उबैद उल्लाह नासिर
प्रतिष्ठित गुजरात समाचार के 93 वर्षीय संपादक और प्रोपराइटर बाहुबली शाह की कथित मनी लॉन्ड्रिंग केस में ईडी द्वारा गिरफ्तारी के बाद अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान को हरियाणा महिला आयोग द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया है।
उधर, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बावजूद, एफआईआर दर्ज हो जाने के बाद भी मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह की न तो गिरफ्तारी हुई और न ही उनसे इस्तीफ़ा लिया गया।
भाजपा सरकारों द्वारा सांप्रदायिक पक्षपात के सैकड़ों-हज़ारों उदाहरणों में यह एक और कड़ी जुड़ गई है। मगर कहते हैं न, “नकटे की नाक कटी, ढाई बालिश्त और बढ़ी।” चाहे जितनी आलोचना हो, चाहे जितनी लानत-मलामत हो, चाहे अदालतों से कितनी ही फटकार क्यों न पड़े—सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। उन्हें भरोसा है कि समाज के एक बड़े वर्ग की ब्रेनवाशिंग वे इस स्तर तक कर चुके हैं कि जितना अधिक वे सांप्रदायिक पक्षपात करते हैं, उतना ही उनका वोट बैंक मज़बूत होता है। भाजपा का एकमात्र लक्ष्य है चुनाव जीतना और किसी भी तरीके से सरकार बनाना।
गुजरात समाचार ने पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर को लेकर मोदी सरकार से कुछ सवाल पूछने का “जुर्म” किया था। ज़ाहिर है, इस पर उनकी गिरफ्तारी तो “बनती” ही थी। डर इस बात का है कि इस बुज़ुर्ग पत्रकार के साथ भी कहीं स्वर्गीय प्रोफेसर साईंबाबा जैसा सलूक न हो।
प्रोफेसर अली खान, सोनीपत स्थित अशोका यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। बहुत कम आयु में उन्होंने बुद्धिजीवियों की दुनिया में एक खास मुकाम बना लिया है।
मूल रूप से लखनऊ निवासी और महमूदाबाद रियासत के राजकुमार हैं। सादा जीवन, उच्च विचार को वे पूरी ईमानदारी से अपनाते हैं। उनसे मिलने वाला कोई व्यक्ति यह नहीं समझ सकता कि वे कितने काबिल, कितने ऊँचे दर्जे के बुद्धिजीवी हैं, और यह भी नहीं कि वे एक बड़ी रियासत के वारिस हैं।
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उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर की दो महिला सैन्य अधिकारियों द्वारा रिपोर्ट पेश किए जाने का स्वागत करते हुए लिखा था:
“दो महिला सैन्य अफसरों द्वारा अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करना महत्वपूर्ण है, लेकिन यह दृष्टिकोण ज़मीनी स्तर पर वास्तविकता में भी दिखना चाहिए, अन्यथा यह केवल पाखंड होगा।”
यह समझना कठिन है कि इन शब्दों में आपत्तिजनक क्या है? महिलाओं का किस प्रकार अपमान हुआ? और इसमें सांप्रदायिकता की बू कहाँ से आई, कि हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष रेनू भाटिया ने उन्हें नोटिस भेजकर पहले जवाब तलब किया और अब गिरफ़्तार भी कर लिया गया।
यदि ‘ज़मीनी स्तर’ कहकर प्रो. अली खान ने देश में मुसलमानों के साथ हो रहे अन्याय–जैसे मॉब लिंचिंग, बुलडोज़र कार्रवाई, फर्जी मुकदमे, जमानत न मिलना, मस्जिदों-मदरसों का ध्वस्तीकरण, बस्तियों को उजाड़ना आदि–की ओर इशारा किया है, तो उस पर नाराज़ होने की बजाय आत्मावलोकन (introspection) की आवश्यकता है। ये सवाल अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उठ रहे हैं।
दूसरी ओर, मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री विजय शाह ने उक्त महिला अफसरों में से एक, कर्नल सोफिया कुरैशी को आतंकवादियों की बहन कह दिया। इस बयान का स्वत: संज्ञान लेते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने पुलिस को तुरंत एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया। मगर पुलिस ने तुरंत कोई क़दम नहीं उठाया, उल्टे उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाने का समय दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी फटकार लगाई और स्पष्ट कहा कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को अपने शब्दों के चयन में सावधानी बरतनी चाहिए।
पुलिस ने पहले मामूली धाराओं में मामला दर्ज किया। जब हाईकोर्ट ने दोबारा नाराज़गी जताई, तब जाकर देशद्रोह आदि की गंभीर धाराएं जोड़ी गईं, मगर अब तक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने साफ़ कह दिया कि केवल केस दर्ज होने से किसी मंत्री को मंत्रिपरिषद से हटाने का कोई सवाल नहीं उठता।
अभिव्यक्ति और असहमति की आज़ादी की लड़ाई बहुत पुरानी है। न जाने कितने लोगों ने इस आज़ादी को पाने और बचाने के लिए क़ुर्बानियाँ दी हैं। हज़ारों शायरों, लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों ही नहीं, बल्कि आम आदमी ने भी इस अधिकार को जीवित रखने के लिए संघर्ष किया है। भारत की स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भी इसी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा है।
अनगिनत कवि, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी अंग्रेजों की जेलों में वर्षों तक बंद रहे, मगर जब बाहर निकले, तो फिर विरोध करने लगे। अंग्रेज सरकार कितने ही अख़बार बंद कराती थी, ज़मानत की बड़ी रकम माँगती थी, मगर पत्रकार हँडोला बेचकर वह रकम जमा कर अख़बार दोबारा निकालते थे।
अंग्रेज सरकार ने जब नेशनल हेराल्ड बंद कराया और भारी ज़मानत की मांग की, तो वह रकम जुटाकर अख़बार फिर निकाला गया। पहले ही संस्करण में फ्रंट पेज पर रामराव जी का संपादकीय था, जिसकी हेडलाइन थी:
“Good Morning Mr. Hallot, we are here again.”
मौलाना आज़ाद के अख़बार अल-हिलाल का टाइटल जब्त कर लिया गया तो उन्होंने उसी तेवर में अल-बलाग नाम से नया अख़बार निकाल दिया।
आज़ादी के बाद हमारे संविधान ने अभिव्यक्ति और असहमति की आज़ादी को संवैधानिक मान्यता देकर आम नागरिक को सत्ता से असहमत होने और विरोध करने का अधिकार दिया। सरकारों को यह अधिकार पहले भी पसंद नहीं था, लेकिन अब तो सारी हदें पार हो चुकी हैं।
पत्रकारों को नौकरियों से निकाला जा रहा है, चैनलों को बंद किया जा रहा है, गिरफ्तारियाँ हो रही हैं।
बक़ौल फ़ैज़:
“चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले…”
अब तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि कब शिकायत का एक शब्द ज़बान पर आ जाए और उसके लिए जेल जाना पड़े। इस व्यवस्था में कोई भी सुरक्षित नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)