Friday - 5 January 2024 - 3:17 PM

भारत में द्वि-ध्रुवीकृत वर्चस्व राजनीतिक दलों का उभार

प्रो. रिपु सूदन सिंह

भारतीय लोकतन्त्र एक बड़े परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है जिसमे संयुक्त राज्य अमेरिका व अन्य विकसित प्रजातांत्रिक देशों की तरह यहा भी दलों का द्वि-धुर्वीकरण हो रहा है। उत्तर प्रदेश का आगामी चुनाव प्रदेश के साथ साथ 2024 के लोक सभा के चुनाव पर निर्णायक प्रभाव डालेगा। अगले साल भारत मे चुनाव के 70 साल भी पूरे होगे और यह देश  मे निरंतर चल रही प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का एक सकारात्मक पहलू है । विगत सालों मे चुनाव के अनेक प्रयोग हुये और सामाजिक-आर्थिक विभाजन की प्रतिछाया अनेक दलों के उभार से स्पष्ट होता है। 1991 के बाद से ठोस आर्थिक कदम उठाए गए जिससे समाज का प्रत्येक  तबका किसी न किसी रूप से प्रभावित हुआ और उन आर्थिक परिवर्तनों का लाभ लगभग सभी के पास किसी न किसी रूप मे पहुचा।

इसने उन लोगों के अंदर भी राजनीतिक महात्व्कांक्षाएं पैदा की जो अब तक अपने को व्यवस्था के बाहर पा रहे थे। देश और प्रदेश मे अनेक दलों का उभार उस सामाजिक-आर्थिक  विभाजन की पुष्टि करता है। भारत मे भी भूमंडलीकरण के 30 साल पूरे हो गए है और देश ने अनेक सुधारों को लागू कर लिया है। जिस काँग्रेस ने भारत मे नयी आर्थिक नीति का सूत्रपात किया आज वही उस पर सवाल खड़ा कर रही  है। साफ तौर पर दलीय व्यवस्था मे   दो पोल खड़े  हो गये  है। इस चुनावी अखाड़े मे दोनों ध्रुव एक दूसरे के सामने खड़े ज़ोर आजमाइश करेगे। आज देश मे दो-धुर्वीय वर्चस्व  दलीय व्यवस्था उत्पन्न हो रही है जिसमे एक काँग्रेस दलीय-व्यवस्था है और दूसरी ओर भाजपा वर्चस्व दलीय-व्यवस्था  है।

काँग्रेस दलीय-व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ है जिनके आधार पर अनेक छोटे-बड़े  क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों को उसके ही श्रेणी मे  रखा जा सकता है। शुरू मे काँग्रेस व्यक्ति केन्द्रित दल के रूप मे उभरा जो आगे चल कर 1967 के बाद परिवार केन्द्रित होता गया और क्रमश डायनेस्टी रूल मे बदल गया। काँग्रेस दलीय-व्यवस्था की दूसरी विशेषता रही है अल्पसंख्यक तुष्टीकरण और संख्या के खेल मे कुछ जातियों का गठबंधन तैयार कर सत्ता मे रहना। तीसरी विशेषता रही है उसके द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर  सेकुलरिस्म, मिलीजुली संस्कृति, विभाजित राष्ट्र का नरेटिव तैयार करना और उसका इस कदर प्रचार-प्रसार करना जिसकी आम जनता मे एक सहमति और स्वीकारोक्ति  बन जाये। गंगा-जमुनी संस्कृति इसका एक उदाहरण है।

चौथी विशेषता  उसके द्वारा समाजवाद का बहुत चतुराई से प्रयोग करना और जनमत को सदैव अपने साथ रखना। दूसरी  ओर भाजपा वर्चस्व दलीय-व्यवस्था  है जो राष्ट्रवाद, गैर-परिवारवाद, नव-उदरवादी आर्थिक नीति और नॉन-सेकुलर  धर्म केन्द्रित राजनीति को केंद्र मे रखकर राजनीति  मे है। काँग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों पर ऊपरी तौर पर समानता है पर उसके क्रियान्वयन  पर  मतांतर है।

