Wednesday - 10 January 2024 - 1:48 PM

गाय अम्मा के कंधों पर अर्थव्यवस्था का बोझ

सुरेन्द्र दुबे

पिछले दिनों हमने एक अथश्री भैंस कथा लिखी थी। इसका काफी विरोध भी हुआ था। गायें भी इसकों लेकर इनफीरियारटी कांप्लेक्स से पीड़ित हो गई थीं। उनका कहना था कि हमारे नाम पर केन्द्र से लेकर राज्यों में सरकार बन गई और आज भी हम वोट दिलाने का दमखम रखते हैं। हमारे चरणों में सरकार पड़ी हुई है और जुबिली पोस्ट हमारे बजाए भैंस पर कलम चला रहा है। पोर्टल मुर्दाबाद।

हमें भी कुछ दिनों से चुल्ल लगी हुई थी कि गाय पर भी कुछ न कुछ लिखना चाहिए। सो मौका मिल गया। अब सुनाते हैं अथश्री गाय कथा। गायें क्यों न रश्क करें, जब से सृष्टि बनी है, गाय का जिक्र आता है। प्राचीन समाज मुख्यत: गाय की ही कमाई पर निर्भर था। बड़े आलसी लोग थे। गाय कमाती थी और पूरा घर खाता था।

गाय को घास खिलाकर बहला लिया जाता था और खुद दूध-घी व दही खाकर मौज उड़ाते थे। हमारी सारी अर्थव्यवस्था का भार गाय अम्मा संभालती थी। अम्मा बच्चों को कभी कुछ मना नहीं कर सकती इसलिए अर्थव्यवस्था मौज से चल रही थी। पर अब गायों पर संकट आन पड़ा है। उन्हें गांवों केे साथ ही साथ शहरों का भी बोझ उठाना है। आर्थिक मंदी के दबाव के कारण उन्हें ट्रक, कार, स्कूटर और तमाम उद्योगों के गिरते स्वास्थ्य को भी संभालना है।

हाल ही में पता चला है कि अर्थव्यवस्था में छाई मंदी का बोझ अब गायों को उठाना पड़ेगा। अब अगर ऑटो मोबाइल नहीं बिक रहे हैं तो गाय बेचारी क्या कर सकती हैं। पर जब आर्थिक मंदी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है तो इससे होने वाले घाटे और बेरोजगारी को दूर करने के लिए गाय को एलर्ट कर दिया गया है। गाय पालिए, पैसा लीजिए। मूत्र व गोबर के स्टार्टअप लगाइये, देश के निर्माण में हाथ बटाइयें।

पांच ट्रिलियन की इकोनॉमी बनानी है तो फैक्ट्रियों के भरोसे कब तक रहेंगे। इसलिए अब हम सब फिर पुरातन व्यवस्था पर लौंटेंगे और पशुधन संरक्षण, शोषण और दोहन करके देश को पांच ट्रिलियन की इकोनॉमी तक पहुंचा कर अंतरराष्ट्रीय जगत में अपना झंडा लहरायेंगे।

दोहन से भगवान कृष्ण की बांसुरी की याद आ गई। अभी तक हम लोग सिर्फ यही जानते थे कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में उपदेश देकर इस दुनिया में लोगों को कर्म करने व मोक्ष प्राप्त करने की शिक्षा दी थी। अब पता चला है कि भगवान श्रीकृष्ण का असली काम बांसुरी बजाकर गायों का दूध निकालना था। खैर इससे रोजगार तो बढ़ेंगे ही, हर गौपालक के लिए एक बांसुरी वादक रखना अनिवार्य हो जायेगा, क्योंकि राजा के हुकुम से बगैर बांसुरी सुने गायों के दूध देने पर मनाही कर दी जायेगी। गाय एक राष्ट्रीय पशु है, इसलिए वह इसका विरोध कर राष्ट्र विरोधी नहीं कहलाना चाहेगी।


हम कई साल से कौशल विकास केन्द्र चला रहे हैं। कोई खास सफलता नहीं मिली। अब अगर बांसुरी वादन इसमें शामिल कर दिया जाये तो हर घर में नौकरियां टपकने लगेंगी। हर चौराहे पर लोग बांसुरी लिए खड़े रहेंगे। जैसे ही गाय को देखेंगे बासुरी बजाने लगेंगे। गाय के पास दूध उलीचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होगा। दूध के चट्टों पर बड़े-बड़े हरि प्रसाद चौरसिया सर में पगड़ी बांधे बांसुरी बजा रहे होंगे। इससे हमारी संगीत कला का भी विकास होगा और हो सकता है बांसुरी वादन को राष्ट्रीय करतब में शामिल कर दिया जाए।

गायों को एक और महती कार्य भी करना होगा। ज्यादा से ज्यादा बछड़े भी पैदा करने होंगेे। वरना बैलगाड़ियों के लिए बैल कहां से आयेंगे। आखिर जब मोटर वाहन का व्यापार धीरे-धीरे ठप हो जायेगा तो हमें बैलगाड़ियों के सहारे ही आगे बढऩा होगा। भला हो निर्मला जी का जिन्होंने हमें वक्त रहते बता दिया कि ओला और उबर के कारण ऑटो उद्योग बर्बाद हो रहा है। इसलिए अब हमें बैलगाड़ी के बारे में सोचना ही पड़ेगा। ओला और उबर की ऐसी की तैसी। हम बैलगाड़ियों वाली ओला और उबर सड़कों पर उतार देंगे। इसी पर सामान लदेगा और इसी पर आदमी लदेगा। किसी प्रकार की कोई किल्लत नहीं रहेगी।

जब भगवान श्रीकृष्ण ने बांसुरी वाली बात सुनी तो उन्होंने फौरन अपने कैबिनेट की बैठक बुलाई और अपने मंत्रियों से पूछा कि वो तो जंगल में इसलिए बांसुरी बजाते रहते थे कि उनका किसी तरह समय कट जाये और शाम होते ही अपनी दिहाड़ी पूरी करके गांव को लौट आते थे। ये बांसुरी बजा करके गायों को दूध देने के लिए प्रेरित करने के बारे में तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं। अगर उनकी बांसुरी से प्रभावित होकर गायें जंगल में ही दूध देना शुरु कर देती तो घर पहुंचने पर तो नंद बाबा जमके उनकी कुटाई कर देते।

अब कृष्णलोक में भगवान श्रीकृष्ण भौचक्के हैं और मृत्यु लोक में गऊ माता। काम तो करना ही पड़ेगा। हैसियत से ज्यादा दूध भी देना पड़ेगा। शास्त्र कहते हैं कि गाय के शरीर में 33 करोड़ देवी-देवता का वास होता है। कहीं-कहीं 64 करोड़ का भी जिक्र है। इतने देवी-देवता के रहते भी गायें भूखी रह जाती है। पॉलीथिन खाकर मर जाती हैं और देवी-देवता टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं। सो गायों को इन देवी-देवताओं से तो बहुत उम्मीद नहीं है। उधेड़बुन में फंसी हुई हैं कि कैसे इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था का बोझ उठायेंगी। एक तरह से कहा जाए तो गायें बहुत बड़े संकट से गुजर रही हैं। अगर अर्थव्यवस्था के निर्माण में सहयोग देने से इनकार करें तो राष्ट्रदोह की तोहमत लग सकती है।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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