जुबिली न्यूज डेस्क
लखनऊ उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा राज्य के सरकारी स्कूलों में रामायण और वेद पर कार्यशालाएं आयोजित करने के फैसले की तीखी आलोचना हो रही है। नगीना लोकसभा से सांसद और आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद ने इस निर्णय को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया है।
सोमवार को एक बयान जारी करते हुए चंद्रशेखर आज़ाद ने कहा कि “सरकारी स्कूलों में एक धर्म विशेष की धार्मिक सामग्री को अनिवार्य बनाना देश की सामाजिक और धार्मिक विविधता पर सीधा हमला है। यह शिक्षा व्यवस्था को धार्मिक ध्रुवीकरण का मंच बना देने जैसा है।”
“यह संविधान की हत्या है” – चंद्रशेखर आज़ाद
आजाद ने अपने बयान में संविधान के अनुच्छेद 28 का हवाला देते हुए कहा कि राज्य-वित्त पोषित शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती और न ही किसी छात्र को धार्मिक उपासना के लिए बाध्य किया जा सकता है।“अगर उत्तर प्रदेश सरकार अपने राजनीतिक एजेंडे के तहत स्कूलों में धार्मिक कार्यशालाएं थोपती है, तो यह संविधान की हत्या जैसा गंभीर अपराध है,” उन्होंने कहा।
शिक्षा का उद्देश्य विवेकशील नागरिकों का निर्माण है
आजाद ने सवाल उठाया कि जिन सरकारी स्कूलों में दलित, मुस्लिम, बौद्ध, सिख, ईसाई और आदिवासी समुदायों के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं, वहां अगर एकपक्षीय धार्मिक शिक्षा दी जाएगी, तो यह धार्मिक भेदभाव और बच्चों की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन नहीं तो और क्या है?
उन्होंने कहा कि अगर कार्यशालाएं आयोजित करनी ही हैं, तो वे संविधान, मौलिक अधिकारों, वैज्ञानिक सोच और सामाजिक न्याय जैसे विषयों पर होनी चाहिए।“बच्चों को आत्म-सशक्तिकरण, समानता और कानूनी अधिकारों की जानकारी दी जाए। अनुच्छेद 51(A) के तहत वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्कशीलता को बढ़ावा दिया जाए।”
‘सर्वधर्म समभाव’ का होना चाहिए पालन
आजाद ने सुझाव दिया कि अगर धार्मिक या सांस्कृतिक विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है तो उसमें सर्वधर्म समभाव का पालन होना चाहिए और छात्रों की धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान होना चाहिए।“शिक्षा का उद्देश्य धर्म प्रचार नहीं, बल्कि विवेकशील और न्यायप्रिय नागरिकों का निर्माण होना चाहिए। यही भारत की आत्मा है और यही संविधान की पुकार।”
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विवाद क्यों?
उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि राज्य के सरकारी स्कूलों में रामायण और वेद पर आधारित कार्यशालाएं आयोजित की जाएंगी। सरकार का कहना है कि यह निर्णय छात्रों को भारत की सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ने के लिए लिया गया है। लेकिन विपक्षी दल और सामाजिक संगठनों का आरोप है कि यह शिक्षा को बहुसंख्यकवाद के एजेंडे में बदलने का प्रयास है।