Tuesday - 9 January 2024 - 2:48 PM

टिड्डियों का हमला तो आम बात है, फिर इतना शोर क्यों?

डॉ. प्रशान्त राय

विश्व भर में 2020 का वर्ष लगातार प्राकृतिक या यूँ कहें तो जैविक आपदावो से घिरा हुवा वर्ष साबित हो रहा है। पहले क़ोरोना नामक एक विषाणु पूरे विश्व पर क़ब्ज़ा किया और तमाम विकसित और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को धाराशाई कर दिया। दूसरी तरफ़ आसमानी रास्ते से विश्व के कई देशों में अब टिड्डियों का विशाल दल अपनी किसानो के खेतों में अपनी धाक जमाकर प्रलय लाने की कोशिशों में जुड़ा हुवा है। ऐसा भी नहीं है कि विश्व में ये पहली बार कोई वाइरस आया है या टिड्डियाँ आई हैं लेकिन ऐसी विभत्स स्थितियाँ ज़रूर पहली बार आईं हैं। और ये प्रकृति द्वारा पूरे मानव जाति को एक गुप्त संदेश भी है क्योंकि मानव जाति इससे पहले प्रकृति का बहुत दोहन किया है और करता भी आ रहा है।

पिछले दिनों ऑस्ट्रेलिया में भीषण दावानल में जमीन झुलस गई। लोग और वन्यजीव मर गए। मकान जलकर राख हो गए। इस दावानल की तीव्रता और फैलाव से बिल्कुल साफ है कि इसका संबंध जलवायु परिवर्तन से है। दुनिया के इस हिस्से में हालांकि जंगल में आग लगना आम घटना है, लेकिन इन दावानलों की वजह गर्मी का बढ़ना था, जिस कारण जमीन सूख गई और क्षेत्र विस्फोटक स्थिति में पहुंच गया। इसके साथ ही साथ लगातार सूखा पड़ा। इन दोनों ने मिलकर दावानल के लिए आदर्श स्थिति पैदा कर दी। इन अग्निकांडों पर दुनियाभर की नजर पड़ी, लेकिन इससे भी बदतर मानवीय त्रासदी हमारी दुनिया में हुई और इसका ताल्लुक भी जलवायु परिवर्तन से है।

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अभी भारत को देखें तो टिड्डियों के दल ने राजस्थान और गुजरात के खेतों पर धावा बोला और फसलों को निगल गया, जिससे किसानों की जीविका बर्बाद हो गई नुकसान कितना हुआ है, इसका बहुत मामूली आकलन हुआ, अलबत्ता सरकारों की तरफ से दिल्ली के क्षेत्रफल के तीन गुना हिस्से में कीटनाशक का छिड़काव किया गया है। ऑस्ट्रेलिया अग्निकांड की तरह इस मामले पर भी कहा जा सकता है कि टिड्डियों का हमला तो आम बात है, फिर इतना शोर क्यों? लेकिन जब इसकी गहन पड़ताल जाय तो संभवतः यहाँ भी जलवायु परिवर्तन एक मुख्य कारण हो सकता है, टिड्डियों का जो हमला हो रहा है, उसमें बदलाव आया है व इसका संबंध बेमौसम बरसात से है।

ऐसा न केवल भारत बल्कि टिड्डियों के दूसरे जन्मस्थानों लाल सागर से लेकर अरब प्रायद्वीप और ईरान तक में हो रहा है। टिड्डी बहुत तेजी से विकसित होती हैं। इनके एक औसत झुंड में 80 – 100 लाख टिड्डी होती है, जो एक दिन में 2,500-3,000 आदमी या 10-13 हाथी जितनी फसल खा सकती हैं। पहले प्रजनन में टिड्डी 20 गुणा बढ़ जाती हैं, दूसरे प्रजनन में 400 गुणा और तीसरे प्रजनन में 16 हजार गुणा बढ़ जाती हैं। इसका मतलब है कि अगर प्रजनन की अवधि बढ़ जाए, तो उनकी संख्या में बेतहाशा इजाफा हो जाएगा।

अगर थोड़ा पहले ज़्यादा नहीं एक दो साल केवल) चला जाए तो मई 2018 में मेकुनु चक्रवात और इसके बाद अक्टूबर 2018 में लुबन चक्रवात के कारण अरब प्रायद्वीप में भारी बारिश हुई व रेगिस्तान में तालाब बन गए, जो टिड्डी के प्रजनन के लिए अनुकूल माहौल होता है। गरीबी और युद्ध के शिकार इस क्षेत्र में उस साल टिड्डी ने फसलों को भारी तबाही मचाई थी, लेकिन बाहरी दुनिया में ये खबर नहीं पहुंची, या कहें कहीं गुम हो गई। इसके बाद जनवरी 2019 में लाल सागर के तटीय क्षेत्र में बेमौसम भारी बारिश हो गई। इस क्षेत्र में बारिश की अवधि बढ़कर 9 महीने की हो गई, जिससे ये टिड्डी दल कई गुणा बढ़ गए।

