधे इस मामले में प्रधानमंत्री का समर्थन नहीं कर पा रहा लेकिन व्यक्तिगत रूप से समर्थन करने वाले अपने नेताओं पर कार्रवाई न करके उसने परोक्ष में अपने को प्रधानमंत्री के साथ खड़ा किया है।

जाहिर है कि कभी-कभी प्रधानमंत्री और नरेन्द्र मोदी अलग-अलग हो जाते हैं। नरेन्द्र मोदी का विरोध करते हुए भी कांग्रेस प्रधानमंत्री का समर्थन करने की लाइन पहले से अख्तियार कर चुकी है तो कांग्रेस के बौद्धिक नेताओं का इस बिन्दु पर मशविरा झाड़ने का कोई अर्थ नहीं है।

सवाल कांग्रेस या भाजपा का नहीं है। सवाल इस बात का है कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सशक्त विपक्ष का होना बहुत जरूरी है। इसलिए अगर सरकार ठीक और मजबूत भी है तो भी उसकी यह मंशा स्वीकार नहीं की जा सकती कि विपक्ष न बचे। इसलिए कांगे्रस के बौद्धिक नेताओं का समर्पणकारी बयान सत्ता पक्ष की अनर्गल मंशा को बल देने वाला होने से अस्वीकार्य है।

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