कुमार भवेश चंद्र
बिहार अपनी राह तय कर चुका है। प्रदेश का वोटर विधानसभा चुनाव के जरिए देश को एक नया संदेश देने को तैयार है। पहले दौर की वोटिंग के साथ भविष्य की सियासी संभावनाओं को नया रंग मिलता दिख रहा है। कोरोनाकाल का यह पहला चुनाव तो वैसे भी ऐतिहासिक है।
और अब ये तय है कि 10 नवंबर को चुनावी नतीजे के साथ बिहार की जनता भी ऐतिहासिक फैसला सुनाने जा रही है। चुनाव के ऐलान से पहले तक बिहार जिस सियासी तस्वीर को पेश कर रहा था उसमें एक बड़ा बदलाव पहले दौर का चुनाव आते आते साफ तौर पर दिखने लगा है।
सितंबर महीने में चुनाव के ऐलान से पहले तक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विकल्प को लेकर एक असमंजस साफ तौर पर देखा जा सकता था। तब कोई भी राजनीतिक विश्लेषक यह मानने को तैयार नहीं था कि विपक्ष के नेता के तौर पर तेजस्वी नीतीश के पासंग बराबर भी हैं।

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मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर विपक्ष के दावेदार के रूप में तेजस्वी के नाम को लेकर खुद उनके दल के नेताओं और गठबंधन दल के नेता भी बहुत भरोसा नहीं दिख रहा था। उनके भीतर इस बात का डर था कि तेजस्वी को नेता के तौर पर पेश कर वे अपनी ही लड़ाई कमजोर कर देंगे।
लेकिन अब हालात एकदम उलट हैं। तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। चुनावी लड़ाई आगे बढ़ने के साथ ही तेजस्वी का सियासी कद बढ़ता जा रहा है। जनाधार मजबूत होता दिख रहा है। तेजस्वी के बेरोजगार रथ को लेकर आरजेडी के नेताओं को भी पूरा भरोसा नहीं था वहीं आज पूरा बिहार बेरोजगारी के सवाल पर तेजस्वी के पीछे मजबूती से खड़ा दिख रहा है। तेजस्वी की जनसभाओं में नौजवानों का जोश देखने वाला है।

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यह जनसैलाब अगर वोटों में तब्दील हुआ तो तेजस्वी अच्छे मार्जिन से सत्ता में वापसी करेंगे। इस सवाल को फिलहाल आगे के लिए छोड़ देता हूं। लेकिन सियासी रूप से नीतीश के पराभव पर चर्चा करना जरूरी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि नीतीश कुमार अपनी सियासी समझ और व्यवहार के लिए देशभर में एक अलग छवि रखते रहे हैं। लेकिन जैसा कि प्रकृति का नियम है।
हर सुबह की शाम होती है और नीतीश के सियासत की शाम साफ दिख रही है। ‘बिहार में बहार है नीतीशे कुमार है’ का शोर अब नीतीश के लिए आलोचनाओं और अपमानजनक शब्दों के साथ वोटरों की गालियों तक पहुंच चुका है।

दरअसल नीतीश के कमजोर होते जाने की वजह वे खुद तो हैं ही तेजस्वी की बढ़ती ताकत की वजह से भी वह कमजोर दिखने लगे हैं। जैसे जैसे तेजस्वी में नेतृत्व की छवि उभर रही है। नीतीश का विकल्प उभर रहा है नीतीश का भरोसा और उनकी सियासत कमजोर हो रही है।
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बिहार में सुशासन के लिए जाने वाले नीतीश अचानक कमजोर नहीं हुए बल्कि उनकी सियासी ताकत उसी दिन से कम होने लगी थी जब उन्होंने महागठबंधन को छोड़कर बीजेपी के साथ सरकार बनाने नहीं बचाने का फैसला किया। तब बीजेपी का साथ मिल जाने से उनकी सरकार तो बच गई लेकिन उनकी सियासी साख को बड़ा नुकसान पहुंचा।
वे आज भी बीजेपी के साथ सरकार में तो जरूर हैं लेकिन भरोसे पर उस तरह खड़े नहीं। वे कहने को एनडीए के मुख्यमंत्री के पद के दावेदार हैं। सच्चाई यही है कि बीजेपी के लोग भी नहीं चाहते कि अगर उन्हें सरकार बनाने का मौका मिल भी जाए तो वह उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करें।

बीजेपी के केंद्रीय नेताओं से लेकर स्थानीय नेताओं की महात्वाकांक्षा सियासी रूप में अत्यधिक प्रखर बिहार में अपनी सरकार, अपना नेतृत्व देखने की है। उनका नजरिया साफ है कि किसी समय नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को अस्वीकार करने वाले नीतीश कभी सहचर के रूप में उनके साथ नहीं चल पाएंगे।
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गठबंधन में बड़े भाई बने रहने की उनकी जिद की वजह से उन्हें 122 और 121 सीटों का फार्मूला निकालने की मजबूरी बनी। और बीजेपी में अब इसके लिए धीरज बचा नहीं है। इसीलिए बीजेपी ने ‘ऑपरेशन चिराग’ के जरिए एक हल तलाश लिया है। इस बात को बिहार की जनता के साथ अब नीतीश भी समझ गए हैं।

दरअसल नीतीश का मौजूदा कार्यकाल भी विवादों से भरा रहा। न केवल सियासी पाला बदलने की वजह से विवादों से उनका रिश्ता बन गया बल्कि इस कार्यकाल के दौरान सरकार की विश्वसनीयता पर बड़े प्रश्न चिन्ह उजागर हुए।
सृजन घोटाले और मुजफ्फरपुर बालिका सुधारगृह कांड की गूंज तो पूरे देश में सुनाई पड़ी और यहीं से नीतीश कुमार की साफ सुथरी छवि पर दाग धब्बे उभरने लगे। इन दाग धब्बों को साफ करने-धोने की बजाय नीतीश कुमार ने सियासी बयान देने शुरू किए।
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एक मामूली रेल दुर्घटना के बाद रेलमंत्री के पद से इस्तीफा देने वाले नीतीश का ये सियासी पतन उनके समर्थकों के मन में उनकी छवि को मलीन करता गया।
इस चुनाव के दौरान भी नीतीश जिस तरह से अपने सियासी विरोधियों पर वार करने के लिए उनपर निजी हमले कर रहे हैं, उससे उनकी छवि भी गिर रही है और उनको मिलने वाले वोट भी। चुनाव का आखिरी दौर आते आते वे न केवल सत्ता के दौर से बाहर हो चुके होंगे बल्कि बिहार के दिलो दिमाग से भी बाहर होंगे।

कोरोना काल में प्रवासियों के प्रति जगजाहिर हुई उनकी भावना के साथ ही बिहार के विकास को लेकर उनकी सीमित सोच भी आज सवालों में है। विकास के लिए बिहार के समुद्र के किनारे नहीं होने का अफसोस उनके सियासी सोच पर सवाल उठा रहा है।
बिहार में पंचायत स्तर पर महिलाओं को आरक्षण देने और लड़कियों को साइकिल देने की उनकी योजनाएं जरूर उनके सियासी योगदान के तौर पर याद की जाएंगी। लेकिन कहते हैं न कि अंत भला तो सब भला। नीतीश के साथ ऐसा नहीं होने जा रहा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है )
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