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इस साल टिड्डियों का आकार सामान्य से काफी बड़ा है जिससे भारी नुकसान होने की आशंका है लेकिन, ऐसा क्यों हुआ? इसकी कई कड़ियां हैं, जिनकी समीक्षा की जरूरत है। पहला, इस बार पाकिस्तान के सिंध प्रांत और पश्चिमी राजस्थान में बेमौसम बारिश हुई थी। भारत का ये रेगिस्तानी हिस्सा (पश्चिमी राजस्थान) टिड्डी के प्रजनन के लिए अनुकूल क्षेत्र नहीं है। प्रजनन के लिए इन्हें गीली और हरियाली से भरी जमीन चाहिए। लेकिन, पिछले साल भारत के इस हिस्से में बारिश तय समय से पहले हुई थी, इसलिए मई 2019 में हमें टिड्डियों के हमले की खबर मिली थी, लेकिन इसकी अनदेखी की गई। इसके बाद मॉनसून की अवधि भी बढ़ गई और अक्टूबर तक इसकी विदाई नहीं हुई। मॉनसून की विदाई होते ही टिड्डी पश्चिमी एशिया व अफ्रीका का रुख करती हैं, लेकिन मॉनसून के रुक जाने और बारिश जारी रहने के कारण टिड्डियां यहीं रुक गईं और प्रजनन करने लगीं।

सच बात तो यह है कि टिड्डियों पर काम करने वाले विज्ञानी कहते हैं कि इस क्षेत्र में टिड्डियां इतना ज्यादा बढ़ गईं कि यहां पर्याप्त खाद्यान्न उत्पन्न नहीं हो सका। इसके साथ ही चक्रवात से हवा का पैटर्न बदल गया। हवा के रुख पर टिड्डियों की यात्रा निर्भर करती है। भारत में टिड्डी अमूमन मॉनसून की हवाओं के साथ आती हैं। विज्ञानी बताते हैं कि साल 2019 में टिड्डियों ने ईरान पहुंचने के लिए अफ्रीका और फारस की खाड़ी से होते हुए लाल सागर को पार किया। सर्दी के मौसम में टिड्डियां ईरान में रहती हैं। ईरान से ये विनाशकारी शक्ल अख्तियार कर पाकिस्तान और भारत का रुख करती हैं। जनवरी-फरवरी 2020 में जब टिड्डियां गुजरात व राजस्थान से पाकिस्तान-ईरान रवाना हुईं, तो वह उनकी तीसरी पीढ़ी थी। इनका जन्म मॉनसून की बढ़ी हुई अवधि में राजस्थान में हुआ था। यही वजह है कि इस बार नुकसान ज्यादा हुआ है और किसान दयनीय हालत में पहुंच गए हैं।

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ऐसे तमाम सबूत हैं, जो बताते हैं कि इस क्षेत्र में बेमौसम बारिश या बढ़ते चक्रवात, जलवायु परिवर्तन से जुड़े हुए हैं। अतः एक-दूसरे पर आश्रित और वैश्विक दुनिया में हम जो देखना शुरू कर रहे हैं, इसे समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है। यह केवल पूंजी या लोगों की उड़ान की बात नहीं है। यह ग्रीनहाउस गैस की भी बात नहीं है, जो सीमा से परे है। ये मौसम में बदलाव के कारण कीट-पतंगों के संक्रमण के भूमंडलीकरण और कीटों के हमले की बात है।

लेकिन, घनघाेर असमान और सूचनाओं में मामले में बंटे इस संसार में खतरनाक यह है कि ऑस्ट्रेलिया में दावानल के बारे में तो हम जानते हैं, लेकिन हमारे आसपास हो रहे टिड्डियों के हमलों की हमें कोई जानकारी नहीं है। हम कड़ियों को नहीं जोड़ पा रहे हैं। एशिया से अफ्रीका तक जलवायु के जोखिम के बीच रह रहे अपने लोगों के दर्द को हम समझ नहीं सकते। अतः अच्छा हो कि हम उन्हें कुछ कहना या उपदेश देना बंद कर दें और अपने स्तर पर मिलकर काम करें। समस्या हम हैं। वे हमारी समस्याओं के शिकार हैं और यह बिल्कुल भी सही नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि ये टिड्डियां और क़ोरोना हमें अकाल की याद दिलाती हैं। अगर हम प्रकृति के इस गुप्त संदेश को गम्भीरता से नहीं लेंगे तो भविष्य में ऐसी आने वाली चुनौतियों के लिए हमलोगों को ज़रूर भारी नुक़सान उठाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

(डॉ. प्रशांत राय, सीनियर रिचर्सर हैं। वह देश-विदेश के कई जर्नल में नियमित लिखते हैं।) 

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