Saturday - 13 January 2024 - 4:46 PM

डूबती कांग्रेस को सोनिया का सहारा

कृष्णमोहन झा

19 सालों तक लगातार कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर काबिज रह चुकी सोनिया गांधी अब पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बन गई है। 17वीं लोकसभा के चुनाव में पार्टी की शर्मनाक हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने वाले राहुल गांधी यह चाहते थे कि पार्टी का नया अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति हो, परंतु वे यह भी चाहते थे कि पार्टी पर गांधी परिवार का वर्चस्व पहले की भांति ही बना रहे।

ढाई माह तक कई नामों पर चर्चा चलती रही परंतु आखिर में हुआ वही जो पहले से तय माना जा रहा था कि अध्यक्ष पद गांधी परिवार के पास ही रहेगा। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की अनुपस्थिति में यह तय किया गया कि सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनने के लिए मनाया जाना चाहिए। बैठक की समाप्ति के बाद जब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी के पास जाकर उनसे पार्टी का अध्यक्ष बनने के लिए हामी भरवाई ,तब कहीं जाकर ढाई माह से चल रही असमंजस की स्थिति से बाहर निकलने में पार्टी को कामयाबी हाथ लगी।

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ढाई महीने चले इस असमंजस के कारण पार्टी को कई बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कर्नाटक और गोवा सहित कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी के कई विधायकों ने पार्टी का साथ छोड़ दिया। राज्यसभा में बहुमत न होने के बावजूद मोदी सरकार ने कई महत्वपूर्ण विधायकों को पारित कराने के लिए फ्लोर मैनेजमेंट में सफलता हासिल कर ली। कांग्रेस का साथ छोड़कर जिस तरह कई विपक्षी दलों ने इन विधेयकों को पारित कराने में सरकार का साथ दिया, उसने कांग्रेस पार्टी को मन मसोसकर रह जाने के लिए विवश कर दिया।

जम्मू कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 की निष्प्रभावी करने के मोदी सरकार के फैसले पर कांग्रेस पार्टी सदन के अंदर घिरी हुई नजर आई, इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि पार्टी नया अध्यक्ष चुनने में इतना विलंब कर दिया कि तब तक संसद का सत्रावसान हो चुका था। सोनिया गांधी को वर्तमान चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में अंतरिम अध्यक्ष बनाना पार्टी के सही फैसला भले ही हो, परंतु यह फैसला अगर उसने संसद सत्र के शुरू में ही ले लिया होता तो शायद सदन में पार्टी एकजुट दिखाई देती।

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दरअसल राहुल गांधी ने यह ठान ही लिया था कि नए कांग्रेस अध्यक्ष सत्र चुनाव होने तक भी अध्यक्ष पद की कोई जिम्मेदारी नहीं संभालेंगे। उन्हें यह भय सता रहा था कि अगर वह काम चलाओ अध्यक्ष के रूप में भी बने रहेंगे तो , तब उनके लिए अध्यक्ष पर बने रहने के लिए दबाव पड़ जाएगा ,इसलिए उन्होंने पार्टी को उसके हाल पर छोड़कर पद मुक्त हो जाने का फैसला ही उचित समझा।

बहरहाल सोनिया गांधी ने कांग्रेस की डूबती नैया को बचाने के लिए अंतरिम अध्यक्ष बनना तो स्वीकार कर लिया ,परंतु उनके सामने इतनी कठिन चुनौतियां हैं, जिनसे पार पाना आसान नहीं है। विभिन्न राज्यों में पार्टी के अंदर मची खींचतान और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों पर पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं के विचारों से युवा नेताओं का सहमत ना होने से कांग्रेस पार्टी की जो किरकिरी हो रही है, उसे देखते हुए सोनिया गांधी की राह आसान प्रतीत नहीं होती।

इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रियंका गांधी वाड्रा पार्टी मामलों में उनकी विशेष सलाहकार की भूमिका निभाने के लिए हमेशा तैयार रहेंगी। राहुल गांधी ने भी पार्टी अध्यक्ष पद भले ही छोड़ दिया हो ,परंतु सोनिया गांधी उनकी राय को भी तरजीह देती रहेंगी। अभी सोनिया गांधी को यह तय करना है कि राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रदेशों में जो नियुक्तियां की थी, उन में फेरबदल किया जाए अथवा नहीं। यह भी बताया जाता है कि सोनिया गांधी फिलहाल पार्टी के पुराने पदाधिकारियों को बदलने के पक्ष में नहीं है, लेकिन जिन प्रदेश समितियों में खींचतान ज्यादा है ,वहां तो उन्हें फेरबदल करना ही पड़ेगा। ऐसे राज्यों में हरियाणा और झारखंड सबसे आगे है।

