Sunday - 7 January 2024 - 11:39 AM

कांग्रेस का भला तभी होगा जब उसे ये समझ में आ जाए ?

कुमार भवेश चंद्र

“नेक नीयत से हासिल की गई मंजिल स्थायी होती है।” 28 फरवरी को भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की पुण्य तिथि पर उन्हें याद करते हुए कांग्रेस ने यह ट्विट किया है। ट्विट के साथ कांग्रेस ने उनकी एक तस्वीर अटैच की है जिसपर लिखा है, “मंजिल की ओर आगे बढ़ते हुए याद रहे कि मंजिल की ओर बढ़ता रास्ता भी उतना ही नेक हो।”

सोशल मीडिया पर अपनी कमजोर मौजदूगी के अलावा कांग्रेस की तमाम दिक्कतों में फलसफे का कमजोर होना भी एक अहम समस्या है। संगठन के अलावा कांग्रेस अपने मुद्दे और भविष्य की नीतियों पर भी साफ नहीं दिख रही। कांग्रेस पर पिछले लेख में मैंने संगठन के स्तर पर उसकी कमजोरियों पर बात की थी।

मसला चाहे केंद्रीय नेतृत्व के संकट को सुलझाने का हो या प्रदेश में दिग्गज नेताओं के बीच चल रहे अंतर्द्वंद्व की अनदेखी का हो, कांग्रेस के भीतर की चुप्पी उसे अंधेरे की ओर ही ले जा रही है।

दिल्ली की शर्मनाक हार के बावजूद पार्टी के भीतर किसी तरह की चिंता का न होना, इस राष्ट्रीय पार्टी के भविष्य और औचित्य पर सवाल खड़े करता है। और अगर नेतृत्व सचमुच दिल्ली के नतीजे से चिंतित है या उसके कारणों की तह में जाना चाहता है तो अब तक उसे इस दिशा में कदम बढ़ा देना चाहिए था।

नेक मंजिल की तलाश में इतनी देर क्यों? बिहार के चुनाव उसके सामने है। झारखंड में छोटी से कामयाबी के बाद तो बिहार को लेकर उसकी उत्सुकता और तैयारी तो और भी बड़ी होनी चाहिए। लेकिन अभी तक जमीन पर ऐसा दिख नहीं रहा है।

नेतृत्व को लेकर अपनी स्थिरता को समाप्त कर कांग्रेस को जिस ओर बढ़ना है उसमें पहला स्थान आता है मुद्दों का चुनाव। 2019 में जिन नकारात्मक मुद्दों की वजह से कांग्रेस की फजीहत हुई उसे पीछे छोड़कर आगे निकलना उसके लिए बहुत ही जरूरी है।

“चौकीदार चोर है” का नारा कांग्रेस को सत्ता की ओर नहीं ले जा सकता। उसे मौजूदा शासक की कमजोरियों की कम और अपने मुद्दों की बात अधिक करनी पड़ेगी। मोदी कमजोर हैं। मोदी बेरोजगारी हल नहीं कर पा रहे हैं। मोदी समाज को तोड़ रहे हैं। मोदी धार्मिक मुद्दों को हवा देकर देश को विभाजन की ओर ले जा रहे हैं।

ऐसे सवाल उठाने के बजाय उसे अपने मुद्दे को आगे करना होगा। उसे उन लोगों के मुद्दों पर बात करनी होगी जो इस कठिन समय में भी उसके साथ खड़े दिख रहे हैं।

कांग्रेस को ये बात ध्यान में रखना होगा कि देश की 19 फीसदी जनता अब भी उसके साथ खड़ी है। उसे वोट कर रही है। ये कौन लोग हैं? उनकी क्या भावनाएं हैं? वे उनसे क्या उम्मीद रख रहे हैं? वे किन सवालों को आगे करना चाहते हैं?

अगर कांग्रेस इस बात की पहचान करने की बजाय मोदी सरकार के प्रयासों को छोटा करने की या छोटा दिखाने की ही कोशिश में ही अपनी सारी ऊर्जा बर्बाद करती रही तो समझ लीजिए उसने तय कर लिया है कि उसे अभी और नीचे जाना है।

बीजेपी की सियासत से उसे समझ लेना चाहिए कि उसने अपने विरोधी नेताओं की विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाने और संगठन को मजबूत करने का काम साथ साथ किया है। इसके अलावा बीजेपी नेता अपने एजेंडे को जनता के सामने भी रखते चल रहे हैं। बीजेपी के तीनतरफा प्रयास को समझने की बजाय कांग्रेस ‘मोदी विरोध’ के एकालाप पर फोकस करती हुई दिख रही है।

कांग्रेस को ये समझना होगा कि जिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सवालों पर वे बीजेपी सरकार को आज घेर रहे हैं उनपर उनके पास क्या वैकल्पिक रोडमैप है? कांग्रेस को ये लगता है कि वे इन मुद्दों को केवल चुनावों से ठीक पहले जनता के सामने रखेंगे तो वे शायद बदलती सियासत को समझने की भूल कर रहे हैं।

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देश का वोटर अब इतना परिपक्व हो गया है कि केंद्र और प्रदेश चुनाव के लिए अलग अलग तरीके से वोट कर रहा है। ये पहली बार दिल्ली में नहीं हुआ है। ये 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी हुआ है और उसके बाद प्रदेश के सभी चुनावों में भी हुआ है।

इन मुद्दों के अलावा कांग्रेस को जमीन पर अपनी ताकत और क्षेत्रीय दलों की ताकत की पहचान भी बहुत जरूरी है। उसे पता होना चाहिए कि प्रदेशों में ताकतवर क्षेत्रीय दलों को साथ लिए बगैर वह खड़ी नहीं हो सकती। अगर उसे ये भ्रम है कि यूपी और बिहार में उसके लिए पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसी स्थिति हो जाएगी तो वह भयंकर भूल कर रही है।

2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए की ताकत के बावजूद वह 262 सीटों तक ही पहुंच पाई थी। क्षेत्रीय ताकतों की पहचान और उनका सम्मान कांग्रेस भूल रही है। महाराष्ट्र का ही उदाहरण ले लीजिए। शरद पवार के प्रयासों से शिवसेना के साथ सरकार बनाने का मौका मिलने के बाद भी कांग्रेस ने जिस तरह रुख दिखाया उससे उसकी इस कमजोरी खुला प्रदर्शन हुआ।

उद्धव ठाकरे के आमंत्रण के बावजूद शपथ ग्रहण में सोनिया गांधी या राहुल की गैरमौजूदगी कांग्रेस की कमजोरी के तौर पर सामने आया। कांग्रेस अगर 2024 से पहले के सभी प्रदेश विधानसभा के चुनाव में क्षेत्रीय क्षत्रपों-दलों के साथ बेहतर तालमेल और सम्मान का भाव रखेगी तो निश्चित ही 2024 के चुनाव में इसका लाभ मिलेगा।

यूपी में सियासत को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस ने जिस तरह सपा और बसपा के साथ तीखी मोर्चेबंदी शुरू की है वह उसके लिए घातक साबित हो सकती है। अगर उसे यूपी में बीजेपी से लड़ना है तो उसे अभी से ही सीधी लड़ाई उसके विरुद्ध ही रखना होगा। अगर विपक्षी दल ही एक दूसरे के सामने कट्टर दुश्मन की तरह खड़े होंगे तो इसका लाभ किसे मिलेगा इसे समझने के लिए कोई बड़ा दिमाग नहीं चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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