Sunday - 7 January 2024 - 8:59 AM

बनारसी अड़ी : आदमी हो कि गुजराती ?

अभिषेक श्रीवास्तव 

बात करीब अठारह साल पहले की है। अमेरिका में विश्‍व व्‍यापार की जुड़वा इमारतों में हवाई जहाज घुस गया था। इस घटना ने दुनिया की राजनीति को हमेशा के लिए बदलकर रख दिया, जिसकी छवियां हमें आज अपने देश में भी देखने को मिलती हैं। घटना के छह महीने बाद होली के मौके पर अस्‍सी पर महामूर्ख सम्‍मेलन हुआ। जाहिर है चर्चा का विषय तब तक यही हमला था। बहुत दिन बाद लोग इस बहाने एक-दूसरे से मिल रहे थे। दुआ सलाम राम राम के बाद ओसामा बिन लादेन की मां-बहन से संवाद की शुरुआत हो रही थी।

कार्यक्रम शुरू हुआ तो कविताबाज़ी का दौर चला। नाम नहीं याद है, लेकिन किसी ने कविता सुनायी कि ट्रेड सेंटर में हवाई जहाज नहीं घुसा था, बनारस से एक सांड़ वहां पहुंचकर ऊपर चढ़ गया था जिससे बिल्डिंग भहरा के गिर गयी।

मजमा खत्‍म होने के बाद भी कुछ लोग सांड़ पर ही अटके हुए थे। बीएचयू के एक्‍सपायर हो चुके एक नेता ने हिंदी विभाग के बुद्धिजीवी माने जाने वाले एक प्रोफेसर से पूछा, ‘’गुरुजी, ई बतावा संड़वा रस्‍ता भुला गयल रहे का? सरवा का करे अमेरिका चल गयल?” गुरुजी भी सयाने थे, अपने समवयस्‍क पूर्व छात्र की ज्ञान-पिपासा शांत करते हुए खड़ी में बोले, ‘’जैसे बनारस में चलते-चलते लोग नाला में साइकिल कुदा देते हैं, संड़वा भी वैसे ही भटक गया होगा।‘’

अब तक याद रह गए इस संवाद के बरसों बाद बनारस पर बनी एक नकली फिल्‍म रांझणा आई जिसमें हीरो ने बेमतलब स्‍कूटर को गंगा में कुदा दिया।

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किन्‍हीं शहरों के बारे में कुछ बातें सनातन होती हैं। बनारस तो वैसे भी सनातनियों का गढ़ है। अभी चार दिन पहले पुलिस प्रशासन का एक आंकड़ा जारी हुआ है। इसमें बताया गया है कि इस साल के शुरुआती तीन महीने में 32000 लोगों का ट्रैफिक नियम तोड़ने के लिए चालान हुआ। मने औसतन दस हजार महीना। जैसे मोदीजी खुद मोदीजी के लिए चैलेंज हैं, वैसे ही उनको अपना सांसद चुनने वाला शहर भी खुद को चुनौती देता है और पिछला रिकॉर्ड तोड़ता है। दस हजार प्रति महीना चालान? मजा नहीं आया।

नतीजा हुआ कि अप्रैल के शुरुआती पखवाड़े में केवल 14 दिन के भीतर ट्रैफिक चालान कटने वालों की संख्‍या 15000 को पार कर गई है। यही हालत रही तो अकेले अप्रैल में तीस हजार को यह आंकड़ा पार कर जाएगा।

चालान के मौजूदा आंकड़ों के लिहाज से बनारस ने पूरे यूपी को पीछे छोड़ दिया है लेकिन लोग मान नहीं रहे। जानबूझ कर यातायात नियम तोड़े जा रहे हैं। अब कुछ तो मजबूरियां भी होती हें, ऐसा नहीं कि बनारसी पैदायशी गैर-कानूनी कृत्‍यों के आदी हैं।

यह बात शायद 2011 की है जब जाड़े के मौसम में मैं सिगरा के मधुर मिलन पर लौंगलता उठा रहा था और महमूरगंज से लेकर सिगरा चौमुहानी तक चपसंड जाम लगा हुआ था। शहर में कोई नया कप्‍तान आया था। उसने हैलमेट पहनना अनिवार्य कर दिया था।

