Sunday - 7 January 2024 - 12:38 AM

चाणक्य के लड्डू : ये नहीं चखा तो कुछ नहीं किया

प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव

यह वह समय था जब स्टेडियम के आसपास कुछ भी नहीं था। बस सामने एक थका सा पार्क मुखर्जी फुहारऔर उसी में एक पान की दुकानऔर एक टी स्टाल हुआ करता था।

फिर चौराहे का कायाल्प हुआ। दुकानें बनीं। यह बात है 1983 की। इन्हीं दुकानों में एक दुकान जिसका नाम था चाणक्य के लड्डू।

दुकान के मालिक फैजाबाद निवासी दर्शन सिंह बताते हैं कि प्रशानिक अधिकारी अखण्ड प्रताप सिंह ने किसी मौके पर उनसे वादा किया था कि वो उनको एक दुकान जरूर एलाट करेंगे।

जब स्टेडियम के बाहर कोने में दुकानें को लिए जमीन एलाट की जाने लगी तो अखण्ड प्रताप जी ने अपना वादा निभाया।

‘यूं तो मैं कानपुर में नौकरी कर रहा था। लेकिन दुकान मिलने के बाद यह तय करना था कि उसमें खोला क्या जाए।

फिर लोगों ने सलाह दी कि चूंकि बगल में स्टेडियम है तो यहां मट्ठा, लस्सी, बर्फी, कुल्फीऔर देशी घी के लड्डू का बिजनेस खूब फले फूलेगा। सलाह जम गयी। फिर ये मसला खड़ा हो गया कि आखिर नाम क्या रखा जाए।

मैराथन माथापच्ची के बाद तय हुआ कि चूंकि चाणक्य बुद्धिमान थे सो हमारे लड्डू खाकर कोई भी बुद्धिमान बन सकता है। इस तरह नींव पड़ी चाणक्य लड्डू की।” बताते हैं दर्शन सिंह।

‘मैं विचारों से गांधीवादीऔर दिल से समाजवादी हूं। जनेश्वर मिश्र मेरे गुरु थे। जार्ज फर्नाडीज मेरे सखा। नितीश कुमार से लेकर कोई भी ऐसा नेता नहीं होगा जो मेरी दुकान पर मट्ठाऔर लड्डू चखने न आया हो।

खिलाड़ियोंऔर फिल्म कलाकारों की लम्बी सूची है। चरित्र अभिनेता प्राण साहब ने तो लड्डू खाकर यहां तक कहा कि अगर मैं पहले से बराबर यह लड्डू खा रहा होता तो मेरी उम्र दस साल तो बढ़ ही जाती।

नवीन निश्चल जब भी लखनऊ आये हमारे यहां जरूर पहुचते थे। “हम मट्ठा मशीन से नहीं निकालते। उसमें सारा क्रीमऔर मक्खन निकल जाता है जो सेहत के लिए निरर्थक ही है। हमारे यहां आज भी मट्ठा मथानी से मथकर निकाला जाता है।

यही बात हमारी कुल्फी के साथ भी लागू होती है। हम फ्रीजर में नहीं जमाते बल्कि 500 किलो बर्फ खर्च कर घड़े में हिला हिलाकर जमाते हैं। फ्रीजर में जमाने से सारा मेवा नीचे बैठ जाता है जबकि देशी स्टाइल में पूरी कुल्फी में मेवा जगह जगह मिलता है।

‘हम सभी आइटम शुद्ध देशी घी में बनाते हैं। हमारे यहां जो स्वाद 1983 में था, वह आज भी मिलता है। हां, दाम में जरूर फर्क आया है। पहले बर्फी 28 रुपये किलो मिलती थी अब पांच सौ रुपये किलो हो गयी है।

गोमती पार के ग्राहक शिकायत करते थे कि उन्हें इतनी दूर चल कर आना पड़ता है सो हमने भूतनाथ मार्केट में भी अपना एक आउटलेट खोल दिया है। वहां भी वही सामान मिलता है जो यहां तैयार होता है। हम अपने वर्कर्स को एक जैसा ही ट्रीट करते हैं। जो खाना हलवाई को मिलता है वही बर्तन मलने वाले को भी मिलता है।”

‘हमने जुमैटोऔर स्विगी से इस लिए टाइअप नहीं किया कि वे 20 प्रतिशत कमीशन मांगते हैं जबकि हम इतना ही मुनाफा लेते हैं। अगर हम उन्हें 20 प्रतिशत देंगे तो हमें अपने सभी आइटम के दाम बढ़ाने पड़ेेंगे। जो हम कतई नहीं चाहते।”

‘हमारे पिताजी जगदम्बा सिंह जी का कहना था कि दुकानदार को मुलायम होना चाहिए, महिला को शर्मदार होना चाहिएऔर शासक को सख्त होना चाहिए। अब अगर दुकानदार सख्त हो जाए तो क्या दुकान चलेगी इसी तरह अगर शासक मुलायमित अपना ले तो भी काम नहीं चलेगा? मैं कहता हूं कि हमारी बर्फी जच्चा खाए बच्चा भूल न पाए।

जहां तक इस काम को आगे बढ़ाने की बात है तो मेरा एक बेटा है जो हाईकोर्ट में वकालत करता है। मैं अब 73 का हो गया हूं लेकिन मुझे विश्वास है कि इस परम्परा को आगे भी जारी रखने में मेरा बेटा जरूर अपना कर्तव्य निभायेगा।”

 

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