Monday - 13 October 2025 - 9:28 AM

श्मशान संवारने वाले के महल हो रहे खंडहर, कौन देगा सहारा को सहारा !

नवेद शिकोह

श्मशान घाट (बैकुंठ धाम ) तक को सजाने-संवारने वाला सहारा समूह खंडहर बनता जा रहा है। इसके आलीशान ठिकानों-महलों को सरकार अपने कब्जे में ले रही है।

ताकत,शोहरत और मिल्कियत पर गुमान करने वाले महलों के राजकुमारों को ऐसी सच्चाई देख कर आंखे खोलना चाहिए हैं!

सहारा शहर लखनऊ का एक ऐसा आधुनिक महल था जिसके दर में तीन दशकों के दौरान देश की हर बड़ी हस्ती दाखिल हुई।

इस महल के राजा का देश में सिक्का चलता था। व्यापार,खेल,मीडिया,सियासत, नौकरशाही, जुडिशरी,फिल्म-टीवी,फैशन, साहित्य,समाज सेवा, धर्म-अध्यात्म ..हर जगह।

कमाऊ, ग्लैमरस और देश-दुनिया में लोकप्रियता के झंडे गाड़ने वाली इंडियन क्रिकेट टीम का सहारा भी सहारा था। सहारा शहर का कोई राजकुमार जिधर से गुजरता था उस रास्ते अपनी पलकों से झाडू लगाने को तैयार रहने वाला मोहकमा आज मालिकाना दावा करते हुए महल के द्वार पर तन कर खड़ा है।

नब्बे के दशक में सहारा समूह ने पुराने दौर को आधुनिक दौर की चमक-दमक और चकाचौंध से वाकिफ किया था।
सहारा ने यूपी में मॉल कल्चर की शुरुआत की। कॉरपोरेट मीडिया की भव्यता भी इसी ग्रुप ने दिखाई थी। राष्ट्रीय सहारा अखबार की स्थापना से यूपी के स्थापित अखबारों के शिकन पर पसीना आ गया था।

अलग-अलग राज्यों में सहारा समय के जब क्षेत्रीय न्यूज चैनलों की शुरुआत हुई तब नंबर वन न्यूज चैनल आजतक को सहारा समय यूपी ने टीआरपी में पछाड़ दिया था। सहारा में काम करने की हसरत हर मीडिया कर्मी को होती थी। धीरे-धीरे इस समूह का सारा वैभव फीका पड़ते- पड़ते अंधकारमय होता चला गया।

बादशाह सिकंदर हो हलाकू या बड़े से बड़े घराने,सितारे, हस्तियां, उद्योगपति ,रजवाड़े नवाब, सब खाली हाथ आए थे खाली हाथ ही गए। वक्त ने बड़े से बड़े महलों को खंडहर बना दिया।

नवाबों के शहर की भी ये तासीर है कि नवाबी खानदान जिस तरह फकीरी से गुजरे वैसे ही लखनऊ से स्थापित देशभर में चमकने वाली हस्तियों और घराने के चिरागों को वक्त ने गुल कर दिया। मिसालें एक नहीं दर्जनों हैं।

सहारा समूह के संस्थापक सु्ब्रत राय समाजवादी पार्टी, मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के बेहद करीबी थे।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सियासी सिक्का चलाकर राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित धरती पुत्र मुलायम सिंह के राइट हैंड कहे जाने वाले मरहूम अमर सिंह की देश की सियासी, औद्योगिक और फिल्मी दुनिया में तूती बोलती थी।

अमर का अच्छा वक्त भी अमर नहीं रहा, एक दौर में भी रहा जब शोहरत और रसूख की चकाचौंध ने उनसे किनारा कर लिया था।

अखिलेश यादव के जमाने की नई समाजवादी पार्टी से उनका रिश्ता टूट गया था। लम्बी बीमारी के दौरान अमर सिंह को वक्त ने गुमनामी के अंधेरों में छिपा लिया। और एक दिन असमय वो दुनिया छोड़ कर चले गए।

उत्तर प्रदेश में जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे तब अमर सिंह का रुतबा सरकार में दूसरे नंबर पर था। केंद्र की सियासत में भी उनके रसूख की अमर गाथा है। परमाणु करार को लेकर यूपीए सरकार का फ्लोर टेस्ट था,सरकार अल्पमत में आकर गिर सकती थी। सरकार बचाने तक में अमर सिंह का महत्वपूर्ण रोल था। लखनऊ से लेकर दिल्ली की सियासत और अर्थ नगरी मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में अमर सिंह की शहनशाहत थी। इसी जमाने का एक छोटा सा किस्सा बहुत कुछ बयां करता है-

लखनऊ के वीवीआईपी गेस्ट हाउस से अमर सिंह प्रेस कांफ्रेंस के बाद लौट रहे थे। प्रभावशाली सियासी हस्तियों के साथ जैसा होता है वैसा ही हुआ। तमाम पत्रकार उनके साथ कदम ताल मिलाते हुए उनके पीछे-पीछे भाग रहे थे।

कोई सवाल कर रहा था तो कोई उनसे पांच मिनट का समय मांग रहा था। भीड़ मे एक पत्रकार का लिबास और बातचीत का स्तर औरों से बेहतर था।

सूट-बूट वाले वो पत्रकार अमर सिंह से बोले- मैं टाइम्स से हूं, इंटरव्यू के लिए थोड़ा समय दे दीजिए। सब को इग्नोर कर रहे थे पर टाइम्स..नाम सुन कर अमर सिंह राज़ी हो गए।बोले मैं एयरपोर्ट जा रहा हूं। मेरी गाड़ी में बैठ जाइये, रास्ते मे ही बातचीत हो जायेगी। पत्रकार जी खुशी-खुशी कार में बैठ गये। कार चल दी और इंटरव्यू शुरू हो गया। रास्ते में इस पत्रकार ने बातचीत करते करते अमर सिंह को टाइम्स से मिलते-जुलते नाम की अपनी लोकल मैगजीन दिखा दी।

अमर सिंह स्थानीय स्तर की मैगजीन देखकर आगबबूला हो गये, कार रुकवाई और पत्रकार महोदय से कहा निकल लीजिए आप, समय नष्ट मत कीजिए।

दरअसल अमर सिंह ने टाइम्स सुनकर ये समझा था कि ये टाइम्स ऑफ इंडिया का कोई सीनियर पत्रकार है। बाद में जब पता चला कि ये पत्रकार महोदय टाइम्स से मिलते जुलते नाम की फाइल कॉपी टाइप की अपनी पत्रिका चलाते हैं,जिसके लिए ही वो इंटरव्यू ले रहे हैं।

ये जानकर अमर सिंह ने पत्रकार को अपनी गाड़ी से उतार दिया। ये एक सच्चा किस्सा है,लेकिन जीवन का फलसफा भी यही है कि टाइम्स एक नहीं होता, टाइम कई प्रकार के होते हैं। टाइम बदलता रहता है। अच्छा वक्त किसी को भी कभी भी अपनी गाड़ी में बैठा लेता है और जब बुरा वक्त आता है तो अच्छे वक्त की गाड़ी से बुरा वक्त उतारा देता है।

(“लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं। जुबिली मीडिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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