जहां एक ओर काँग्रेस अमर्त्य सेन के लोक-कल्याणकारी अर्थव्यवस्था के मॉडल को अपनाती है वहीं पर भाजपा पीएन भगवती के बाज़ार केन्द्रित विकास के मॉडल को लेकर चलती है।  पर भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन के जरिये अपने को इतना लचीला बना रखा  है जिसके अंदर अनेक व्यक्ति केन्द्रित और परिवार केन्द्रित दलों का जैसे एसकेडी, शिव सेना, डीएमके, बीजेडी समय समय पर समावेश होता है वहीं पर विगल 7 वर्षों के बीच मोदी सरकार ने लोक-कल्याणकारी योजनयों को भी जारी रखा है। भाजपा वर्चस्व दलीय-व्यवस्था अपने नीतियो मे कठोरता और लचिलापन का अद्भुत संगम है।

उक्त  इन मापदण्डों के आधार पर यदि  अन्य दलों का परीक्षण किया जाये तो अनेक दल सही संदर्भों मे काँग्रेस दलीय-व्यवस्था  का ही विस्तार और कोलोन  है। उनमे से कुछ  दलों ने उसमे क्षेत्रीयतावाद का तड़का मात्र लगाया है।  प्रमुख क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों मे है एआईडीएमके, डीएमके, बीजेडी, आरजेडी, टीडीपी, टीएमसी, बीएसपी, सपा, आरएलडी, वाईआरएससीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, आईएनएलडी, एसएडी, एनपीपी, एनसीपी, एआईएमआईएम, एआईएनआरसी, एआईयूडीएफ़, एजेएसयू, एजीपी, बीएफ़पी, जीएफ़पी, आईयूएमएल, आईपीएफ़टी, जेकेएनपीपी, जेसीसी, जेडी(सेकुलर), जेएमएम, केसी (म), एमजीपी, एमएनएफ़, एमपीसी, एनपीएफ़, शिव सेना, टीआरएस, यूडीपी, जेपीएम इत्यादि।

उक्त दलों के अलावा भी अनेक गैर मान्यताप्राप्त है जिनमे उत्तर प्रदेश मे अपना दल, निषाद पार्टी, प्रगतशील समाजवादी पार्टी, पीस पार्टी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल, एतेहाद ए मिलेत पार्टी, क्वामी एकता दल, जनसत्ता दल लोकतान्त्रिक पार्टी,आज़ाद समाज पार्टी प्रमुख है जो व्यक्ति केन्द्रित है और आगे चलकर परिवार राजवंश मे बदल गए है।   उक्त दलों मे कुछ ऐसे दल है जैसे टीएमसी, एनसीपी, एनपीपी, एनसी, वाईआरएससीपी इत्यादि  जो इंडियन नेशनल काँग्रेस  से ही टूट कर बने है। इनमे से  कुछ दल व्यक्ति केन्द्रित है, कुछ व्यक्ति-परिवार केन्द्रित है। शेष दलों मे सेकुलरिस्म एक विचारधारा के रूप मे कॉमन कारक  है। कुछ दल जैसे शीरोमणि अकाली दल, शिव सेना, मुस्लिम लीग इत्यादि है, जो सेकुलरिस्म की बात नहीं करते पर व्यक्ति या  परिवार केन्द्रित है। यही कारण है कि इन दलों का गठबंधन काँग्रेस और बीजेपी दोनों के साथ  के साथ  होता रहा है।

1952 से 2021 के बीच  प्रदेश और देश मे कुल 17 चुनाव हुये जिसमे कांग्रेस केंद्र की सत्ता में दस बार काबिज रही है और उत्तर प्रदेश मे  सात  बार उसकी सरकार बही। जहां लोकसभा मे विपक्ष को   7 बार मौका मिला वहीं  पर प्रदेश मे 10 बार। विगत 30 वर्षो मे भाजपा प्रदेश और केंद्र मे मुख्य विपक्षी पार्टी रही है। यही रुतबा 1952 से 1989 ताज काँग्रेस का था।  भाजपा ने स्वतंत्र रूप से चार बार सरकार का गठन किया, वहीं 1977 में जनता पार्टी  सरकार की प्रमुख  हिस्सेदार बनी और 1989 में वीपी सिंह की जनता दल की सरकार का बाहर से समर्थन दिया। मजेदार बात यह है कि 1991 के बाद से जब भी केंद्र में बीजेपी या उसकी गठबंधन की  सरकार बनी, उसने उत्तर प्रदेश मे भी सरकार  बनाया।  बावजूद कि प्रदेश में  2004 से लेकर 2013 तक  कांग्रेस की सरकारें थी, उत्तर प्रदेश के सत्ता मे 1989 के बाद से  बीजेपी, सपा और बीएसपी के इर्द गिर्द तक सत्ता की डोर घूमती रही।

