अशोक कुमार
सार्वजनिक क्षेत्र में, बिना राजनीतिकरण के विभिन्न मुद्दों पर विचार ही नहीं किया जाता या हो पाता है। यह एक गहरी जड़ें जमा चुकी प्रवृत्ति है जिसके कई कारण और परिणाम हैं।
राजनीतिकरण के कारण
सत्ता और प्रभाव की होड़: राजनीति का मूल ही सत्ता प्राप्त करना और उसे बनाए रखना है। किसी भी मुद्दे पर चर्चा या निर्णय का इस्तेमाल अक्सर राजनीतिक दल अपने पक्ष में जन समर्थन जुटाने, विरोधियों को कमजोर करने या अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं।
वोट बैंक की राजनीति: विभिन्न समुदायों, जातियों या वर्गों को लक्षित करने के लिए मुद्दे अक्सर राजनीतिक रंग ले लेते हैं। दल विशेष मुद्दों को इस तरह से उठाते हैं जिससे उन्हें किसी विशिष्ट वोट बैंक का समर्थन मिल सके, भले ही समस्या का वास्तविक समाधान कुछ और हो।
मीडिया का प्रभाव: आज के दौर में मीडिया (खासकर न्यूज़ चैनल) भी अक्सर मुद्दों को सनसनीखेज बनाने और राजनीतिक बहस में बदलने में भूमिका निभाता है। टीआरपी (TRP) और व्यूअरशिप के लिए मुद्दों को राजनीतिक चश्मे से दिखाना आम बात हो गई है।
विचारधारात्मक ध्रुवीकरण: विभिन्न राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी विचारधाराएं होती हैं। जब कोई मुद्दा सामने आता है, तो उसे अक्सर इन विचारधाराओं के अनुरूप ढाला जाता है, जिससे समस्या के मूल समाधान से हटकर वैचारिक टकराव शुरू हो जाता है।
जवाबदेही से बचना: कई बार राजनीतिकरण का इस्तेमाल किसी समस्या के लिए जवाबदेही से बचने के लिए भी किया जाता है। जब कोई मुद्दा राजनीतिक बहस का विषय बन जाता है, तो असली समाधान पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय आरोप-प्रत्यारोप का खेल शुरू हो जाता है।
प्रचार और दुष्प्रचार: सोशल मीडिया के दौर में, किसी भी मुद्दे को आसानी से राजनीतिक रंग दिया जा सकता है, फिर चाहे वह सही जानकारी के साथ हो या गलत। दुष्प्रचार (misinformation) और फेक न्यूज़ (fake news) का इस्तेमाल भी राजनीतिकरण को बढ़ावा देता है।
इसके परिणाम
समाधान में देरी: जब मुद्दों पर राजनीतिक बहस हावी हो जाती है, तो उनके वास्तविक समाधान पर ध्यान कम हो जाता है या उसमें अनावश्यक देरी होती है।
गंभीरता का अभाव: गंभीर और जटिल मुद्दे अक्सर सतही राजनीतिक बयानबाजी में सिमट कर रह जाते हैं, जिससे उनकी गहराई और गंभीरता कम हो जाती है।
जनता में भ्रम: लगातार राजनीतिकरण से जनता में भ्रम पैदा होता है कि असली समस्या क्या है और उसका समाधान कैसे होगा। वे अक्सर राजनीतिक दलों के दावों और प्रतिदावों के बीच फंस जाते हैं।
राष्ट्रहित की उपेक्षा: कई बार राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रीय हित से जुड़े मुद्दों पर भी समझौता कर लिया जाता है या उन्हें राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है।
संस्थाओं पर दबाव: राजनीतिक दबाव के कारण कई स्वतंत्र संस्थाएं भी निष्पक्ष होकर काम नहीं कर पातीं, क्योंकि उनके निर्णयों को भी राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है।
क्या बिना राजनीतिकरण संभव है?
पूर्ण रूप से बिना राजनीतिकरण के मुद्दों पर विचार करना एक आदर्श स्थिति हो सकती है, लेकिन व्यवहार में यह काफी मुश्किल है। राजनीति लोगों की आकांक्षाओं और जरूरतों का प्रतिनिधित्व करने का माध्यम है, और स्वाभाविक रूप से कोई भी मुद्दा जो समाज को प्रभावित करता है, वह राजनीतिक दलों के लिए प्रासंगिक हो जाता है।
हालांकि, महत्वपूर्ण यह है कि राजनीतिकरण इस हद तक न बढ़ जाए कि वह समाधान और विकास के रास्ते में बाधा बने। एक स्वस्थ लोकतंत्र में, राजनीतिक बहस होनी चाहिए, लेकिन यह बहस तथ्यों और समाधान पर आधारित होनी चाहिए, न कि केवल आरोप-प्रत्यारोप या वोट बैंक की राजनीति पर।
सार्वजनिक विचार-विमर्श में अधिक परिपक्वता, मीडिया की अधिक जिम्मेदारी और राजनीतिक दलों में राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखने की भावना ही इस प्रवृत्ति को कम करने में मदद कर सकती है।
(लेखक पूर्व कुलपति कानपुर , गोरखपुर विश्वविद्यालय , विभागाध्यक्ष राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर रह चुके हैं)