झारखंड प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष ने कुछ दिनों पूर्व ही राज्य के वरिष्ठ पार्टी नेताओं पर गंभीर आरोप लगाते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र विधानसभाओं के इसी साल होने वाले चुनावों को देखते हुए सोनिया गांधी को इन राज्यों में बड़े बदलाव के लिए विवश होना पड़ सकता है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि हाल के लोकसभा चुनावों में अधिकांश राज्यों में पार्टी को जिस शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है, उसने इन राज्यों में कार्यकर्ताओं के मनोबल को बुरी तरह तोड़ कर रख दिया है। उन राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा और उत्साह जगाना आसान नहीं है, लेकिन सोनिया गांधी के प्रति पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का पुराना आदर भाव उनका काम थोड़ा आसान कर सकता है।

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सोनिया गांधी ने जिस दिन पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष पद स्वीकार किया उसके पूर्व ही संसद से मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का विधेयक पारित करा लिया। यह विधेयक दोनों सदनों में जिस तरह दो तिहाई बहुमत से पारित हुआ ,उसने मोदी सरकार के हौसलों को बुलंद कर दिया। जितना सरकार का आत्मविश्वास बढ़ा हुआ है, उतना ही कांग्रेस पार्टी का मनोबल टूटा हुआ है।

लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने जब यह तर्क दिया कि जब कश्मीर मामले की मॉनिटरिंग संयुक्त राष्ट्र कर रहा है तो यह भारत का आंतरिक मामला कैसे हो गया, तब सोनिया गांधी भी उनके इस तर्क से असहज हो उठी थी। अधीर रंजन के इस भाषण ने सत्तापक्ष को कांग्रेस पर और आक्रामक होने का बड़ा अवसर उपलब्ध करा दिया।

जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करने के मोदी सरकार का बड़ा फैसला वास्तव में कांग्रेस पार्टी के लिए मुश्किल की वजह बन गया है। इस फैसले का सारे देश में जिस तरह स्वागत किया है और मोदी शाह की जय जय कार की जा रही है ,उसे कांग्रेस पार्टी पचा नहीं पा रही है। दरअसल कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा इस फैसले के विरोध में जो बयान दिए जा रहे हैं ,उनसे मोदी सरकार को उन पर निशाना साधने के रोज नए अवसर मिल रहे हैं। पहले मणिशंकर अय्यर ने उत्तरी भारत के फिलिस्तीन जैसी स्थिति निर्मित होने वाला बयान दिया और इसके बाद पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने यह बयान दे दिया कि अगर जम्मू कश्मीर मुस्लिम बहुल राज्य नहीं होता तो मोदी सरकार वहां से अनुच्छेद 370 नहीं हटाती। इन बयानों के पीछे भले ही राजनीतिक लाभ लेने की मंशा हो, परंतु यह कहना मुश्किल है कि कांग्रेस पार्टी को ऐसे बयान कोई राजनैतिक लाभ पहुंचा सकेंगे। अब पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को तय करना है कि जम्मू कश्मीर के बारे में ऐसे बयानों का सिलसिला जारी रखना पार्टी को किस तरह लाभ पहुंचाएगा।

दरअसल कांग्रेस पार्टी यह समझना ही नहीं चाहती कि देश की जनता का क्या मूड है। आश्चर्य की बात यह है कि कांग्रेस के जो उभरते हुए युवा नेता हैं ,उन्होंने तो मोदी सरकार के उक्त फैसले के समर्थन में खड़े दिखने में कोई संकोच नहीं है ,परंतु बुजुर्ग नेता अपना रुख बदलने के लिए तैयार नहीं है। बुजुर्ग नेता यह बात मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा जारी रखने के पक्ष में दी जा रही दलीलें कांग्रेस पार्टी की जनता से दूरियों को और बढ़ा रही हैं।

कुल मिलाकर यह मानना गलत नहीं होगा सोनिया गांधी की राजनीतिक सूझबूझ और अनुभव का लाभ कांग्रेस पार्टी को तभी मिल सकेगा, जबकि सरकार की आलोचना करते समय जनता के मूड का भी ध्यान रखने की भी जरूरत महसूस की जाए। आखिर देश की जनता के मूड को न समझ पाने की जो गलती कांग्रेस ने हाल के वर्षों में की है, उसका ही नतीजा है कि पार्टी लोकसभा चुनावों में 52 सीटों पर सिमट कर रह गई है। अब देखना यह है कि सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष के रूप में इस हकीकत को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं या नहीं ।

(लेखक डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)

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