Friday - 5 January 2024 - 6:12 PM

हम खुद क्यों मूर्ति नहीं बन जाते

सुरेन्द्र दुबे

कहते हैं कि 12 साल में घूरे के दिन भी बदल जाते हैं। इस कहावत का सीधा सा मतलब यह है कि किसी को जीवन में निराश नहीं होना चाहिए। जीवन एक उतार-चढ़ाव भरी खूबसूरत यात्रा है जिसमें कभी भी किसी के अच्छे दिन आ सकते हैं। मैं उन अच्छे दिनों की बात नहीं कर रहा जिसका नारा वर्ष 2014 में लगाया गया था। जब कोई नेता मुस्करा कर कोई नारा लगाए तो समझ लेना चाहिए कि जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है। मूर्खों की क्या कहें बुद्धिमान भी मूर्ख बन गए। अच्छे दिन तो नहीं आए पर खुद जाने का नाम नहीं ले रहे। अब जनता पूछ रही है कि दुर्दिन कब जाएंगे।

बात घूरे के भी दिन बदलने की चल रही थी तो ब्राह्मणों की याद आ गई। मैं कर्म से नहीं बल्कि जाति से ब्राह्मणों की बात कर रहा हूं। वर्षों से हाशिए पर पड़े थे। भला हो कानपुर के बिकरू गांव के विकास दुबे का जो भले ही गुंडा बदमाश था पर ब्राह्मणों की आत्मा जगा गया। आत्मा निराकार होती है इसलिए वह न तो शरीफ होती है और न ही बदमाश। सो तमाम ब्राह्मणों की आत्मा जग गई।

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उनकी आत्मा जागते ही नेता नगरी में तहलका मच गया। उन्हें लगा कि ब्राह्मणों को फौरन अपने जाल में फांस लेना चाहिए सो उन्होंने घडिय़ाल की तरह आंसू बहाना शुरू कर दिया। घडिय़ाली आंसू का मतलब होता है मक्कारी के आंसू। सो ब्राह्मण काफी होशियारी से इन आंसुओं को निहार रहे है।

ब्राह्मणों की याद ठाकुरों के भगवान राम के मंदिर के लिए भूमि पूजन के बाद में आई है, इसलिए वे बहुत सावधान हैं। सबसे पहले समाजवादी पार्टी ने कहा कि ब्राह्मणों को सम्मान दिलाने के लिए भगवान परशुराम की एक बहुत बड़ी प्रतिमा लगाई जाएगी। ब्राह्मण इस घोषणा से फूल के कुप्पा हो गए। बहन मायावती की त्यौरी चढ़ गईं। जिन ब्राह्मणों को वर्ष 2007 में वह बेवकूफ बना चुकी है उन्हें उनका भतीजा अखिलेश बेवकूफ बना ले ये उन्हें मंजूर नहीं था। सो उन्होंने घोषणा कर दी उनकी पार्टी भी भगवान परशुराम की समाजवादियों से भी बड़ी मूर्ति लगवा देगी। ब्राह्मणों को लगा कि अब उनके दिन भी बहुरने वाले है।

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अब भाजपा कैसे चुप बैठती, जबकि वह तो जनता के बजाय मूर्तियों पर ही ज्यादा विश्वास करती है। सो उसने भी ब्राह्मणों को खुश करने के लिए भगवान परशुराम की एक नहीं अनेक मूर्तियों की घोषणा कर दी। ठीक भी है, अगर जनता की चिंता की जाय तो उसके लिए रोटी कपड़ा और मकान सब कुछ चाहिए। मूर्तियां कुछ मांगेगी नहीं। जहां लगा दी जाएंगी वहीं चुप चाप खड़ी रहेंगी। इन्हें कोरोना भी नहीं होगा। इन्हें किसी भी जमीन पर बगैर नक्शे के स्थापित किया जा सकता है। जब मर्यादा पुरषोत्तम राम के मंदिर के लिए बगैर नक्शा पास कराए भूमि पूजन हो सकता है तो फिर भगवान परशुराम क्यों नहीं खड़े हो सकते हैं। परशुराम तो पूर्ण भगवान नहीं थे। वे अंशावतार माने जाते हैं।

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भाजपा के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया कि सरकार ब्राह्मणों का मुफ्त बीमा कराएगी। यानी कि बेवकूफ बनाने की एक और कोशिश। जिस देश में हर जाति और धर्म के लोग बेवकूफ बनाए जा रहे हों वहां अगर ब्राह्मणों को बेवकूफ शिरोमणि समझ जा रहा है तो इसमें ब्राह्मणों को बुरा नहीं मानना चाहिए।

रोजी रोटी की बात न करो। इलाज की सुविधा नहीं तो परेशान मत हो। अपने आप को मूर्ति बना लो। सारे दुखों से मुक्ति मिल जाएगी। वैसे भी हिन्दू दर्शन में मोक्ष ही असली लक्ष्य माना गया है। इतिहास में तुम्हारा नाम जरूर लिखा जाएगा। आने वाली पीढिय़ां हम पर नाज़ करेंगी कि कैसे सहन शील लोग थे जो मूर्तिवत सब सहते रहे। उफ़ तक नहीं की।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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