जुबिली न्यूज डेस्क
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आज एक ऐतिहासिक और संवेदनशील फैसले में अपने ही पुराने आदेश को पलटते हुए, एक नाबालिग के यौन उत्पीड़न केस में दोषी ठहराए गए व्यक्ति को राहत दी है। कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत मिली विशेष शक्तियों का उपयोग करते हुए कहा कि अब इस केस को आगे बढ़ाना “न्याय के हित में नहीं” होगा।
क्या था मामला?
यह केस एक नाबालिग लड़की और एक युवक के बीच संबंधों से जुड़ा था, जिनकी उम्र के अंतर के कारण युवक पर POCSO (Protection of Children from Sexual Offences) Act के तहत मामला दर्ज हुआ। लड़की ने युवक से प्रेम विवाह किया और दोनों का एक बच्चा भी है।
हालांकि, 2023 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने युवक को बरी कर दिया था, लेकिन कोर्ट की ओर से युवाओं को दी गईं नैतिक टिप्पणियों के चलते सुप्रीम कोर्ट ने उस पर सुओ मोटो संज्ञान लिया और केस को फिर से खोल दिया।
सुप्रीम कोर्ट का पुराना रुख और यू-टर्न
20 अगस्त 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए आरोपी को दोषी करार दिया था और कहा था कि पॉक्सो कानून का उल्लंघन हुआ है। इसके बाद एक समिति गठित की गई थी, जो पीड़िता की स्थिति और सामाजिक परिस्थितियों की समीक्षा कर रही थी।
अब, 23 मई 2025 को, जस्टिस अभय एस. ओका ने अपने कार्यकाल के आखिरी दिन यह अहम फैसला सुनाया। उन्होंने कहा:“जिस लड़की को कानून पीड़िता मान रहा है, वह खुद को पीड़िता नहीं मानती। उसे न्याय की प्रक्रिया से तकलीफ़ हुई है, न कि युवक से।”
अनुच्छेद 142 का उपयोग
सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए कहा कि यदि कोई महिला खुद को पीड़िता नहीं मान रही, तो अदालत को भी सामाजिक यथार्थ को समझना चाहिए।कोर्ट ने साफ किया कि “न्याय केवल सज़ा देने का नाम नहीं, बल्कि संवेदनशीलता और परिस्थितियों की समझ भी है।”
क्या था हाई कोर्ट का विवादास्पद बयान?
18 अक्टूबर 2023 को कलकत्ता हाई कोर्ट ने आरोपी को बरी करते हुए कहा था कि:”लड़कियों को अपनी यौन इच्छाओं को नियंत्रित करना चाहिए और 2 मिनट के आनंद पर ध्यान नहीं देना चाहिए।”इस टिप्पणी की व्यापक आलोचना हुई थी और सुप्रीम कोर्ट ने इसे “अवांछनीय” और “अनुचित” करार दिया था।
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समाज में क्या संदेश जाएगा?
कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यह फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था के मानवीय पहलू को दर्शाता है। लेकिन यह भी चिंता बनी हुई है कि क्या इससे पॉक्सो एक्ट जैसे कानूनों की गंभीरता कमजोर होगी?सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय दिखाता है कि कानून को किताबों से नहीं, जीवन की वास्तविकताओं से जोड़कर देखा जाना चाहिए। यह फैसला कानूनी इतिहास में एक मिसाल बन सकता है — जहां न्याय ने संवेदना के साथ समझदारी भी दिखाई।