Friday - 5 January 2024 - 7:06 PM

माहवारी के दौरान छुट्टी मिलनी चाहिए या नहीं?

कामकाजी महिलाओं को माहवारी के दौरान छुट्टी मिलनी चाहिए या नहीं? यह बहस या विवाद का मुद्दा क्यों होना चाहिए? मगर यह विवाद और बहस का मुद्दा बन गया है.इसकी ताजा वजह, केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी का एक बयान है. उनका कहना है कि माहवारी के लिए छुट्टी की ज़रूरत नहीं है. यह बीमारी या विकलांगता नहीं है. उनके मुताबिक, सरकार का माहवारी छुट्टी देने के बारे में कोई प्रस्ताव नहीं है.

माहवारी कोई बीमारी या विकलांगता नहीं है, स्मृति ईरानी का यह कहना तो ठीक है. माहवारी क़ुदरती प्रक्रिया है. यह स्त्री की ज़िंदगी के साथ जुड़ा है. अपने जीवन का बड़ा हिस्सा वह माहवारी चक्र के साथ गुज़ारती है. इसलिए इसे सामान्य बात माना जा सकता है. मगर क्या वाक़ई ऐसा है?

माहवारी अनेक लड़कियों और स्त्रियों के लिए सामान्य या रोजमर्रा की बात नहीं है. यह प्रक्रिया कइयों के लिए काफ़ी तकलीफ़देह है. माहवारी शुरू होने से पहले और माहवारी के दौरान अनेक महिलाएँ जिस तजुर्बे से गुज़रती हैं, वे वही समझ सकती हैं.

 माहवारी के दौरान तन-मन में ढेरों बदलाव होते हैं.इस प्रक्रिया के शुरू होने से पहले लड़कियों या स्त्रियों में कई तरह की परेशानी होती है. इसे माहवारी से पहले की परेशानी कह सकते हैं. अंग्रेजी में इसे पीएमएस या प्री-मेंस्ट्रयूल सिंड्रोमकहा जाता है. इसमें मन के साथ-साथ तन में बदलाव होतेहैं.

मेडिकल साइंस तो ये कहता है कि ये बदलाव 200 तरह के हो सकते हैं. इसमें मन का उतार-चढ़ाव ज़बरदस्त होताहै. लड़कियों का मूड का़फी तेज़ी से ऊपर नीचे होता है. तनऔर मन दोनों तकलीफ़ देते हैं. चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है.दुख तारी रहता है. बात- बात पर रोने का मन करता है.

तनाव और चिंता हावी रहती है. नींद नहीं आती. सरदर्द, थकान रहती है. शरीर में तेज़ दर्द होता है. पेट में दर्द होता है. उल्टी होती है. चक्कर आता है. पैरों में ज़बरदस्त खिंचाव महसूस होता है. यौन इच्छाएँ घटती-बढ़ती हैं. पेड़ू में तकली़फ बढ़ जाती है.

पेट फूल जाता है. गैस कीशिकायत होती है. छाती में सूजन आ जाती है. जोड़ों औरमाँस पेशियों में दर्द होता है. कब्ज़ियत हो जाती है. कई तो इस दौरान बेहद बेबस और बेसुध हो जाती हैं.

लम्बी उम्र तक इस हालत से महिलाओं को हर महीने गुज़रना है. किसी को ऐसी तकलीफ़ एक -दो दिन रहती है तो किसी के लिए यह ज़्यादा होता है. वे इनके साथ हर महीने जीती हैं.

स्त्रियों की ज़िंदगी कोई कल्पना नहीं है. वह हक़ीक़त है. और हक़ीक़त यह है कि कामकाजी महिलाओं को इसी तरह की तकलीफ़देह माहवारी के साथ या तो कामकाज पर जाना पड़ता है या दफ़्तर में काम करना पड़ता है या मजबूरन छुट्टी पर जाना पड़ता है. वे इसी हाल में घर के भी सारे काम करती हैं.

ऐसे में यह सवाल लाज़िमी है कि जब महिलाओं को क़ुदरती तौर पर एक प्रक्रिया से हर महीने गुज़रना पड़ता है तो उन्हें राहत देने के लिए कुछ उपाय क्यों नहीं होने चाहिए? उन्हें वेतन के साथ ऐसी छुट्टी क्यों नहीं मिलनी चाहिए जो उन्हें तकलीफ़देह दिनों में राहत पहुँचाए? यह कोई उपकार नहीं होगा बल्कि काम की गुणवत्ता और माहौल को बेहतर बनाएगा.

