- अपनों से इजहार-ए-मोहब्बत नहीं करती सपा-भाजपा
नवेद शिकोह
राजनीति दलों से कितनों का ही पुराना इश्क हो लेकिन सियासत को सिर्फ कुर्सी से इश्क होता है। सत्ता पाने या सत्ता सुख कायम रखने के लिए दलों को अपने आशिकों (पारंपरिक वोटरों) से ज्यादा ध्यान उनका रखना पड़ता है जिनसे उनकी दूरी रही हो।
दो अलग-अलग मिसालें हैं। भाजपा के बुरे वक्त के साथी सवर्ण समाज को जाति जनगणना भले ही फिजूल लगती हो लेकिन मोदी सरकार ने अंतोगत्वा जाति जनगणना कराने का फैसला कर ही लिया।
प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को जमानत मिल गई, जमानत से पहले इनकी गिरफ्तारी पर भले ही देश का एक बड़ा वर्ग खासकर धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों ने विरोध प्रकट किया किन्तु धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की पैरोकारी करने वाले सबसे बड़े दल समाजवादी पार्टी मुखिया ने प्रोफेसर अली खान का खुल कर नाम भी नहीं लिया।
सपा को लगता है कि राजनीतिक स्थितियां ऐसी हैं कि मुस्लिम समाज उसे छोड़कर कहीं जाने वाला नहीं। तुष्टिकरण के आरोपों से बचने के लिए अपने सबसे बड़े वोट बैंक मुस्लिम समाज के मामलों में खुल कर सामने आने से बचते हैं। वो इन दिनों दलित समाज और गैर यादव पिछड़ी जातियों का विश्वास जीतने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। कुछ ऐसी ही भाजपा की कार्ययोजना है। यहां भी अपनों को नजरंदाज किया जा रहा है।
कहा जाता है भारतीय जनता पार्टी अपने जन्म से ही अपर कास्ट हिन्दुओं की पार्टी रही है,लेकिन उसे सत्ता तब मिली जब पिछड़ों-दलितों ने पार्टी पर विश्वास जताया।
किसी भी पार्टी को अपने आधार वोट से सत्ता पाना मुश्किल है, अगेंस्ट वोट को अपना बनाने के हुनर में जब कोई पार्टी सफल होती है तब उसे सत्ता प्राप्त होती है।
इस सफलता के लिए अपनों की मोहब्बत दिल में रखते हैं और जिन गैरों को अपना बनाना होता है उनसे मोहब्बत का जिक्र लबों पर कायम रखना होता है। जैसा कि देखा जा सकता है कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व और निर्णायक मंडल ने दलितों-पिछड़ों को संगठन, सरकार और योजनाओं में प्रदर्शित करने का हर संभव प्रयास किया।
विपक्षी राजनीति का सबसे बड़ा हथियार बन रहे जाति जनगणना कराने का मोदी सरकार का फैसला भी पिछड़ों का साथ बरकरार रखने की बड़ी कड़ी है। भाजपा ने इस बात की तनिक भी चिंता नहीं की कि सवर्णों का एक बड़ा वर्ग जाति जनगणना को उपयुक्त नहीं मानता है।
अपनों को क्या रिझाना! अपने तो अपने हैं। अपने आधार वोट बैंक के बारे में राजनीतिक दलों की ऐसे धारणा के पीछे एक फिल्मी गीत जैसी मंशा होती है-
अजी रूठ कर अब कहां जाइएगा,
जहां जाइएगा मुझे पाइएगा..
