Sunday - 7 January 2024 - 6:01 AM

2070 में दुनिया की एक-तिहाई आबादी को करना पड़ सकता है भीषण गर्मी का सामना

  • गर्म होता हुआ पर्यावरण अकेले भारत में एक अरब से ज्यादा लोगों को प्रभावित करेगा
  • नाइजीरिया, पाकिस्तान, इंडोनेशिया और सूडान में 10 करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित होंगे

न्यूज डेस्क

दुनियाभर के पर्यावरणविद् और वैज्ञानिक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की गुहार लगा रहे हैं। पर्यावरण को लेकर उनकी चिंता को न तो सरकारें समझ रही है और न आम लोग। उन लोगों की चिंता यूं ही नहीं है। ग्लोबल वार्मिंग का असर दिख रहा है बावजूद इस दिशा में कोई कारगर और ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है।

एक नए अध्ययन में कहा गया है कि अगले 50 वर्षों में, 2 से 3.5 अरब लोगों को भीषण गर्मी का सामना करना पड़ सकता है। इनमें ज्यादातर लोग गरीब होंगे, जो एयर कंडीशनिंग (एसी) का खर्च नहीं उठा सकते। ऐसी स्थिति न आए इसके लिए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की हिमायत की गई है।

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नीदरलैंड्स में हुए एक महत्वपूर्ण अध्ययन में यह पाया गया है कि अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं किया गया तो अगले 50 सालों में दुनिया की लगभग एक-तिहाई आबादी भीषण गर्मी में रहने पर मजबूर हो जाएगी।

नीदरलैंड्स की वगेनिंगेन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के मुताबिक साल 2070 तक लगभग 3.5 अरब लोग ऐसे इलाकों में रह रहे होंगे जहां अनुमान है कि औसत सालाना तापमान 29 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाएगा, अगर वो वहां से दूसरे इलाकों में रहने नहीं चले जाते।

पीएनएएस जर्नल में 4 अप्रैल को यह अध्ययन प्रकाशित हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कितने लोग खतरे में होंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कितना होगा और दुनिया की आबादी कितनी तेजी से बढ़ती है। जनसंख्या वृद्धि और कार्बन प्रदूषण के मामले में सबसे खराब स्थिति के तहत लगभग 3.5 अरब लोग बेहद गर्म क्षेत्रों में रहेंगे। यह 2070 की अनुमानित आबादी का एक तिहाई है।

अध्ययन का नेतृत्व करने वाले मार्टेन शेफर ने बताया कि ऐसे हालातों में रहने का मतलब यह होगा कि इंसान पिछले 6,000 सालों से जिस विशिष्ट पर्यावरण स्थिति में रह रहा है, विश्व की आबादी का एक बड़ा हिस्सा उस से बाहर चला जाएगा।

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शेफर का कहना है, “कोरोना वायरस ने दुनिया को ऐसा बदल दिया है जैसा कुछ ही महीनों पहले तक कल्पना करना भी मुश्किल था और हमारे नतीजे ये दिखाते हैं कि जलवायु परिवर्तन भी ऐसा ही कुछ कर सकता है।”

शेफर ने यह भी कहा कि पर्यावरण संबंधी ये बदलाव उतनी जल्दी नहीं होंगे जितनी जल्दी कोरोना वायरस महामारी से होने वाले बदलाव सामने आ रहे हैं, लेकिन महामारी के बारे में जो उम्मीद है कि भविष्य में स्थिति बेहतर होगी वो उम्मीद जलवायु परिवर्तन से नहीं की जा सकती। शेफर और उनके सहयोगियों ने आंशिक रूप से अपनी निष्कर्षों को पुराने डाटा के विश्लेषण पर आधारित किया है।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय के जलवायु वैज्ञानिक नताली महोल्ड ने कहा कि यह कम समय में लोगों की बहुत बड़ी संख्या है। यही कारण है कि हम चिंतित हैं। उन्होंने और अन्य वैज्ञानिकों ने कहा कि पिछले शोधों की अपेक्षा इस नए अध्ययन में मानव निर्मित  जलवायु परिवर्तन की आत्यधिकता की तुलना अलग तरीके से की गई है।

जलवायु परिवर्तन को अलग तरीके से देखने के लिए अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने भालू, पक्षी और मधुमक्खियों पर अध्ययन किया, जिसे “जलवायु आला” कहते है। उन्होंने 6,000 साल पहले के तापमान का अनुमान लगाया जो 52 से 59 डिग्री के बीच औसत वार्षिक तापमान होने की बात कही गई।

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भविष्य में देखने के लिए वैज्ञानिकों ने संयुक्त राष्ट्र की इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की 2014 में जारी हुई पांचवीं आकलन रिपोर्ट में से एक जलवायु पूर्वानुमान का इस्तेमाल किया। ये रिपोर्ट यह मान कर चलती है कि वातावरण में रहने वाली ग्रीनहाउस गैस कंसंट्रेशन मोटे तौर पर बिना किसी रोक टोक के बढ़ते रहेंगे, जैसे वो पिछले कई दशकों से बढ़ते आ रहे हैं।

वैज्ञानिकों ने पाया कि 2070 तक 29 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा सालाना औसत तापमान वाले इलाकों का प्रतिशत 0.8 से बढ़कर 19 प्रतिशत हो जाएगा।

अध्ययन से निष्कर्ष निकाला है कि दुनिया की आबादी और बढ़ती गर्मी को देखते हुए अफ्रीका, एशिया, दक्षिण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बड़े पैमाने पर इन देशों में तापमान की सीमा समान होगी।

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गर्म होता हुआ पर्यावरण अकेले भारत में एक अरब से ज्यादा लोगों को प्रभावित करेगा और नाइजीरिया, पाकिस्तान, इंडोनेशिया और सूडान में 10 करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित होंगे। शेफर कहते हैं, “इसका ना सिर्फ एक विध्वंसकारी सीधा असर होगा, बल्कि इससे दुनिया के देशों के लिए नई महामारी जैसे भविष्य के संकटों से निपटना और मुश्किल हो जाएगा”।

शेफर बड़ी संख्या में इन इलाकों से माइग्रेशन की भविष्यवाणी करने से रुक गए। उन्होंने कहा की माइग्रेशन ट्रिगर करने वाले कारण कई तरह के और पेचीदा होते हैं। हां, उन्होंने यह जरूर कहा कि ये अध्ययन वैश्विक समुदाय से अपील करने के काम आएगा कि कार्बन उत्सर्जन को जल्द कम किया जाए।

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