जुबिली स्पेशल डेस्क
पटना। बिहार में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) को लेकर विवाद गहराता जा रहा है।
चुनाव आयोग के अनुसार, इस प्रक्रिया का करीब 88% काम 15 जुलाई (सोमवार) तक पूरा हो चुका है, जबकि शेष 10% के लिए अभी 10 दिन का समय है। हालांकि, दस्तावेज़ मांगने और नाम हटाने को लेकर कई गंभीर सवाल उठ रहे हैं, जिस पर अब एनडीए की सहयोगी पार्टी टीडीपी ने भी नाराज़गी जताई है।
क्या है विवाद की जड़?
- ग्राउंड रिपोर्ट्स के मुताबिक, एसआईआर प्रक्रिया के दौरान कई गड़बड़ियां सामने आई हैं:
- कुछ जगह आधार कार्ड अनिवार्य बताया गया, तो कुछ जगह बिना दस्तावेज़ ही फॉर्म स्वीकार कर लिए गए।
- कहीं जन्म प्रमाण पत्र मांगा गया, तो कहीं बीएलओ (BLO) ने अपने स्तर पर नाम हटाने या जोड़ने की संस्तुति कर दी।
- कई बूथों पर सैकड़ों नाम पहले से ही काटे गए पाए गए।
- हालांकि चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि दस्तावेज देना अनिवार्य नहीं है, फिर भी बीएलओ द्वारा दस्तावेज़ मांगे जाने से मतदाताओं में भ्रम और चिंता का माहौल है।

राजनीतिक दलों की आपत्तियां
- टीडीपी (तेलुगु देशम पार्टी) की आपत्ति
- एनडीए की सहयोगी टीडीपी ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर कहा है चुनाव से ठीक पहले वोटर लिस्ट में बड़े बदलाव न किए जाएं।
- जिनके पास पहले से वोटर कार्ड है, उनसे फिर दस्तावेज़ मांगना गलत है। एसआईआर की आड़ में नागरिकता तय करने जैसे फैसले न लिए जाएं।
- विपक्षी दलों की राय
कांग्रेस, आरजेडी, वाम दल, टीएमसी, सपा, शिवसेना (उद्धव गुट), झामुमो जैसे दल पहले ही इस प्रक्रिया पर आपत्ति दर्ज करा चुके हैं। - भाकपा-माले महासचिव का. दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा “यह कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है। बीएलओ आधार, जन्म प्रमाण पत्र, माता-पिता के दस्तावेज मांग रहे हैं। इससे पूरे बिहार में भय का माहौल है।”
जेडीयू और आयोग की सफाई
जेडीयू नेता राजीव रंजन ने कहा पारदर्शिता ज़रूरी है — जिनके नाम हटाए जाएं, उनकी सूची सार्वजनिक की जाए।
दस्तावेज़ अनिवार्य नहीं होने चाहिए। बीएलओ को स्पष्ट निर्देश मिलने चाहिए कि वे दस्तावेज़ मांगने के लिए दबाव न बनाएं। वहीं, चुनाव आयोग का दावा है कि एसआईआर प्रक्रिया नियमित और रूटीन है, और किसी को डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे मेल नहीं खा रही।
तो क्या है असली चिंता?
- चुनाव से ठीक पहले वोटर लिस्ट में छेड़छाड़ की आशंका
- बीएलओ की मनमानी और भ्रम की स्थिति
- दस्तावेज मांगने की अनौपचारिक नीति
- राजनीतिक विश्वास की कमी और पारदर्शिता पर सवाल
बिहार में वोटर लिस्ट संशोधन प्रक्रिया एक रूटीन कार्य जरूर है, लेकिन इसके तरीके और समय ने इसे राजनीतिक और सामाजिक विवाद का विषय बना दिया है। जब चुनाव जैसे संवेदनशील समय में नाम हटाने, दस्तावेज मांगने और प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी दिखाई देती है, तो चुनाव आयोग की जवाबदेही और भरोसेमंद छवि पर सवाल उठना लाज़मी है।
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