महिलाओं की तकलीफ़ ऐसा नहीं है कि कभी सुनी नहीं गई या किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया. तीन दशक पहले बिहार सरकार ने इस सिलसिले में बड़ा कदम उठाया था. बिहार की महिला राज्य कर्मचारियों को साल 1992 में यह हक़ मिला था कि वे हर महीने माहवारी के दौरान दो दिनों की छुट्टी ले सकती हैं. यह छुट्टी उन्हें 45 साल की उम्र तक मिल सकती है. कई मामलों में पिछड़े बिहार का यह प्रगतिशील कदम था.मगर बिहार के इस कदम से किसी और राज्य ने प्रेरणा ली हो, ऐसी ख़बर नहीं है. गाहे ब गाहे ख़बरों में ज़रूर बिहार की इस महत्वपूर्ण छुट्टी की चर्चा होती रहती है.

जब भी महिलाओं की ज़िंदगी बेहतर बनाने और उनकी ख़ास ज़रूरतों को ध्यान में रखकर कोई नया क़ानून बनाया जाता है या कोई अधिकार देने की बात होती है तो एक हल्ला ज़रूर होता है- इस क़दम से महिलाओं का नुक़सान होगा या महिलाएँ इसका ग़लत इस्तेमाल करेंगी. ख़ासकर तब, जब वह क़ानून परिवार और काम के क्षेत्र में लागू होता है. हम घरेलू हिंसा या उत्पीड़न के क़ानून में भी ऐसा देख सकते हैं और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से बचाने वाले क़ानून को लागू करने के दौरान ऐसा सुनते रहे हैं.

माहवारी की छुट्टी के सिलसिले में भी ऐसे ही तर्क दिए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि माहवारी की छुट्टी देने की वजह से महिलाओं को काम नहीं मिलेगा या काम मिलने में दिक़्क़त होगी.सवाल है, यह दिक़्क़त किसकी है- महिलाओं की या सरकार की या नौकरी देने वालों की?महिलाओं के लिए उठाए जाने वाले हर कदम के साथ ऐसे ढेरों किंतु-परंतु लग जाते हैं.

अगर महिलाओं की ज़िंदगी बेहतर बनाने वाले क़ानूनों से महिलाओं के लिए अवसर कम होते हैं, तो यह चिंता बतौर समाज हमें करनी है. यह चिंता सरकार को करनी है. ऐसा भेदभाव न हो, इसके उपाय करने होंगे. इसका उपाय यह तो क़तई नहीं हो सकता कि कोई क़ानून ही न बनाया जाए या महिलाओं की ज़िंदगी को बेहतर बनाने के उपाय न किए जाएँ.

इस वक़्त माहवारी के दौरान वेतन के साथ छुट्टी के कई रूप हैं. उनके आधार पर तय किया जा सकता है कि कौन सा रूप हमारे लिए बेहतर होगा या कौन सा रूप लागू किया जाए. मगर किसी काल्पनिक डर से इसे लागू ही न किया जाए, यह ठीक नहीं होगा. यक़ीन जानिए, इससे काम पर बुरा नहीं बल्कि अच्छा असर पड़ेगा. काम की गुणवत्ता में निखार आएगा. बतौर समाज और देश हम और ज़्यादा संवेदनशील बनेंगे. बेहतर इंसान और समाज बनेंगे.

इसमें दफ़्तरों में काम करने वाले पुरुषों की भी अहम भूमिका होगी. वे महिलाओं के जीवन में इस छुट्टी की ज़रूरत समझें. इस छुट्टी के लिए खड़े हों तो वे एक बेहतर साथी के तौर पर सामने आएंगे. जब बिहार या स्पेन या देश ही कई कम्पनियाँ तनख़्वाह के साथ माहवारी छुट्टी दे सकती हैं तो इस पर कोई राष्ट्रीय नीति या क़ानून क्यों नहीं बन सकता.क्यों नहीं इसे बाक़ी कंपनियाँ और संस्थान अपने यहाँ लागू कर सकते हैं. चाहिए तो बस ज़रा सी इच्छा शक्ति. लेकिन यह इच्छा शक्ति स्त्रियों के जीवन में बड़ा क़दम होगी.

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