- नारी सम्मान नहीं तिरस्कार करती वोट की सियासत !
- मैथिली को टिकट वंदन नहीं सियासी व्यवधान
सीमा चतुर्वेदी
महिलाओं को रेवड़ियां वंदन नहीं प्रलोभन2023 में पारित हुए महिला आरक्षण बिल को भले ही नारी शक्ति वंदन अधिनियम नाम दिया गया हो पर सच ये है कि सियासत में नारी की शक्ति का सम्मान नहीं इस्तेमाल दिखाई देता है। अपमान, शोषण, तिरस्कार और नारी को कमजोर और प्रलोभन में आने वाला लिंग समझने की मूर्खता करने की भूल कर रहे हैं राजनीतिक दल।
भले ही देशभर की ज्यादातर परीक्षाओं में लड़कियां बाजी मारती रही हैं लेकिन राजनीतिक दलों के पैमाने में महिलाएं सिर्फ एक वोट बैंक है जो रेवड़ियां के प्रलोभन में चुनावी बेड़ा पार लगा सकती हैं।
पिछले कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति में महिला सशक्तिकरण के नाम पर चुनाव से पहले महिलाओं को रेवड़ियों की तरह कैश बांटने की घोषणा होती है।
और अब तो ये आलम है कि चुनावी तारीखें की घोषणा यानि आचार्य संहिता से महीने-दो महीने पहले महिलाओं को रकम बांट दी जाती है। जैसा कि हालिया बिहार चुनाव की घोषणा से पहले नीतीश सरकार ने महिलाओं के खाते में दस-, दस हजार रुपए डाल दिए।
बिहार सरकार इस मद में पांच हजार करोड़ का खर्च महिलाओं को स्वरोजगार देने के लिए कर रही है या चुनाव से महीना-दो महीना पहले दी गई ये राशि महिलाओं का वोट हासिल करने का चारा है ? इस सवाल का जवाब कई सवालों के जवाबों से मिलेगा।
प्रश्न कई हैं। चुनाव के पहले ही महिला सशक्तिकरण की याद क्यों आती है। बेरोज़गारी युवकों की भरमार में युवकों के स्वरोजगार की फ़िक्र क्यों नहीं ?
क्या महिला स्वरोजगार सृजित करने का कोई मानक निर्धारित होता है। विभिन्न सूबों में इस तरह की चुनावी योजनाओं में धन वितरण के बाद क्या इस बात की समीक्षा रिपोर्ट पेश की गई कि महिलाएं स्वरोजगार इत्यादि में कितना आगे बढ़ीं!
देश और प्रदेशों पर दिनों-दिन कर्जा और रेवड़ियां की तरह कैश बंटने का रिवाज साथ-साथ बढ़ता जा रहा है। दिल्ली, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र गुजरात, बिहार इत्यादि राज्यों में महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर महिला वोट बैंक का लाभ लेने के लिए खूब सच्ची-झूठी घोषणाएं होती रहीं.
चुनावी प्रलोभन में हजारों करोड़ का कैश बांटने का रिवाज थमने का नाम नहीं ले रहा है। ना इसमें चुनाव आयोग आपत्ति कर रहा है और ना ही इस चुनावी रिवाज पर कोई दमदार तरीके से न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहा है।बड़ा सवाल ये है कि पुरुष प्रधानता में अव्वल राजनीतिक दल महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा अधिक प्रलोभन का शिकार बनाना चाहते हैं। क्या ये समझते हैं कि महिलाएं प्रलोभन में आसानी से आ जाती हैं !
शिक्षा से लेकर योग्यता और प्रतिभा के पैमानों में पुरुषों से चार कदम आगे चलने वाली महिलाओं को क्या वोट की ताकत का अंदाजा नहीं जो वे रेवड़ियां के प्रलोभन से प्रभावित हो जाएंगी !
चुनावों से पहले महिलाओं के खाते में चंद हजार रुपए डाल देने से क्या वाकई नारी सशक्तिकरण हो जाएगा ?
दरअसल पुरुष प्रधान सियासतदाओं ने महिलाओं को मजाक समझ लिया है। सत्ता बनाने में पुरुष और महिलाओं की वोटिंग का योगदान फिफ्टी-फिफ्टी है लेकिन सियासत में हिस्सेदारी पंद्रह फीसदी भी नहीं। आजादी के बाद सात दशक बाद तेंतीस फीसद महिला सीटें आरक्षित करने वाला विधेयक पास भी हुआ तब भी जनगणना/परिसीमन इत्यादि के तकनीकी कारणों से इसे लागू होने में अरसा लग जाएगा। पंचायती राज संस्थाओं (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद) में महिलाओं के लिए पहले से ही एक तिहाई (33%) सीटें आरक्षित हैं। पर यहां कई बार देखा जाता रहा है कि किस तरह पुरुष अपनी पत्नी या मां इत्यादि को डमी की तरह इस्तेमाल कर पूरी राजनीति और पदों पर अप्रत्यक्ष रूप से काबिज रहते हैं।
सियासत का स्वार्थ इतना सिर चढ़ कर बोलता है कि किसी क्षेत्र में तरक्की करती महिला की लोकप्रियता का राजनीतिक लाभ लेने के लिए उनकी प्रतिभा में व्यवधान पैदा कर दिया जाता है। कम आयु की बिहार की बेटी मैथिली ठाकुर जो भारत की लोक गायिकी को दुनिया भर में रौशन कर रही है, ऐसी युवा संगीत की विद्यार्थी को राजनीति में लाने का क्या अर्थ है ? यही कि एक उभरती हुई प्रतिभा की लोकप्रियता को चुनावी लाभ के लिए भुनाया जा सके। भले ही राजनीति का नया सफर कला की साधना को बाधित कर दे।
इस तरह ना जाने कितनी ही कलाओं और खेलों की प्रतिभाओं को भुनाने के लिए उनकी प्रतिभा की दुनिया से पलायन कराकर राजनीति के प्रलोभन में फंसाया जा चुका है। यूपी-बिहार के की कलाकारों की कला की ऊंचाइयों की बाधा बन कर सियासी दलों ने स्वार्थ साधा है।
महिला आरक्षण बिल की हिमायत करने वाले सभी दलों ने क्या मन ने इस बिल का समर्थन किया था या मजबूरी में ? इसका जवाब भी दलों के टिकट बंटवारे में नजर आ रहा है।
महिला आरक्षण विधेयक पास होने के बाद अब तक विभिन्न राजनीतिक दलों ने महिलाओं को बीस फीसद भी हिस्सेदारी नहीं दी। बिहार की हालिया चुनावी बेला में दलों/गठबंधनों ने जितने भी टिकट फाइनल किए हैं उनमें औसतन पंद्रह फीसदी भी महिला भागीदारी नहीं है। ना किसी भी दल ने सी एम या डिप्टी सी एम की दावेदारी में महिला का चेहरा प्रोजेक्ट किया है।
बिहार के पवन सिंह हों या यूपी के रघुराज प्रताप सिंह राजा भइया हों या ऐसी और भी तमाम राजनीतिक हस्तियां हों, पत्नियों की शिकायतों की मानें तो यही लगता है कि सियासत की पैकिंग पर तो महिला सम्मान चमकता है किंतु अंदर तिरस्कार, इस्तेमाल और शोषण के अंधेरे हैं।