Sunday - 7 January 2024 - 9:27 AM

आप चुन रहे या चुने जा रहे?

डॉ. श्रीश पाठक

अमेरिका के स्वतन्त्रता संग्राम का प्रमुख नारा था- ‘बिना प्रतिनिधित्व के कर नहीं!’ अपने प्रतिनिधियों को चुनने का हक़, लोकतंत्र में एक बुनियादी हक़ है। शक्ति का केन्द्रीकरण न हो, लोकतंत्र के लिहाफ में कहीं कोई तानाशाह न तनकर खड़ा हो जाए, फिर विकास की बनावट में क्षेत्रीय हिस्सेदारी बनी रह सके, इसलिए प्रतिनिधि प्रणाली, आधुनिक लोकतंत्र में प्रमुखता से अपनाई गई।

भारतीय राजनीति की सीधी तुलना ब्रिटेन से करना या अमेरिका से करना बेहद भ्रामक है क्योंकि भारतीय राजनीतिक प्रणाली अपने आप में अनूठी है, अलग दबावों और अपक्षाओं के साथ पनपी है।

ब्रिटेन में प्रधानमंत्री और अमेरिका में राष्ट्रपति के नाम पर होने वाले चुनावों में भी यद्यपि नागरिक अपने पसंदीदा प्रतिनिधि को ही चुनते हैं। परंतु भारतीय राजनीतिक प्रणाली ने चूँकि संघ और एकात्मक दोनों प्रणालियों का सत्व आत्मसात किया है तो प्रतिनिधि चयन सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।

भारतीय राजनीतिक प्रणाली जैसे-जैसे प्रौढ़ होती जाएगी यहाँ यह तथ्य प्रमुखता से स्पष्ट होना चाहिए कि किसी दल द्वारा समर्थित प्रधानमंत्री उम्मीदवार के प्रभावी व्यक्तित्व को सामने रखकर उस दल द्वारा निर्धारित अयोग्य, अप्रभावी अथवा भ्रष्ट प्रतिनिधि उम्मीदवार का भी चयन उचित नहीं होगा और न ही यह अपेक्षित रहा है।

इस स्थिति का एक लंबे समय तक फायदा कॉंग्रेस ने उठाया और अब भाजपा उसी राह पर है। लोकतंत्र, विकल्पों का तंत्र है। पर जरा देखिये वर्तमान भारतीय राजनीति को, लोकतंत्र में उपलब्ध सहज विकल्प भी सीमित कर दिये जा रहे।

मैनिफेस्टो बस एक रस्मी कवायद

दल प्रणाली के दोष, संविधान निर्माताओं को स्पष्ट थे, परंतु भारत ज्यों स्वतंत्र हुआ उसकी साक्षरता बेहद न्यून थी। उम्मीद की गई थी कि राजनीतिक दल होंगे तो वे वर्ष भर प्रचार-प्रसार, नागरिक सहायता कार्यक्रमों, विरोध-आलोचनाओं आदि के माध्यम से नागरिकों में एक राजनीतिक जागरूकता भरेंगे और इस तरह भारत के लोकतंत्र को एक अपेक्षित त्वरण मिल जाएगा।

एक दल जो अपने उम्मीदवारों को लोकसभा के चुनाव में उतारता है, सत्ता में आने के बाद राष्ट्र के लिए उसकी सोच, उसकी योजनाएँ और उसकी प्राथमिकताओं को जानने का हक़ मतदाताओं को अवश्य है।

पिछले सत्तर सालों में सभी दलों ने चुनाव को जिस तरह से महज एक त्वरित समीकरण में तब्दील किया, मतदाता भी घोषणापत्र की ओर उदासीन रहते हैं। लोकतंत्र में नागरिक को जो विजन के बहुरंगी विकल्प मिलने थे, वह न्यून हुए हैं।

पहले चरण के मतदान से ठीक तीन दिन पहले सत्तासीन राष्ट्रीय दल भाजपा का घोषणापत्र आना और ठीक आठ दिन पहले दूसरे राष्ट्रीय दल कॉंग्रेस का घोषणापत्र आना, यह दर्शाता है कि राष्ट्रीय महत्व के दल भी अपने विजन पर न तो गंभीर हैं और न ही लोकतंत्र में उनकी आस्था ही उतनी मजबूत है।

इन दो दलों के अलावा, बहुतेरे दल हैं जिनके घोषणापत्र संभवतः आए ही न हों और जो आए हों तो उसे वे स्वयम ही बस रस्मी कार्यवाही मान कोरम पूरा कर लिया हो। सोचिए, जब दलों ने जनता से अपना विजन ही साझा नहीं किया हो अथवा बेहद देरी से किया हो तो पिछले छह महीनों से वे जनता के बीच प्रचार किस आधार पर कर रहे थे ?