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एक सज्‍जन को मधुर मिलन के थोड़ा सा आगे एक सिपाही ने धर लिया और साइड में लखेदने लगा। उस व्‍यक्ति ने आराम से स्‍कूटर रोका, चाबी घुमाकर बंद किया, गाड़ी स्‍टैंड पर लगा दी। सिपाही बोला, ‘’चालान कटेगा।’’ स्‍कूटर सवार ने मौनव्रत धारण किया हुआ था। उसने स्‍कूटर की चाबी सिपाही को पकड़ायी, हाथ से कट लेने का इशारा किया और आगे बढ़ लिया। सिपाही उसके पीछे-पीछे भगा और गट्टे से पकड़ कर बरजोरी करने लगा।

यह देखकर सज्‍जन दुर्वासा हो गए। उन्‍होंने सड़क पर रिक्‍त स्‍थान का मुआयना किया और पाव भर पीक वहां मार दी। ‘’हाथ छोड़’’, वे गरजे। सिपाही का टेप चालू रहा, ‘’ई चाभी अपने पास रखिए, चलिए चालान कटेगा।‘’ ‘’कवने बात क चालान बे’’? सज्‍जन ने मध्‍यमा को कल्‍ले में घुसाकर मुंह खोदते हुए पूछा। सिपाही ने बताया कि हैलमेट नहीं पहनने पर पांच सौ का चालान है।

सज्‍जन का पारा चढ़ा हुआ था, उन्‍होंने गरियाते हुए कहा, ‘’चूतिया हउवे का बे? हेलमेटवा पहिन लेब त पान कइसे थूकब?” उसके थोड़ी देर बाद दृश्‍य बदल गया। कृशकाय सिपाही कोने में हो लिया और सज्‍जन स्‍कूटर लेकर चलते बने।

तीन साल पहले एक किताब दिल्‍ली के पुस्‍तक मेले में हाथ लगी जिसका नाम था, ‘’हेलमेट विरोधी आंदोलन’’। कहानी गुजरात के सूरत के निवासियों की थी जिन्‍होंने हेलमेट अनिवार्य किए जाने के विरोध में आंदोलन छेड़ दिया था और इस नियम को वापस करवा दिया था। बनारस में काफी पहले आंदोलन किए बिना ही 500 रुपये जुर्माने का नियम वापस लेना पड़ गया था।

कहने का लब्‍बोलुआब ये है कि गुजरात और बनारस में यह बुनियादी अंतर है। बनारस नज़ीर बनाता है, गुजरात बाद में फॉलो करता है। इसीलिए गुजरातियों के इस नकलचीपन और नकलीपन से बनारसियों का सनातन विरोध है। मोदीजी पहले और आखिरी गुजराती हुए जिन्‍होंने इतना सधा हुआ अभिनय पांच साल पहले किया कि बनारसियों ने जाने-अनजाने अपनी गाड़ी गड्ढे में कुदा दी। गड्ढा और अभिनय- दोनों का सम्मिश्रण घातक सिद्ध हुआ। बनारसी पांच साल में और बेहया हो गए।

अभी कुछ दिन पहले एक साथी से फोन पर बात हो रही थी। वे साढ़े बाईस कैरट बनारसी हैं। बता रहे थे कि देश भर से लोग पिछले चार-पाच सौ साल में बनारस आकर बसे। मद्रासी, बंगाली, मराठी, सब आए और यहीं के हो गए। अकेले कोई यहां का नहीं हो सका तो वे गुजराती थे।

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उन्‍हें न बनारसी अपना मान पाए और न ही वे बनारस को अपना पाए। इसीलिए जब सामने वाला जब कोई अंडसंड बात करे तो लोग उससे लप्‍प से पूछ देते थे, ‘’आदमी हउवा कि गुजराती?” अब इसका जवाब तो मोदीजी भी नहीं दे सकते। खुद को आदमी बोलें तो गुजरात से जाएंगे, गुजराती बोलेंगे तो…।

आजकल बनारस में इस सवाल की दिशा पलट गई है। मोदीजी 26 अप्रैल को नामांकन से पहले रोड शो करने वाले हैं। उनके रूट पर पड़ने वाले हर घर में जाकर प्रशासन सर्वे कर रहा है कि वहां कितने गुजराती हैं और कितने आदमी। दरवाजा खुलते ही पुलिस पूछ रही है, ‘’आदमी हो कि गुजराती’’? चुनाव से पहले बनारस में आदमियों की छंटाई? खुदा खैर करे…।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, इस लेख में बनारस की स्थानीय बोली का प्रयोग किया गया है )  

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