2013 मे जैसे ही केंद्र मे बीजेपी सत्ता मे आई, 2017 मे हुये चुनाव मे बीजेपी 315 सीटें लेकर उत्तर प्रदेश मे सत्तासीन हुयी।  बीजेपी को छोड़कर एसपी और बीएसपी यूपीए मे रहकर काँग्रेस का प्रत्यक्ष और अप्रत्येक्ष साथ दिया। जहां 2017 के चुनाव मे सपा ने कॉंग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा लड़ा वही पर 2019 मे अपने पुराने दुश्मन बीएसपी से मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ा।  देखा जाये तो 22 का चुनाव काँग्रेस समेत सपा और बसपा के लिए जीवन मरण का सवाल है। अपनी नीतियो और स्वभाव मे काँग्रेस समेत सारा विपक्ष एक तरफ खड़ा है तो दूसरी ओर भाजपा खड़ी है। बीजेपी वर्चस्व  राजनीतिक व्यवस्था का जन्म हो गया  है।

90 के दशक मे देश मे उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता का सबसे ज्यादा फायदा उत्तर प्रदेश से सपा के मुखिया मुलायम सिंह ने उठाया जो 1989 के बाद से उत्तर प्रदेश मे तीन बार मुख्यमंत्री बने और केंद्र मे रक्षा मंत्री रहे ।  1990 मे वीपी सिंह की सरकार के गिरने के बाद मुलायम सिंह चन्द्रशेखर की जनता पार्टी और काँग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री बने। 1992 मे सपा बनाकर और बीएसपी से गठबंधन कर और जनता दल और काँग्रेस की सहायता से वे 1993 मे दुबारा मुखमंत्री बने। तीसरी बार 2003 मे एक बार फिर जोड़ तोड़ कर   वे मुख्यमंत्री बने।

पहली बार 2013 मे उत्तर प्रदेश मे सपा को स्पष्ट बहुमत मिला तो अपने प्राण-प्रिय भाई शिवपाल सिंह का बलिदान देकर  अपने पुत्र अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया और उत्तर प्रदेश मे डायनेस्टी रूल का सूत्रपात किया। लगभग यही कहानी मायावती के मुख्यमंत्री बनने की भी है और वे भी तीन बार क्रमशः 1985, 1997, 2003 मे बीजेपी की सहायता से  मुख्यमंत्री बनी । 2007 मे बीएसपी को उत्तर प्रदेश मे स्पष्ट बहुमत मिला और वे 2013 तक सत्ता मे बनी रही। देखा जाये तो सपा-बसपा-राष्ट्रीय लोकदल अपने रूप और सार मे काँग्रेस के ही क्षेत्रीय विस्तार है।

लोहिया के परिवारवाद के खिलाफ राजनीति के रथ पर सवार  विपक्षी नेता न जाने कब और कैसे काँग्रेस के ही रथ पर सवा हो गए और काँग्रेस की जोड़-तोड़ की राजनीति का अनुकरण कर सत्ता के रस का आनंद भी उठाया। आज़ादी के बाद से ही काँग्रेस ने ब्राह्मण केन्द्रित सवर्ण , जाटव केन्द्रित दलित और अशरफिया (सवर्ण) केन्द्रित  मुस्लिम का एक कभी न टूटने वाला गठजोर बनाया जिसे आगे चलकर 1984 मे बसपा बनाकर कांसीराम ने तोड़ डाला और रही सही कसर मण्डल कमीशन लाकर वीपी सिंह ने पूरा कर दिया। 1989 से जातियों का यही गठबंधन प्रदेश की अन्य पार्टियों ने अपनाया और आज वे सब उसी द्वंद मे काँग्रेस के सामने एक दूसरे के अस्तित्व के लिए खड़े है।