यही हाल समाजवादी पार्टी का है। पार्टी मुखिया अखिलेश यादव पीडीए फार्मूले पर चलकर भी अपर कास्ट खासकर ब्राह्मण समाज को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
गैर यादव पिछड़ी जातियों और दलित समाज का दिल जीतना सपा का राजनीतिक लक्ष्य बन गया। एक जमाना था जब यूपी में बसपा, सपा, भाजपा और कांग्रेस सबका ठीक-ठाक अस्तित्व था। कांग्रेस की बहुत बुरी दुर्दशा नहीं हुई थी।
बसपा का मजबूत वजूद था। ऐसे में चतुर्भुजी मुकाबले में पच्चीस से तीस फीसद वोट से सत्ता बनाने की जुगत लग जाती थी। ऐसे में तत्कालीन सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव एम वाई (मुस्लिम यादव) समीकरण से सत्ता बना लेते थे।
अब स्थितियां बदल चुकी हैं। कांग्रेस और बसपा हाशिए पर हैं। सपा का सीधा मुकाबला शक्तिशाली भाजपा से है। मुकाबले में आने या जीत के लिए चालीस प्लस फीसद वोट चाहिए होते हैं। ऐसे में समाजवादी पार्टी एम वाई (मुस्लिम -यादव) से सरकार नहीं बना सकती।
इसीलिए अखिलेश यादव गैर यादव पिछड़ी जातियों,दलितों और यहां तक कि अपर कास्ट के जनसमर्थन की जद्दोजहद कर रहे हैं। सपा मुखिया यही धारणा रखते हैं कि भाजपा को हराने की मंशा रखने वाले मुस्लिम समाज के पास सपा के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं।
बसपा या कांग्रेस अकेले भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है इसलिए मुस्लिम समाज के पास सपा के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। यही कारण है कि अखिलेश यादव भाजपा द्वारा बार-बार मुस्लिम तुष्टिकरण की तोहमत से बचने के लिए मुस्लिम समाज की समस्याओं को लेकर खुलकर सामने नहीं आते।
इन दिनों प्रोफेसर अली ख़ान महमूदाबाद की गिरफ्तारी के विरोध को लेकर देश की धर्मनिरपेक्ष शक्तियां मुखर हुई किंतु अखिलेश यादव ने सीधे प्रोफेसर अली का नाम लेकर उनकी गिरफ्तारी का विरोध दर्ज नहीं किया। इस बात को लेकर मुस्लिम समाज का एक वर्ग सपा मुखिया पर नाराजगी व्यक्त करता रहा। प्रोफेसर को जमानत भी मिल गई लेकिन अखिलेश यादव ने अली का नाम भी नहीं लिया।
सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है कि सपा मुखिया को लगता है कि मुस्लिम समाज के पास कोई विकल्प नहीं, अल्पसंख्यक समाज के दुख दर्द की बात वो करें ना करें पर ये समाज वोट तो झोला भर कर देगा ही !
हर राजनीतिक दल का अपना कोर वोटर होता है और उससे ही सबसे करीबी रिश्ता होता है। ये मोहब्बत दोनों तरफ होती है। वोटर अपनी पार्टी से प्यार करता है और पार्टी अपने वोटर का ख्याल रखती है। जैसे भाजपा का आधार सवर्ण वर्ग है और समाजवादी का सबसे बड़ा,पुराना और विश्वसनीय मुस्लिम वोट बैंक है।
सियासी दल अपने-अपने वोट बैंक और उनके विश्वास व अहसास का एहसास करते हैं। इनका ख्याल भी रखते हैं, लेकिन इस मोहब्बत को मंजर-ए-आम पर ज़ाहिर नहीं होने देते। क्योंकि मोहब्बत की दुनिया की तरह सियासत में भी मोहब्बत की बाते खामोशी से होती हैं। यहां गणित भी होती है और कैमिस्ट्री का भी महत्व होता है। बुरे वक्त में भी साथ देने वाले ब्राह्मण बनिया,ठाकुर समाज भाजपा की नींव हैं। पार्टी को ये अहसास है लेकिन सत्ता का फल पिछड़ों-दलितों के खाद्य -पानी ही देता है।
इसी तरह सपा की जड़ें मुस्लिम -यादव हैं। बात साफ है- जड़ें या नींव ही वजूद कायम रखती हैं,लेकिन ये दिखाई नहीं देती। इसका मतलब ये नहीं कि इनकी गहराइयों में झांक कर उसका हाल चाल नहीं लिया जाए। नींव या जड़ें उखड़ गई तो सबकुछ धराशाई हो जाता है।
सत्ता से अंधी मोहब्बत करने वाले दलों को ये सोचना होगा।