Monday - 22 January 2024 - 9:44 PM

स्वयं गढ़िए अपनी सफलता का पैमाना

सीमा रहमान 
आज के दौर मे हम मे से कोई भी सामान्य नही बल्कि सम्पूर्ण दिखना चाहता  हैं , और हम में से लगभग हर व्यक्ति हर समय सम्पूर्णता की इस दौड़ मे भागता रहता  हैं। पूर्णता यानी परफेक्शन  के पीछे भागते हुए अक्सर जितनी अपेक्षा सबसे ज़्यादा  स्वयं से रहती है,उतनी ज़्यादा किसी भी और व्यक्ति से नही होती।
Seema Rahman
हम अपनी उपलब्धियों से स्वमूल्य यानी  सेल्फ वर्थ  को जोड़ने लगते हैं, और इसी परफेक्शन की तलाश हमें अक्सर मानसिक और शारीरिक दोनो ही तरह से थका देती है।  पर चूकि हम कहीं ठहरने का रिस्क नही लेना चाहते हैं क्योंकि फिर हमें लोगों से पीछे रह जाने का डर सताने लगता है, इसलिए भागते रह्ते हैं। यहाँ तक की भागते भागते थक कर चूर हो जाते हैं किसी अंजानी मंज़िल की तलाश मे।
लगता है, कि शायद हम इस मंज़िल पर पहुंच कर खुश और सम्पूर्ण मह्सूस करे,खुश हो या पर वो मंज़िल आखिर तक नज़र नही आती जिसकी तलाश मे हम निकले थे। हम अपनी सेल्फ वर्थ को बाहरी उपलब्धियों से जोड़ते रह्ते है,और ऐसा मह्सूस करते हैं की हर समय हम को अपनी कीमत साबित करनी है।
पूर्णता की चाह मे भागते भागते हम कोई भी ऐसा काम नही करना चाहते जिसमे थोडा सा भी असफल होने का खतरा हो या जिसके नतीजे के विषय मे हम पूर्ण रूप से आश्वस्त ना हों। और इस डर के कारण हम अपनी मौलिकता को कहीं पीछे छोड देते हैं।  हम उन चीज़ों को करते ही नही जो शायद हम सबसे ज़्यादा करना चाहते है और सब से बेहतर कर सकते हैं, और जो शायद हम को सच्ची खुशी और पूर्ण होने का अहसास दे।
हम कोई भी गलती करने से डरते रह्ते हैं, डरते हैं कि यदि कोई गलती की तो उसका नतीजा क्या होगा,लोग क्या कहेंगे पर लोगों से ज़्यादा खुद की सेल्फ वर्थ का खोना हमें भयभीत किए  रह्ता है।क्योंकि हम ने अपनी सेल्फ वर्थ यानी स्वमूल्य को अपनी बाहरी उपलब्धियों से जोड़ रखा है।   इसी डर की वजह से हम अक्सर सही समय पर सही निर्णय नही ले पाते हैं।
हम अपने विकल्पों  को सीमित कर देते हैं क्योंकि हम को लगता है कि अगर हमारी पसंद का नतीजा हमारे मुताबिक नही रहा तो सह नही पायेंगे । हम कोई भी खतरा मोल  लेना नही चाहते हैं। यही नही,अगर हम उस मंज़िल तक पहुंच भी जाते हैं जहां पर पहुंचना हमारा लक्ष्य था , या जो हमारा अभीष्ट था तो अक्सर हम उस से भी संतुष्ट नही हो पाते। 
फिर एक अजीब खालीपन मह्सूस करते हैं क्योंकि तब हम को वो भी काफी नही लगता है, हमे लगने लगता है कि शायद थोडा और प्रयास करके हम इस से बेहतर नतीजा हासिल कर सकते थे , और इस तरह हम कभी भी अपने जीवन को उसके सहज रूप मे स्वीकार नही कर पाते हैं।
ऐसी सोच और भावना का मुख्य कारण ये है कि हम एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं जो हम पर हर समय किसी ना किसी कारण एक दबाव बनाये रखता है,और ये बहुत कम उम्र से ही शुरु हो जाता है।  जब हम प्ले स्कूल जाते हैं तब भी, और जब नियमित स्कूल मे दाखिले का समय आता है तब भी और फिर तो जीवन पर्यन्त किसी ना किसी लक्ष्य के पीछे भागते रहने का सिलसिला सा चल पड़ता है जिसका अन्त कभी नही आता है।
मैने अक्सर लोगों के साथ बातचीत करते हुए मह्सूस किया है कि लोग अपने जीवन मे चाहे बाहरी रूप से कितने भी सफ़ल हो जाएं या उनकी कितनी भी बड़ी उपलब्धियां हो वो भीतर से शान्ति और खुशी नही मह्सूस करते हैं।  ऐसा होने का एक बड़ा कारण ये भी है कि अक्सर जो लक्ष्य  उन्होनें खुद के लिये बनाये थे और हासिल भी थे,वो उनके अपने  लक्ष्य थे ही नहीं ।
जब तक हम खुद को किसी और के मापदंडों पर तौलते रहेंगे ये सिलसिला चलता रहेगा दूसरों के मापदंडों पर पूरा उतरने की कोशिश मे कोई भी ना तो सफलता पा सकता है ना ही खुशी,क्योंकि कभी भी कोई और ये तय ही नही कर सकता कि हमारे लिये ये ही सही है या काफी है।
इसलिये हमे इस चक्रव्यूह से निकलना होगा जहां हम स्वयं का मूल्याङ्कन अपनी उपलब्धियों के आधार पर करते हैं और ये जानने की कोशिश करनी होगी कि वो कौन सी चीज़े हैं जो हम को खुशी और सन्तोष देती हैं।
यदि हम एक बार ये समझ पाने मे सफ़ल रह्ते है तो आगे हम हर परिस्थति मे कोई भी निर्णय इसी मापदंड के अनुसार करते हैं और समय के साथ हम हर फैसला अपने आंतरिक शन्ति और सुख के लिये करना सीखते हैं जो पर्सनल ग्रोथ की एक सीढ़ी है और तब हम लोगों की नजरों मे परफेक्ट दिखने की दौड़ से भी निकल जाते हैं ।
हम सब को ये याद रखना हर समय ज़रूरी है कि हम सब लोग अलग हैं और सफलता का कोई एक मापदंड सब के लिये तय  नही किया जा सकता है। ये कोई समस्या नहीं है हमें  किसी और के जैसा जीवन जीने की दौड़ मे नही भागना है बल्कि अपनी दुनिया अपने नजरिये के मुताबिक बनानी है जहां हर समय किसी और के लक्ष्यों के पीछे नही भागना है।
(लेखिका मनोवैज्ञानिक हैं ) 
Radio_Prabhat
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