उपरोक्त तथ्यो से यह निष्कर्ष निकल कर आ रहा है कि प्रदेश की प्रमुख पार्टियां मोटे तौर दो धुर्वों मे बटीं है और उनका  तात्कालिक लक्ष्य येन केन प्रकार सत्ता प्राप्ति है। बीजेपी और काँग्रेस मे अपनी-अपनी नीतियों को लेकर मोटे तौर पर एक निरंतरता रही है और जहां काँग्रेस सेकुलरिस्म के जरिये  अल्पसंख्यक की राजनीति करती है वही पर बीजेपी मे राष्ट्र और धर्म केन्द्रित राजनीति के चलते एक लंबे उद्देश्यों के साथ  राजनीति मे  है। राम जन्म भूमि के मसले पर प्रदेश मे कल्याण सिंह की सरकार ने बाबरी मस्जिद  विध्वंश पर 6 दिसम्बर 1992 मे अपनी सरकार का बलिदान कर दिया।

1995 मे अयोध्या मे बाबरी मस्जिद  का ताला खुलने के बाद बीजेपी का सबसे बड़ा मुद्दा राम मंदिर निर्माण बना  जिस लक्ष्य को उसने 2020 मे हासिल कर लिया  है और मंदिर का निर्माण ज़ोर शोर से चल रहा है। दूसरा सबसे पुराना मुद्दा बीजेपी का था कश्मीर जिसमे  अनुछेद 370 को समाप्त कर उंसने उसको  5 अगस्त  2019 मे पा लिया। तीसरा मुद्दा था तीन तलाक पर प्रतिबंध जिसे भी बीजेपी ने पूरा कर लिया। शेष मुद्दे मे सबसे बड़ा मुद्दा समान नागरिक कानून और एक वृहद भारत के निर्माण को लेकर है जिसको लेकर  बीजेपी अपनी लंबी अवधि की राजनीति का ताना बना बुन रही है। बीजेपी यह निरंतर दावा करती है कि उसकी राजनीति का लक्ष्य राष्ट्र-निर्माण है और सत्ता प्राप्ति उस उदेश्य की प्राप्ति का एक साधन मात्र है।

प्रदेश मे 1989 से  एक लंबे राजनीतिक अस्थिरता के दौर चला।  2007 के बाद प्रदेश मे और 2014 के बाद भारत मे स्थायी सरकारों के निर्माण का दौर चल पड़ा  और जनता ने बहुमत की सरकारों को चुना ।  इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रदेश की राजनीति देश की राजनीति को साफ तौर पर प्रभावित करती है और केंद्र मे सत्ता निर्माण का काम भी करती है। अपवाद के तौर पर 1991 और 2004 के  लोकसभा के  चुनाव मे उत्तर प्रदेश से मात्र 5 और 9 सीट लेकर भी काँग्रेस ने केंद्र मे सरकार का निर्माण किया। जहां 1991 मे  यह स्थिति राजीव गांधी की हत्या से उत्पन्न असामान्य स्थिति  के चलते उत्पन्न हुयी उभरी सहानभूति के लहर का फायदा उसे  मिला।  2004 मे बीजेपी विरोधी गठबंधन का निर्माण हुआ जिसमे काँग्रेस अपनी  घोर विरोधी सीपीएम और अन्य वाम दलों के साथ मिलकर सरकार बनाया। देश मे चुनाव के इतिहास पर दृष्टि डाले तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रदेश मे आज सबसे अनुकूल परिस्थिति बीजेपी के पक्ष मे है क्योकि केंद्र मे सरकार भी उसी की है जिसे प्रधान मंत्री मोदी दो इंजन वाली सरकार पुकारते है।  