क्या केवल विरोध के आधार पर एक नकारात्मक प्रचार? कोई प्रतिबद्ध मतदाता यदि घोषणापत्र पढ़कर प्रश्न भी करना चाहे तो कब करे? एक प्रतिबद्ध मतदाता विभिन्न दलों के घोषणापत्रों के बीच तुलना कब और कैसे करे? यह सच है कि मैनिफेस्टो बेहतरीन बना देने मात्र से ही कोई दल अच्छा या बुरा नहीं हो जाता पर ऐसे ही धीरे-धीरे जब लोकतांत्रिक परम्पराएँ अपना महत्व खोने लग जाती हैं तो लोकतंत्र में विकल्प सिकुड़ने लगते हैं, लोकतंत्र की सरिता सूखने लग जाती है और ज़ाहिर है यह सहसा नहीं होता।

प्रत्याशी का चरित्र, प्रदर्शन बनाम चुनाव जीतने की क्षमता

यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि नागरिक अपने प्रतिनिधि के बारे में चुनाव के कुछ दिन पूर्व ही जान पा रहा है। चुनाव प्रारम्भ हो चुके हैं परंतु दल अपने प्रत्याशियों की सूची अभी भी पूरी जारी नहीं कर सके हैं।

किसी एक संसदीय क्षेत्र से प्रत्याशियों में से किसी एक योग्य प्रत्याशी का चयन एक नागरिक के लिए इतना भी आसान नहीं है, उसे तुलनात्मक रूप से किसी एक को चुनना होता है। लेकिन जब दल अपने प्रत्याशियों की सूची, चुनाव के महज कुछ दिन पहले जारी करें तो यह पुनः लोकतंत्र में विकल्पों को सीमित करने की प्रक्रिया होगी।

देखिये, कैसे-कैसे प्रत्याशी, कहाँ-कहाँ से सहसा उतारे जा रहे हैं? चुनाव एक खास समय सीमा में इसलिए कराये जाते हैं कि ताकी मतदाता अपने सांसद और राष्ट्रीय सरकार के प्रदर्शन पर निर्णय ले सके, किन्तु यदि प्रत्याशी कुछ दिन पूर्व ही उतारे जाएंगे और ग्लैमर, धर्म, जाति आदि के आधार पर सहसा पेश कर दिये जायेंगे तो यह नागरिक के साथ तो एक मज़ाक ही माना जाएगा।

इस चुनाव में सभी दल यों तो देश के लिए बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं पर सभी दल बस ऐसे प्रत्याशी को मैदान में उतार रहे जो ग्लैमर और धर्म, जाति आदि पहचानों के आधार पर मत खींच सके चाहे भले ही प्रत्याशी का चरित्र व पूर्व प्रदर्शन अप्रशंसनीय हो और भले ही उन्हें अपने काडर की तथा उस क्षेत्र-विशेष के बुनियादी मुद्दों की उपेक्षा ही क्यों न करनी पड़े! राजनीतिक दल महज इलैक्शन मशीन बन कर रह गए हैं।

अश्लील भड़काऊ बयान

सहसा कोई इतना पतित नहीं हो जाता कि विरोधी प्रत्याशियों के लिए अभद्र अश्लील टिप्पणियाँ करनी पड़ें। चुनाव के दौरान इन टिप्पणियों का एक जाना बुझा मकसद होता है कि मतदाता का ध्यान सही मुद्दों से हटाकर भड़काऊँ मुद्दों पर ले जाया जाय। फिर संघर्ष आसान हो जाता है उम्मीदवारों के बीच।

कामकाज का हिसाब नहीं देना होता, कोई विजन-प्लान के बारे में नहीं पूछता बस भड़काऊ बयानों की पेंग मारी जाती है। राजनीति को इस तरह एक भौंडा मनोरंजन बना एक बार फिर इसमें से लोकतंत्र के स्वस्थ विकल्प न्यून कर दिये जाते हैं।

आप चुन रहे या चुने जा रहे?

ध्यान से देखिये जब विकल्प ही कुतर दिये जाएंगे तो चुनने को शेष क्या रहेगा? हम वोटर होते हैं जब तक स्वविवेक का प्रयोग करते हैं और लोकतंत्र अपने सभी विकल्पों के साथ उपस्थित होता है। लेकिन यदि हम किन्हीं पहचानों के दायरे में स्वयं को जब बांध लेते हैं तब हम एक स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं रह जाते।

जब हम कोई जाति विशेष, धर्म विशेष अथवा क्षेत्र विशेष को ही अपने संपूर्ण व्यक्तित्व पर आरोपित कर देते हैं तो राजनीतिक दलों के लिए वोटर नहीं महज वोट बैंक बन जाते हैं और तब एक वोटर के रूप में हम अपने प्रतिनिधि नहीं चुनते बल्कि एक वोट बैंक के रूप में वे दल हमें चुनते हैं।

यह बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इस स्थिति में चुनाव तो होते हैं, हम मत भी देते हैं परंतु सरकार हमारी नहीं बल्कि दलों की बनती है, जो धड़ल्ले से राष्ट्रहित के ऊपर अक्सर दलहित चुन लेते हैं।

जागरूक रहें, मतदान का अधिकार केवल एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों को मिलता है और स्वतंत्रता हमें अनगिनत बलिदानों के बाद नसीब हुई है, इसका अविवेकपूर्ण प्रयोग राष्ट्रीय अवनति को आमंत्रण देती है।

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