एक बात एक दूसरे का समर्थन करती है कि 2014 की केंद्र मे बीजेपी की सरकार ने 2017 मे प्रदेश मे बीजेपी को सत्ता मे पहुचाया और प्रदेश की बीजेपी की सरकार ने 2019 मे बीजेपी को केंद्र की सत्ता मे और भी अधिक सीटों के साथ वापसी दिलाया। इससे एक बात साफ हो जाती है कि 2022 के चुनाव मे बीजेपी की केंद्र की सरकार का प्रत्यक्ष लाभ प्रदेश बीजेपी की सरकार को मिलेगा । अगर 2022 मे बीजेपी के हाथ से प्रदेश की सत्ता निकाल गयी तो 2024 मे केंद्र की सत्ता भी बीजेपी के हाथ से निकल जाएगी। उत्तर प्रदेश पंजाब, बिहार या मध्य प्रदेश नहीं है कि सत्ता चली भी जाये तो बीजेपी की केंद्र की सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर उत्तर प्रदेश मे 50 सीट से कम भी सीटें आयी तो केंद्र की सत्ता विलुप हो जाएगी। 2022 के चुनाव मे बीजेपी के लिए खोने के लिए सब कुछ है वही विपक्ष के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है।

2022 के चुनाव मे देखा जाये तो एक तरफ भाजपा है तो दूसरी ओर काँग्रेस समेत अन्य दल है। काँग्रेस और अन्य विपक्षी  दलों मे अनेक समांताए है जिसमे प्रमुख है व्यक्तिवाद-परिवारवाद। प्रदेश की लगभग सारी पार्टियां परिवार, व्यक्ति और जातियों के धागे मे बंधी हुयी है। एसपी, निषाध पार्टी, सुहेलदेव इत्यादि पार्टियां काँग्रेस का ही क्षेत्रीय  संस्करण बन गयी  है और कांग्रेस् के खिलाफ खड़ी है । दूसरा मुद्दा है सेकुलरिस्म का जिसमे बीजेपी को छोड़कर शेष दल मुस्लिम और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को लेकर चल रही है। इस मामले मे भी वे काँग्रेस का ही विस्तार है। राम मंदिर, कश्मीर, समान कानून संहिता इत्यादि मुद्दों पर वे काँग्रेस के ही समीप है। आर्थिक नीतियों मे भी शेष दलों का दृष्टिकोण काँग्रेस वाला ही है।

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22 के चुनाव मे बीजेपी अपने मुद्दों को लेकर बहुत ही आक्रामक तौर पर उतरेगी। बीजेपी के लिए यह चुनाव लोक सभा के चुनाव का सेमी-फ़ाइनल है। बीजेपी और काँग्रेस मे मूलतः अंतर यह है की जहां काँग्रेस  अपने देश व्यापी उपस्थिती के चलते उत्तर भारत पर अकेले निर्भर नहीं करती वही पर बीजेपी एक उत्तर और मध्य भारत पार्टी है जिसमे उसकी उत्तर प्रदेश मे हार उसे केंद्र की सत्ता से वंचित कर देगा। बीजेपी के लिए  भी 22 का चुनाव जीवन मरण का है।  आगामी चुनाव  द्विधुर्वीकृत वर्चस्व राजनीति के उभार को पूर्ण रूप से स्पष्ट कर देगा। इसमे जातीय पहचान की राजनीति, मजहबी पहचान की राजनीति, धर्म और राष्ट्र पहचान की राजनीति का अभिनव प्रयोग होगा जो यह बताएगा की भारत अभी भी काँग्रेस की जातीय गठजोड़, व्यक्ति-परिवार केन्द्रित राजनीति के साथ है कि भाजपा की धर्म-राष्ट्र-विकास केन्द्रित राजनीति के साथ है।

आने वाले दिनों मे ये दोनों खेमे और भी प्रखर होकर उभरेगे  और अनेक छोटे-बड़े दल  इन्ही दोनों खेमों के अंदर  समा जायेगी या फिर प्रभावहीन अस्तित्व के साथ रहेगी। इसका ताजा उदाहरण 2021 मे पश्चिम बंगाल का चुनाव है जिसमे काँग्रेस और सीपीएम तक शून्य हो गयी। काँग्रेस पार्टी हारी पर टीएमसी के जरिये उसका विस्तार हो गया।  2022 के उत्तर प्रदेश के  चुनाव मे राजनीति के अनेक प्रयोग होगे जिसमे भारत के राजनीतिक भविष्य  की रूप रेखा तैयार होगी।

(लेखक बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं )

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